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वीडियो एडिटर : कनिष्क दांगी
बिहार का चुनाव एक सिंपल टकराव वाला चुनाव है. वो ये है कि एक तरफ हैं बिहार के बेहद सयाने वोटर दूसरी तरफ हैं डेढ़ स्याने नेता. इस बात के एक नहीं ढेर सारे सबूत हैं, जिसे एक-एक करके आपको बताते हैं. दरअसल, बिहार में नेता पॉलिटिक्स से ज्यादा वोटर को फिलॉसफी सिखाते हैं.
उदाहरण देखिए, सबसे पहले सुशांत सिंह का किस्सा, ऐसा नैरेटिव बनाया गया कि लगा की चुनाव इसी मुद्दे पर होगा लेकिन अब इसका कोई नामलेवा नहीं बचा है. इसी तरीके से लोक जनशक्ति पार्टी ने जब नीतीश कुमार के खिलाफ बयानबाजी शुरू की. किसी से छिपा हुआ नहीं था कि एलजेपी, बीजेपी की ही बी टीम के तौर पर उतरी है. अब बीजेपी को बार-बार सफाई देनी पड़ रही है क्योंकि नीतीश कुमार वो सफाई मांग रहे हैं.
तीसरी बात यह है की यहां पर कोई भी पार्टी जनादेश मांगने और बहुमत मांगने नहीं गई है. गठबंधन में सरकार बनाने का मौका दे दीजिए यही गुहार लगा रही हैं. किसी भी पार्टी की इतनी हैसियत नहीं है कि वह 51% सीट मांग सके.
बिहार में नेता क्या करता है? राष्ट्रवाद, विकास जैसे मुद्दे बेचने की कोशिश करता है लेकिन वहां पब्लिक पूछ रही है कि नौकरियां कहां हैं. जो वादा किया था उसका क्या हुआ और कोरोना महामारी के दौरान जो प्रवासी आए उनकी हालत क्या हुई. जनता कुछ ऐसे सवाल पूछ रही है, पब्लिक का ये नैरेटिव है, ये बात सामने आ रही है.
सयाना बनाम डेढ़ सयाना की लड़ाई में एक चीज और देख लीजिए. नेता एक नैरेटिव दे रहा है उसको वहां का वोटर एक्सेप्ट करने को तैयार नहीं है तो जब आप एंकरों की आवाजों को और नेताओं के प्रलापों को दूर करके जब आम आदमी को सुनेंगे तो पता चलेगा कि वो कहना क्या चाह रहे हैं. ऐसे आम लोग गरीबी, बेरोजगारी, गैर-बराबरी और विकास की कमी की बात कर रहा है. एक नाराजगी है जो इन लोगों के माध्यम से आपके सामने आ रही है.
नेता अपनी कहानी बेच रहे हैं कि हमने 15 साल में क्या किया, क्या करेंगे. 31 साल का एक लड़का तेजस्वी यादव वहां पर लालू यादव की गैरमौजूदगी में चुनाव लड़ रहा है. दिल्ली में बैठकर ये दिखता है कि एनडीए के लिए ये चुनाव काफी सुगम है लेकिन ऐसा नहीं है काफी कांटे की टक्कर है.
बिहार को समझते में एक और भूल करते हैं हम लोग. जब भी बिहार की बात आती है तो पर्यायवाची शब्द बना देते हैं कि कि बिहार का मतलब जातिवाद. ये एक बहुत बड़ा भ्रम है इसलिए है कि पहले की राजनीति में ये था और मीडिया उसको अब तक खींचता रहता है.
उदाहरण के तौर पर बीजेपी अभी खुद को अपर कास्ट की पार्टी के तौर पर प्रदर्शित कर रही है क्योंकि 110 सीटों के उम्मीदवार जो सामने आए हैं उसमें 51 उम्मीदवार अपर कास्ट के हैं. जबकि, बिहार में अपर कास्ट की आबादी 16 फीसदी है. 74 फीसदी आबादी नॉन-अपर कास्ट है, उसमें मुसलमानों को जोड़ दीजिए तो ये बनता है 84% की आबादी. इनका प्रतिनिधित्व तो ही डेमोक्रेसी की बात है. ऐसे में एक्टिंग सब करते हैं लेकिन प्रतिनिधित्व देने में कंजूसी करते हैं. बिहार ने इस पूरे गणित को बदल दिया है इसलिए देखिए कि राष्ट्रीय पार्टियों का क्या हश्र हुआ है और वहां की क्षेत्रीय पार्टियां अपना दबदबा बनाए हुए हैं.
और इसका प्रतिनिधित्व भी दो डेमोक्रेसी है तो नाटक सब करते हैं लेकिन रिप्रेजेंटेशन देने में कंजूसी करते हैं बिहार ने इस को बदल दिया है इसलिए देखिए राष्ट्रीय पार्टियों का क्या हश्र हुआ है छोटी पार्टियां अपना दबदबा कायम रखने का प्रयास करते हैं
बिहार अब तक शायद अकेले ऐसा राज्य है, जहां अभी तक किसी एक अकेली पार्टी को वोट देने का मन लोगों ने नहीं बनाया है. सयाने पन का सबसे बड़ा सबूत ये है. पूरे भारत में जो नैरेटिव चलता है और जैसे पब्लिक अपने आप को एक्सप्रेस करती है उसकी बुनियाद में आप देखेंगे तो पता लगेगा कि बिहारी वोटर जो है वो जनता का नैरेटिव गढता है. वो ये है कि हम टुकड़े में जनादेश देंगे, तुम गठबंधन में सरकार चलाओ, अभी भी हमारा तुमपर भरोसा नहीं होता.
सयाने पन और डेढ़ सयाने पन का जो सबसे बड़ा टेस्ट और फिल्टर है वो है नया ट्रेंड. पहले के चुनाव में वोटर माइंड मेकअप कर लेता था कि वो क्या सोचते हैं लेकिन अब वो कह रहे हैं कि सोचेंगे, अभी समय में है. ऐसे में इस तरह के वोटर की संख्या बहुत बड़ी है. तो ये जो 'साइलेंट' और 'अनडिसाइडेड वोटर' है ये इनका सयानापन है, इनकी तादाद पिछले चुनाव से काफी बड़ी है.
नीतीश कुमार ने अपने लिए जो बहुत बड़ी पैठ बनाई थी वो महिलाओं के बीच बनाई थी और नशाबंदी के जरिए तैयार की गई थी. लेकिन अब ग्राउंड के मुद्दे जब सामने आ रहे हैं तो वोटर कड़े सवाल पूछ रहा है.
ऐसे में कुल मिलाकर बिहार का एक मिजाज है. नेताओं से सवाल पूछते हैं अपना विरोध जाहिर करते हैं जैसा कि इन चुनावों में कुछ केंद्रीय मंत्रियों और कई नेताओं को झेलना पड़ा. बिहार की जनता खुद को एक्सप्रेस करना जानती है.
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