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हिमाचल की राजनीति जरा हटके है, यहां सवर्णों के हाथ में है सत्ता की चाबी

हिमाचल प्रदेश का चुनाव जीतने जातीय राजनीति पर सभी पार्टियों को बहुत ध्यान देना पड़ता है

राजकुमार खैमरिया
चुनाव
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चुनावों (Election) का महाकुंभ कहे जाने वाले देश भारत में अभी एक माह पहले ही पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव संपन्न हुए हैं और अब इस साल के आखिर में होने वाले हिमाचल प्रदेश (Himachal Pradesh election 2022) और गुजरात के विधानसभा चुनाव (Gujrat election 2022) की सरगर्मियां तेज होने लगी हैं. 68 विधानसभा सीटों वाले हिमाचल प्रदेश की सत्ता पाने के लिए देश की दो बड़ी पार्टियां कांग्रेस और बीजेपी अभी से ही तैयारियों में लग गई हैं और देश की राजनीति में धमक दिखा रही आम आदमी पार्टी भी यहां धीमे-धीमे पैर जमाने के लिए चुनावी दांव चलने लगी है.

आम आदमी पार्टी (Aam Aadmi Party) के हिमाचल प्रदेश अध्यक्ष अनूप केसरी, संगठन महामंत्री सतीश ठाकुर और ऊना के अध्यक्ष इकबाल सिंह के बीजेपी के पाले में जाते ही यह भी स्पष्ट होने लगा है कि यहां चुनाव से कई महीने पहले ही तोड़ फोड़ की राजनीति भी शुरू हो गई है.

अब जब इस पहाड़ी राज्य में चुनावी रंग जमने लगा है तो हमने भी हिमाचल प्रदेश की राजनीति से आपको वाकिफ करना शुरू कर दिया है. इस राज्य का चुनावी इतिहास गवाह रहा है कि यहां का चुनाव जीतने के लिए भी भारतीय राजनीति के सबसे बड़े चुनावी फैक्टर जातीय राजनीति पर सभी पार्टियों को बहुत ध्यान देना पड़ता है.

इस राज्य में जातीय समीकरण काफी दिलचस्प हैं. 2011 की जनगणना के अनुसार राज्य में सबसे ज्यादा आबादी 50.72% सवर्ण जातियों की है. इसमें राजपूत समुदाय की संख्या 30.72% है. दूसरे नंबर पर 18% प्रतिनिधित्व के साथ ब्राह्मणों का नंबर आता है.

इन दोनों बड़ी जातियों को जोड़कर कुल आंकड़ा राज्य की आधी आबादी का हो जाता है. ऐसे में हिमाचल की सत्ता पर सत्ता की कुर्सी पर बैठने के लिए अपर कास्ट राजपूत और ब्राह्मण को साधना हर एक पार्टी की पहली प्राथमिकता रहती है.

सवर्ण वर्ग की इतनी बड़ी मौजूदगी के बावजूद ऐसा नहीं है कि पिछड़े और दलित वोट बैंक की प्रासंगिकता इस राज्य में कम हो जाती है. राज्य में 44% आबादी हिंदू पिछड़ा दलित वर्ग की है. इनमें सबसे अधिक अनुसूचित जाति 25.22%, अनुसूचित जनजाति 5.71%, ओबीसी 13.52% हैं. ऐसी स्थिति में दलितों के वोट पाने के लिए भी पार्टियां विशेष रणनीति बनाने में जुटी रहती हैं. राज्य में अल्पसंख्यक आबादी भी 4.83% है. आइए राज्य के जातीय चुनावी समीकरण पर एक नजर डालते हैं.

अपर कास्ट और राजपूत निर्णायक वोट बैंक

हिमाचल की सियासत में अपर कास्ट का और उसमें भी विशेषकर राजपूतों का कैसा दबदबा है, यह जानने के लिए हमें पिछले चुनावों के परिणामों पर नजर डालना चाहिए. हिमाचल की 68 विधानसभा में से 20 सीटें रिजर्व हैं, इनमें में 17 अनुसूचित जाति और 3 अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित है, बाकी की 48 सामान्य सीटें हैं. 2017 के चुनावों में इन सामान्य 48 सीटों में 33 विधायक राजपूत चुन कर आए. इनमें बीजेपी के 18, कांग्रेस के 12, अन्य के 3 हैं. राजपूत विधायकों की संख्या करीब 50 फीसदी रही.

सीएम भी राजपूत जय राम ठाकुर को बनाया गया और प्रदेश कैबिनेट में छह राजपूत मंत्री शामिल किए गए. प्रदेश में इससे पहले बने छह सीएम में से पांच राजपूत और एक ब्राह्राण समुदाय से रहे हैं. प्रदेश के पहले मुख्यमंत्री और हिमाचल के निर्माता कहे जाने वाले डॉ वाईएस परमार भी राजपूत थे.

इसके अलावा हिमाचल प्रदेश के दिग्गज नेता वीरभद्र सिंह जिन्होंने कुल 6 बार सीएम पद की कुर्सी संभाली, वह भी राजपूत थे. दो बार सीएम बनने वाले प्रेम कुमार धूमल तथा रामलाल ठाकुर भी राजपूत थे. केवल शांता कुमार ही ब्राह्मण जाति के ऐसे नेता रहे हैं, जिन्हें मुख्यमंत्री बनने का मौका मिला. कांग्रेस के वर्तमान प्रदेश अध्यक्ष कुलदीप राठौर भी राजपूत समुदाय से हैं. पूर्व में बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष की कुर्सी संभाल चुके सतपाल सिंह सत्ती भी राजपूत थे.

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अगड़े- पिछड़ों ने मिलकर बनवाई थी बीजेपी सरकार

पिछली बार के विधानसभा चुनावों में भी बीजेपी ने हिमाचल के जातिगत गणित को साधकर सत्ता पाई थी. चुनाव के बाद जारी हुए सीएसडीएस के आंकड़ों से पता चला कि वहां उसे ऊंची जातियों का वोट तो मिला ही साथ ही पिछड़ा वर्ग के भी सबसे ज्यादा वोट पाए थे. अगड़ी जातियों के सबसे बड़े वोट बैंक राजपूत समुदाय से उसे भरपूर सहयोग मिला था. राजपूतों के 49 फीसदी बीजेपी, 36 फीसदी कांग्रेस और 15 फीसदी वोट अन्य को मिले थे. अगड़ी जातियों के दूसरे बड़े वोट बैंक ब्राह्मण समुदाय से भी उसे ऐसा ही सहयोग मिला था. ब्राह्मणों के वोट बैंक में 56 फीसदी बीजेपी, 35 फीसदी कांग्रेस और 10 फीसदी अन्य पार्टियों को हिस्सा मिला था.

अन्य अगड़ी जातियों के 51 परसेंट वोट बीजेपी को और 44 परसेंट कांग्रेस को मिले थे.अन्य पिछडा वर्ग ने भी बीजेपी को पिछले चुनावों अच्छा सपोर्ट किया था. ओबीसी वर्ग के 48 परसेंट बीजेपी को, 43 परसेंट कांग्रेस को व 9 परसेंट अन्य पार्टियों को गए थे. पिछलों में दलित वोट बीजेपी-कांग्रेस को बराबर क्रमश: 47 प्रतिशत- 48 प्रतिशत मिला था. अगड़े- पिछड़ों के इस मिले जुले सहयोग से हिमाचल प्रदेश की 68 में से 44 सीटों पर चुनाव जीतकर बीजेपी ने लगभग 66 फीसदी सीटें कब्जा ली थीं और सरकार बनाई थी. कांग्रेस मात्र 21 सीटें जीती थी और तीन सीटें अन्य को मिली थीं.

पहले दलितों को साधने पर जोर

हिमाचल प्रदेश के चुनावों में अभी काफी वक्त है. यहां की सत्ता पर काबिज होने के लिए बीजेपी और कांग्रेस एक अलग स्ट्रेटजी पर चल रहे हैं. निर्णायक वोट बैंक अपर कास्ट के पास होने के बावजूद ये दलित मतदाताओं को साधने पर पहले जोर दे रही हैं. इसके लिए दोनों ने अभी से प्रयास भी शुरू कर दिए हैं. बीजेपी ने दलित सम्मेलन की तैयारियां शुरू कर दी हैं, वहीं कांग्रेस ने भी अपने दलित नेताओं को वर्ग के मतदाताओं तक दलित उत्थान की बातें पहुंचाने के टारगेट में लगा दिया है.

दलितों का सबसे ज्यादा प्रभाव हिमाचल प्रदेश के शिमला और सिरमौर इलाके की 17 विधानसभा सीटों पर नजर आता है. इन 17 सीटों में से 6 सीटें रामपुर, कसौली, पच्छाद, श्री रेणुका जी अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित हैं . इन पर बीजेपी प्रदेश संगठन ने अभी से ही फोकस करना शुरू कर दिया है.

मुस्लिम वोट पर कांग्रेस का दबदबा

प्रदेश में मुस्लिम मतदाता 4 प्रतिशत के ही आसपास है. इस समुदाय के वोट बाकी राज्यों की ही तरह बीजेपी से दूर ही रहे हैं. मुसलमान वोट पर कांग्रेस का ही दबदबा रहा है. पिछले चुनाव में इस समुदाय के 67 प्रतिशत वोट कांग्रेस को मिले हैं और 21 प्रतिशत वोट बीजेपी के खाते में गए थे. मुस्लिमों के 12 फीसदी वोट अन्य दलों ने हासिल किए थे.

आप की तैयारियां जोरों पर

आम आदमी पार्टी ने भी इस राज्य में सीएम जयराम ठाकुर के गृह जिले मंडी से आगामी चुनाव का बिगुल फूंक दिया है. दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और पंजाब के CM भगवंत मान के नेतृत्व में यहां रोड शो निकाला गया. AAP की इस राज्य की जनता को तीसरा विकल्प देने की मंशा है. पंजाब के रिजल्ट के बाद से ही इस पार्टी से कार्यकर्ताओं और कांग्रेस भाजपा के रूठे नेताओं ने जुड़ना शुरू किया है.

हालांकि यहां AAP के लिए काफी सारी चुनौतियां हैं. राज्य में 52 लाख से ज्यादा वोटर हैं और पार्टी के पास केवल सवा दो लाख ही सदस्य बन पाए हैं. 2019 के लोकसभा चुनावों में भी पार्टी मैदान में उतरी थी पर चार सीटों पर उसे केवल 2 प्रतिशत वोट ही मिल पाया. इस बार इस स्थिति के बेहतर होने की पार्टी को उम्मीद है.

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