advertisement
वीडियो एडिटर: अभिषेक शर्मा
चुनाव आयोग, रिजर्व बैंक और कानून मंत्रालय के चिंता जताने के बावजूद सरकार ने इलेक्टोरल बॉन्ड्स बेचना जारी रखा है तो चलिए इन चिंताओं पर गहराई से गौर फरमाते हैं. क्या आपने राजनीतिक चंदे के लिए इलेक्टोरल बॉन्ड खरीदे हैं? और क्या आपसे कहा गया है कि आपका दान गुप्त रहेगा यानी किसी को उसकी जानकारी नहीं होगी?
तो हम आपको बता दें, आपके इलेक्टोरल बॉन्ड में एक छिपा हुआ यूनिक अल्फान्यूमेरिक कोड होता है जिसकी जानकारी स्टेट बैंक ऑफ इंडिया को होती है और ये जानकारी वो सरकार के साथ शेयर कर सकती है. तो, अगर आपने विपक्षी पार्टी को चंदा दिया है तो सरकार इसके बारे में पता कर सकती है. इसलिए, ये जान लीजिए कि आपका राजनीतिक दान सीक्रेट नहीं है.
हमें ये कैसे मालूम?
क्विंट ये स्टोरी पहले भी कर चुका है. अप्रैल 2018 में, हमने सबसे पहले इलेक्टोरल बॉन्ड में छिपे यूनिक हिडन कोड के बारे में खुलासा किया था. ये कोड सरकार को विपक्षी पार्टियों को मिले चंदे को ट्रैक करने में मदद कर सकता है. हमने इस पर फॉलोअप स्टोरीज भी कीं कि कैसे ये लोकतंत्र और चुनाव प्रक्रिया को कमजोर करता है. हमारी स्टोरी के आधार पर, सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल की गई थी लेकिन दुख की बात है कि ये मामला अभी भी लंबित है. इस मुद्दे को विपक्ष ने भी संसद में उठाया था लेकिन क्या कुछ बदला? नहीं, कुछ भी नहीं बदला.
पहली बात करते हैं RBI की चिंता की. RTI डॉक्यूमेंट से पता चलता है कि RBI गवर्नर उर्जित पटेल ने 2017 में तब के वित्तमंत्री अरुण जेटली को चिट्ठी लिखी थी. उन्होंने इलेक्टोरल बॉन्ड्स को फिजिकल सर्टिफिकेट के तौर पर देने के बजाए डिजिटली जारी करने की पैरवी की थी. उन्होंने कहा था कि अगर इन्हें सर्टिफिकेट के तौर पर जारी किया गया तो इनका करेंसी के तौर पर इस्तेमाल किया जा सकता है. कई लोग इनका लेन-देन कर सकते हैं जिससे मनी लॉन्ड्रिंग का खतरा पैदा हो जाता है. लेकिन वित्त मंत्रालय ने पटेल की चिंताओं पर ध्यान नहीं दिया. कुछ भी नहीं बदला गया.
अब आती है चुनाव आयोग की बात. मई 2017 में EC ने कानून मंत्रालय को एक दूसरी चिंता बताते हुए खत लिखा. यह चिंता उस प्रस्ताव के बारे में थी जिसमें इलेक्टोरल बॉन्ड्स का इस्तेमाल कर दान करने वालों के नाम जाहिर ना करने की बात कही गई थी. EC ने कहा- अगर जनता को यह नहीं बताया जाएगा कि राजनीतिक दलों को पैसा किसने दिया तो इससे पॉलिटिकल फंडिंग की पूरी प्रक्रिया में पारदर्शिता नहीं होगी.
चुनाव आयोग ने कंपनी एक्ट, 2013 के सेक्शन 182 और 182 (3) के संशोधन की ओर भी इशारा किया जिसने वास्तव में सिर्फ डॉनेशन के मकसद से ही कंपनियां बनाने की अनुमति दे दी थी.
चुनाव आयोग ने कहा कि इससे शेल कंपनियों के जरिए काले धन को राजनीतिक चंदे के रूप में इस्तेमाल किया जा सकेगा लेकिन ऐसा लगता है कि चुनाव आयोग की चिंताओं को सरकार ने नजरअंदाज कर दिया और, कुछ भी नहीं बदला.
सुप्रीम कोर्ट में दायर एक याचिका की भी बात कर लेते हैं जिसके जरिए लोकसभा चुनाव से ठीक पहले मार्च 2019 में इलेक्टोरल बॉन्ड्स की बिक्री पर रोक लगाने की मांग की गई थी. तत्कालीन चीफ जस्टिस रंजन गोगोई ने इस याचिका पर सुनवाई की थी. अप्रैल में, गोगोई ने सभी राजनीतिक दलों को आदेश दिया कि उनको जो इलेक्टोरल बॉन्ड मिले हैं उनकी जानकारी सील्ड कवर में चुनाव आयोग को दी जाए लेकिन हैरानी की बात ये है कि उन्होंने इलेक्टोरल बॉन्ड की बिक्री पर रोक नहीं लगाई.
जनवरी 2020 में, एक बार फिर चीफ जस्टिस एसए बोबडे ने इस मामले को सुना लेकिन उन्होंने भी इलेक्टोरल बॉन्ड की बिक्री पर अंतरिम रोक लगाने से इनकार कर दिया. चुनाव आयोग, आरबीआई, कानून मंत्रालय की ओर से जताई गईं सभी आशंकाओं और चिंताओं हर बॉन्ड पर गुप्त छिपे हुए नंबरों की जानकारी यह सब सुप्रीम कोर्ट को पता था मगर फिर भी उसने इलेक्टोरल बॉन्ड की बिक्री पर रोक न लगाने का विकल्प चुना और इसलिए, एक त्रुटि भरी, असुरक्षित और भ्रष्ट चुनावी फंडिंग की प्रक्रिया बरकरार रहती है कुछ भी नहीं बदला.
(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)