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कैश फिर किंग, 2017 के मुकाबले दोगुना हुआ सर्कुलेशन, समझिए क्यों?

कोरोना काल में ही चार लाख करोड़ ज्यादा कैश सर्कुलेशन में आ गया

क्विंट हिंदी
बिजनेस
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<div class="paragraphs"><p>प्रतीकात्मक तस्वीर</p></div>
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प्रतीकात्मक तस्वीर

(फोटोः Twitter)

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कोरोना वायरस संकट के दौर में इकनॉमी में एक नया बदलाव देखने को मिला है. पहले के मुकाबले अब लोग ज्यादा करेंसी कैश के रूप में अपने पास रखने लगे हैं. मार्च 2020 में करेंसी सर्कुलेशन 24.13 लाख करोड़ रुपये था, जो मार्च 2021 तक बढ़कर 28.31 लाख करोड़ के पार चला गया. करेंसी सर्कुलेशन में हुई बेतहाशा बढ़ोतरी के पीछे एक्सपर्ट कोरोना संकट को मान रहे हैं और दूसरी लहर से साथ इस ट्रेंड में और तेजी देखने को मिली है.

मोदी सरकार इकनॉमी के डिजिटलीकरण को अपनी उपलब्धि के तौर पर गिनाती है. नोटबंदी का एक बड़ा फायदा गिनाया गया कि इसके जरिए करेंसी सर्कुलेशन घटा है. नोटबंदी के ठीक बाद के वक्त में मार्च 2017 के करेंसी सर्कुलेशन करीब 13 लाख करोड़ था. लेकिन अब ये बढ़कर दोगुने से भी ज्यादा हो गया है.

क्यों कैश ज्यादा रख रहे लोग?

केयर रेटिंग्स के अर्थशास्त्री मदन सबनीवस ने फ्री प्रेस जर्नल में लिखा-

"लोग दो कारणों की वजह से करेंसी अपने पास रखते हैं. एक ट्रांजैक्शन के लिए और दूसरा सावधानी के तौर पर. महामारी में संकट के बादल कभी भी फट सकते हैं. इसलिए हर कोई अपने पास जरूरत का कैश रखता है. महामारी के दौरान मेडिकल उपकरणों और अलग-अलग मेडिकल सुविधाओं की कालाबाजारी की काफी खबरें मिली. कालाबाजारी का पूरा खेल कैश में ही होता है. इसलिए अगर आपको इमरजेंसी में स्वास्थ्य संबंधी कोई खर्च करना है तो उसके लिए आपके पास कैश होना जरूरी है. पहली लहर में तो ये ट्रेंड दिखा ही था लेकिन दूसरी लहर में ये और मजबूत हुआ है."

भारत की मौजूदा परिस्थिति देखें तो ऐसा नहीं लगता कि डिजिटल ट्रांजैक्शन ने कैश को रिप्लेस किया है. नोटबंदी के पहले कैश टू जीडीपी रेश्यो 12% के करीब था, नोटबंदी के बाद ये घटकर 8.5% पर आया. लेकिन अब 2020-21 में ये फिर बढ़कर 14.5% हो गया है. मतलब नोटबंदी के पहले के दौर से भी ज्यादा. इसमें जीडीपी में आई गिरावट का भी बड़ा हिस्सा था.
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इकनॉमी के जानकार विवेक कौल ने मिंट में लिखा है- "बाजार में कैश बढ़ने का सबसे बड़ा कारण है कोरोना वायरस महामारी. लोगों ने बैंकों से खूब पैसा निकाला और अपने घर में ही रखा ताकि वो इमरजेंसी में काम आ सके. इसका साफ मतलब है कि कैश में ज्यादा लेन-देन हो रहा है. कोरोना संकट की शुरुआत में जिस तरह से प्रवासी मजदूरों को घर वापस लौटने के लिए कैश की सख्त जरूरत पड़ी, ट्रक, टैक्सी, ठेले वालों को देने के लिए कैश की ही मांग की गई. इससे लोगों का कैश के प्रति भरोसा ज्यादा बढ़ा. इसके अलावा मेडिकल फैसेलिटी पाने में भी कैश की जरूरत अहम हो गई."

'एक पहलू ये भी है कि कोरोना के वक्त में लोगों ने जो पैसा कमाया वो बैंक में जमा नहीं कर पाए. समेट कर कहें तो 2017 के बाद से कैश सिस्टम को बढ़ावा मिला है. इससे साफ होता है कि नोटबंदी का अहम लक्ष्य जो कि भारत को कैशलेस बनाने का था वो बुरी तरह फेल हो गया है. कैश किंग था, कैश किंग और कैश ही किंग रहेगा.'

बिजनेस स्टैंडर्ड में अनूप रॉय लिखते हैं- 'लोग अपनी सेविंग को करेंसी के रूप में घर में रखते हैं, ये एक तरह से सिस्टम का लीकेज है. मतलब लोग इसे जमा नहीं करना चाहते, बल्कि कैश ट्रांजैक्शन चाहते हैं. कुल मिलाकर डिपॉजिट रेट घट रहा है और ये किसी भी इकनॉमी के लिए अच्छा नहीं होता. अगर आरबीआई डिपॉजिट रेट बढ़ाती है, तो कर्ज देने वाला लेंडिंग रेट भी बढ़ेगा. इसलिए जब तक इकनॉमी रिकवरी के रास्ते पर नहीं लौटती, आरबीआई ये कदम नहीं उठाएगी. इसलिए मार्केट में आगे आने वाले कुछ वक्त तक कैश बना रहेगा.'

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