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हरियाणा: क्या BJP को जाटों की बेरुखी, बेरोजगारी का दंश झेलना पड़ा?

हरियाणा के चुनावों में जातीय समीकरण का अहम योगदान होता है. दशकों से सियासी हलकों में जाट समुदाय का बोलबाला रहा है

अमिताभ तिवारी
चुनाव
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हरियाणा में किसी भी पार्टी को अपने दम पर बहुमत नहीं मिला
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हरियाणा में किसी भी पार्टी को अपने दम पर बहुमत नहीं मिला
(इंफोग्राफिक्स: क्विंट हिंदी/ इरम गोर)

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हरियाणा चुनाव में बीजेपी ने जो सोचा भी न था, वो सच हो गया. अब ये स्पष्ट हो चुका है कि राज्य में त्रिशंकु सरकार बनेगी. नतीजे आने से पहले जिस पार्टी को दो-तिहाई बहुमत मिलने का दावा ठोका जा रहा था, वो सामान्य बहुमत भी हासिल नहीं कर सकी.

चुनाव के नतीजों के मुताबिक, हरियाणा में बीजेपी को 40 सीटें, कांग्रेस को 31 सीटें और दुष्यंत चौटाला की JJP को 10 सीटें मिली हैं. अन्‍य के खाते में 9 सीटें आई हैं.

इस चुनाव में बीजेपी के नतीजे जाट समुदाय का गुस्सा, बेरोजगारी और ग्रामीण इलाकों की बेरुखी से प्रभावित हैं. अमित शाह ने मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर को दिल्ली तलब किया. ‘जोड़-तोड़’ और समझौतों की राजनीति परवान चढ़ चुकी है. बीजेपी अब भी निर्दलीयों की मदद से सरकार बना सकती है. लेकिन इतना तय है कि उसके नए-नवेले किले में सेंध पड़ चुकी है.

बीजेपी को 3 फीसदी अधिक वोट जरूर मिले हैं, लेकिन कांग्रेस के वोट शेयर में भी 8 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है. इसका खामियाजा इंडियन नेशनल लोक दल (INLD) को झेलना पड़ा है. लेकिन INLD के वोट शेयर में सबसे ज्यादा JJP ने सेंध लगाई है. Axis ने हरियाणा में बीजेपी के लिए 38 (32-44) सीटों और त्रिशंकु सरकार का अनुमान लगाया था, जो सच साबित होता दिख रहा है.
(स्रोत: ECI)

हरियाणा में जातीय समीकरण

हरियाणा के चुनावों में जातीय समीकरण का अहम योगदान होता है. दशकों से सियासी हलकों में जाट समुदाय का बोलबाला रहा है और सत्ता उनके हाथों में रही है. राज्य की 27 फीसदी आबादी जाट है और यहां 90 में से 37 सीट जाट बहुल हैं.

बीजेपी ने युवा जाट नेता कैप्टन अभिमन्यु की जगह गैर-जाट मनोहरलाल खट्टर को मुख्यमंत्री बनाकर जाटों को नाराज कर दिया था. 2014 में बीजेपी की जीत मुख्य रूप से जाट वोटों के INLD और कांग्रेस के बीच बंटने की वजह से हुई थी.

CSDS की एक रिपोर्ट के मुताबिक 2014 के चुनावों में लोक दल को 42 फीसदी, कांग्रेस को 24 फीसदी और बीजेपी को महज 17 फीसदी जाटों का समर्थन हासिल हुआ था.

लेकिन बीजेपी को गैर-जाट वोटों को अपने पीछे लामबंद करने में सफलता मिली, जिससे ‘त्रिकोणीय’ मुकाबले में वो आगे निकल गई.

बीजेपी के पारम्परिक वोट बैंक ब्राह्मण और बनिया समुदाय हैं. चुनाव में उसे अपना जनाधार बढ़ाने में सफलता मिली. राज्य में दलितों की संख्या 20 फीसदी है, जो पारम्परिक रूप से कांग्रेस को वोट देते रहे हैं. डेरा सच्चा सौदा की मदद से बीजेपी उन्हें अपने खेमे में खींचने में सफल रही. CSDS की रिपोर्ट के मुताबिक बीजेपी को ब्राह्मणों के 47 फीसदी, ओबीसी के 40 फीसदी, सिखों के 36 फीसदी और अनुसूचित जाति के 20 फीसदी वोट मिले.

2016 में जाट आन्दोलन और हिंसक प्रदर्शन ने जाटों और बीजेपी के रिश्तों में दरार गहरी कर दी. 2019 के लोकसभा चुनाव में हालात बदले और बीजेपी को फायदा हुआ. राष्ट्रवाद का नारा, INLD में टूट और हुड्डा के प्रति कांग्रेस नेतृत्व के बर्ताव ने जाट वोटरों के एक धड़े को निराश कर दिया. केन्द्र सरकार ने चुनाव के ठीक पहले आर्थिक रूप से पिछड़े वर्ग को 10 फीसदी आरक्षण का ऐलान कर दिया. इस ऐलान ने जाट समुदाय के एक धड़े को संतुष्ट कर दिया और वो बीजेपी के करीब आ गए.

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क्या बीजेपी ने जाटों को नजरअंदाज किया?

लोकसभा चुनाव में 52 फीसदी जाटों ने बीजेपी को वोट दिया था. ये 2014 चुनाव की तुलना में जाट वोटों में 20 फीसदी की बढ़ोतरी थी. पार्टी को 51 फीसदी दलित वोट भी मिले. वैसे भी देशभर में दलित वोटों का रुझान बीएसपी को कमजोर करते हुए बीजेपी की ओर था. शायद इससे बीजेपी को गलतफहमी हो गई थी. उसे लगा कि वो जाटों और गैर-जाटों का समर्थन एक साथ पा सकती है, जिसके बाद उसे विजय-पथ से कोई नहीं रोक सकता. अल्पसंख्यकों के अलावा बीजेपी को सभी जाति और समुदायों का ठीक-ठाक समर्थन हासिल हुआ.

टिकट बंटवारे में उसने जाटों को नजरअंदाज किया. सिर्फ 20 जाट नेताओं को टिकट दिया गया, जबकि कांग्रेस ने 29 जाट नेताओं को टिकट दिया.

सोनिया गांधी के कमान संभालने के बाद कांग्रेस ने तंवर को राज्य अध्यक्ष के पद से हटाकर हुड्डा को भी संतुष्ट किया. जाट समुदाय को सत्ता में रहने की आदत थी. लेकिन खट्टर की अगुवाई वाली सरकार में जाट खुद को अलग-थलग महसूस कर रहे थे. लिहाजा इस बार उन्होंने कांग्रेस को समर्थन देने का फैसला किया. विधानसभा चुनाव में एक सुनियोजित वोटिंग पैटर्न देखने को मिला. जहां उन्हें लगा कि बीजेपी को हराने के लिए JJP का उम्मीदवार मजबूत स्थिति में है, उन्होंने JJP को वोट दिया.

कांग्रेस को जाट-दलित-मुस्लिम समुदायों का समर्थन

राज्य में बीजेपी के सबसे कद्दावर जाट नेता कैप्टन अभिमन्यु की नारनौंद में 12,029 वोटों से और राज्य अध्यक्ष सुभाष बराला की तोहाना से 52,302 वोटों से करारी हार हुई. हालांकि पार्टी महाराष्ट्र में आरक्षण देकर और कई मजबूत क्षत्रपों को अपने खेमे में खींचकर मराठी समुदाय का समर्थन पाने में कामयाब रही, लेकिन हरियाणा में ऐसी कोई कोशिश नहीं की गई.

बड़ी संख्या में होने के बावजूद दलित समुदाय को पारम्परिक रूप से हरियाणा में सत्ता का स्वाद चखने को नहीं मिला है.

राम रहीम की गिरफ्तारी और परोल की मनाही ने दलित समुदाय को नाराज कर दिया. इस बार डेरा ने भी पिछली बार की तरह बीजेपी को वोट देने का ऐलान नहीं किया था. उधर कांग्रेस ने दलित नेता शैलजा कुमार को राज्य अध्यक्ष नियुक्त किया. नतीजा ये निकला कि चुनाव में कांग्रेस को 37 फीसदी दलित वोट हासिल हुए.

लगता है कि जाट-मुस्लिम-दलित मोर्चे ने कांग्रेस को समर्थन दिया, जिससे उसके हालात बेहतर हुए.

TOI के आंकड़ों के मुताबिक, अनुसूचित जाति बहुल इलाकों में बीजेपी 9 से घटकर 4 पर आ गई. कुरुक्षेत्र इलाके में 30 फीसदी जाट आबादी है. यहां बीजेपी की टैली में 4 सीटों की कमी आई.

स्रोत: CSDS (2014), Axis My India (2019)इंफोग्राफिक्स: क्विंट हिंदी/ आंकड़े % में.

बीजेपी के लिए स्थानीय मुद्दों को तवज्जो देना क्यों जरूरी था?

ऐसा लगता है कि राज्य चुनाव में राष्ट्रीय मुद्दों को उछालने की बीजेपी की रणनीति काम नहीं आई. Axis poll के मुताबिक राज्य की सिर्फ 5 फीसदी आबादी के बीच राष्ट्रवाद और धारा 370 के मुद्दे मायने रखते थे. 60 फीसदी वोटरों का विकास, बेरोजगारी और खेती की दुर्दशा जैसे मुद्दे से सरोकार था.

ग्रामीण दुर्दशा की भी महत्त्वपूर्ण भूमिका हो सकती है. 2014 की तुलना में बीजेपी को ग्रामीण इलाकों में 6 सीटों का नुकसान हुआ है.

नतीजों से स्पष्ट है कि भारतीय वोटरों का रुझान, चुनाव आकलन करने वालों, मीडिया और चुनावी उस्तादों की सोच से परे है. वोटर राज्य स्तरीय और राष्ट्रीय चुनाव फर्क करना अच्छी तरह जानते हैं और विधानसभा चुनावों में क्षेत्रीय मुद्दों पर वोट देते हैं. बीजेपी के लिए ये एक झटका हो सकता है, क्योंकि राज्य में मोदी काफी लोकप्रिय हैं. 2019 के लोकसभा चुनाव में लगभग आधे वोटरों ने बीजेपी को समर्थन देकर सभी 10 सीटों पर जीत दिलाया. ये मोदी फैक्टर के कारण ही संभव हुआ था.

कांग्रेस के लिए भी सबक है कि मजबूत क्षेत्रीय नेताओं को बढ़ावा दिया जाए और उन्हें चुनावी रणनीति तैयार करने दी जाए, क्योंकि उन्हें स्थानीय मुद्दों की ज्यादा जानकारी है. राज्य में केन्द्रीय नेतृत्व ने सिर्फ दो रैलियां कीं, जिससे पार्टी को चुनाव में स्थानीय मुद्दों को भुनाने में आसानी हुई. वो वोटरों का ध्यान केन्द्रीय मुद्दों और राष्ट्रपति चुनाव के स्टाइल से हटाने में सफल हो सके.

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(लेखक एक स्वतंत्र राजनीतिक विश्लेषक हैं. उन्हें @politicalbaaba पर ट्वीट किया जा सकता है. आर्टिकल में दिये गए विचार लेखक के निजी विचार हैं और द क्विंट इसके लिए जिम्मेदार नहीं है.)

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