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बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार अब अपने पूर्व सहयोगी जीतन राम मांझी के साथ चुनावी मैदान में हैं. लेकिन चुनावी बिसात पर ये दांव कितना कारगर साबित होगा, इसपर कई सवाल हैं.
मांझी के एनडीए में आने से पहले ही खटपट चल रही थी. LJP और खासकर चिराग पासवान लगातार नीतीश सरकार पर हमले बोल रहे थे. जानकारों के मुताबिक ये सारा मामला सीटों का था. अब जैसे ही मांझी एनडीए में आए ये टकराव बढ़ता दिख रहा है. पहले तो LJP ने 4 सितंबर को फुल पेज ऐड निकालकर चिराग पासवान ने कहा - सभी बिहार पर राज करने के लिए लड़ रहे हैं, हम बिहार पर नाज करने के लिए लड़ रहे हैं.
इसके बाद मांझी ने चिराग पर निशाना साधा है. उन्होंने कहा है कि अगर वो अपनी हरकतों से बाज नहीं आए तो तगड़ा जवाब मिलेगा. मांझी ने कहा है-
अब चिराग पासवान ने 7 सितंबर को पार्टी नेताओं की एक बैठक बुलाई है. बिहार के सियासी समीकरण के लिहाज से ये बैठक अहम मानी जा रही है. कुल मिलाकर लग रहा है कि मांझी ने एनडीए में आकर आग में घी डालने का काम किया है. वैसे जैसे ही वो एनडीए में आए, कहा यही जा रहा था कि नीतीश ने उन्हें इसलिए स्वीकार किया ताकि पासवान पर लगाम रहे.
अब आते हैं कि ये मांझी एनडीए को महंगा पड़ सकते हैं. मांझी और पासवान का वोट बैंक एक ही माना जाता है लेकिन दोनों के वोट शेयर में काफी अंतर है. पिछले दो चुनावों में मांझी की पार्टी सिर्फ 2 प्रतिशत से थोड़ा अधिक वोट खींच पाई. जबकि एलजेपी औसतन 7 प्रतिशत वोट लेती रही है. एलजेपी के पास निष्ठावान वोटर हैं जबकि मांझी के वोटर्स के बारे में ये नहीं कहा जा सकता. तो ऐसे में अगर 7 सितंबर की बैठक में पासवान कुछ अतरंगी कदम उठाते हैं तो एनडीए को कितना हासिल होगा और कितना नुकसान, ये सवाल रहेगा.
महागठबंधन से नाता तोड़कर अलग हो चुके हिंदुस्तान आवाम मोर्चा के अध्यक्ष और पूर्व सीएम मांझी एक अभ्यस्त दलबदल नेता हैं, कई बार ऐन मौकों पर उन्होंने पार्टी बदली है. उन्होंने अपना राजनीतिक निर्वाचन क्षेत्र भी बार-बार बदला है. ये बीजेपी ही थी जिसने मांझी को तब शरण दी थी जब उन्हें फरवरी 2015 में नीतीश कुमार ने जेडी-यू से बाहर कर दिया था. पहले वो बीजेपी की अनदेखी कर आरजेडी में शामिल हुए और आखिरकार वे नीतीश के पास लौट आए हैं. लेकिन ये चुनाव है और इससे पहले यहां पार्टियों की नाव धारा के उलट बहने लगती है, कहीं भी लग जाती है. और एक बात ये भी है कि जो दिख रहा होता है वो होता नहीं है. ऐन चुनाव से पहले कई बार पार्टियां और उनके नेता जनता की बात करने के बजाय अपने सम्मान और इज्जत की दुहाई देने लगते हैं. इसपर इतनी बातें और इतनी कवरेज होती है कि वोटर की बात, वोटर के मुद्दे पीछे रह जाते हैं. तो चुनाव के बाद आपको एनडीए के बदलने समीकरण सिर्फ सियासी सरकस नजर आए तो चौंकिएगा नहीं.
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