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"अगर जेल में बंद कोई अपराधी चुनाव लड़ सकता है, तो जेल की सजा काटने वाले कैदी मतदान क्यों नहीं कर सकते?"
लॉ की पढ़ाई करने वाले तीन स्टूडेंट्स ने दिल्ली हाई कोर्ट में जनहित याचिका डालकर ये सवाल पूछा है. लेकिन इस सवाल का जवाब देना सरकार और चुनाव आयोग के लिए आसान नहीं है.
इस वक्त देश के विभिन्न जेलों में 4 लाख से ज्यादा कैदी बंद हैं. लेकिन भारतीय संविधान में सजायाफ्ता कैदियों को वोट डालने का अधिकार नहीं दिया गया है. तीनों स्टूडेंट्स ने इस कानून में बदलाव लाकर कैदियों को वोट देने का अधिकार दिलवाने के लिए कानूनी संघर्ष करने की ठानी है.
भारतीय संविधान के तहत आने वाले 'रिप्रेजेंटेशन ऑफ पीपुल एक्ट' के सेक्शन 62(5) के अंतर्गत जेल में बंद किसी भी कैदी को किसी भी चुनाव में मतदान करने का अधिकार नहीं है. ग्रेटर नोएडा के गलगोटिया युनिवर्सिटी में पढ़ने वाले तीन लॉ स्टूडेंट प्रवीण चौधरी, प्रेरणा सिंह और अतुल कुमार दुबे ने इस सेक्शन को चुनौती देने के लिए इस साल फरवरी में दिल्ली हाई कोर्ट में एक जनहित याचिका दायर की थी.
8 मार्च को मामले पर सुनवाई करते हुए दिल्ली हाईकोर्ट ने कैदियों के मताधिकार पर केंद्र सरकार (गृह मंत्रालय और कानून मंत्रालय), निर्वाचन आयोग और तिहाड़ जेल के डायरेक्टर जनरल से जवाब मांगा. मामले की अगली सुनवाई 9 मई को होगी.
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प्रवीण चौधरी कहते हैं, "हम मानवाधिकारों को लेकर फिक्रमंद हैं." “जो कोई भी है, उनका अपराध चाहे कितना भी बड़ा क्यों न हो, उन्हें मानवाधिकार हासिल होना चाहिए. हमने इसे ध्यान में रखा और तथ्य यह है कि वे अखिरकार इंसान हैं. अगर कोई व्यक्ति नागरिक है, और आप उनकी नागरिकता बनाए रख रहे हैं, अगर आप चाहते हैं कि वे देश के मौलिक कर्तव्यों को पूरा करें और निष्ठावान रहें, तो उन्हें कुछ निश्चित सुविधाएं दी जानी चाहिए, ताकि उन्हें पता चले कि देश के नागरिक बनना क्या है.”
यह पहली बार नहीं है जब इस तरह का कदम उठाया गया है. साल 2016 में चुनाव आयोग ने कैदियों के लिए मतदान पर पाबंदी हटाने की संभावना तलाशने के लिए सात सदस्यीय समिति का गठन किया था. लेकिन उसके बाद से इस दिशा में अब तक कोई नतीजा नहीं निकला. परवीन चौधरी बताते हैं, “हम नहीं जानते कि उस समिति का क्या हुआ, सदस्यों के नाम या रिपोर्ट का कभी खुलासा नहीं किया गया. हमने 14 मार्च को इस बारे में एक आरटीआई दायर की थी, लेकिन अभी तक हमें कोई जवाब नहीं मिला.
(सोर्स: Vice)
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