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ये बात साफ तो नहीं लेकिन ज्यादातर चुनाव विशेषज्ञों का अंदाजा है कि 23 मई को होने वाली लोकसभा चुनाव की गिनती के बाद भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) 230 सीटों के आसपास सिमट कर रह जाएगी.
ऐसे में बीजेपी के लिए 230 सीटों का पूर्वानुमान किन दो परिस्थितियों की उपज हो सकती है? हो सकता है कि ये संख्या चुनाव पश्चात सरकार बनाने के लिए सभी जोड़-तोड़ का नतीजा हो.
माना जा रहा है कि सरकार बनाने के लिए बीजेपी और उसके सहयोगियों को एनडीए गठबंधन के रूप में थोड़ी बढ़त मिल सकती है, लेकिन अन्य संभावनाओं से भी पूरी तरह इंकार नहीं किया जा सकता. किसी भी ओर 20-30 सीटों का झुकाव या चुनावी विश्लेषकों के अनुमान में मानवीय गलतियों के कारण एनडीए की सरकार के बजाय विपक्ष की सरकार बन सकती है.
आमतौर पर सभी का मानना है कि 2014 में जो नतीजे आए, वहां तक पहुंचने के लिए एनडीए को भारी मशक्कत करनी पड़ेगी. विशेषकर जिन राज्यों में उसे नुकसान हुआ है, उसकी भरपाई नए राज्यों से न होने की स्थिति में. अगर ओपिनियन पोल पर भरोसा किया जाए, तो सर्वे के अनुमान इस कारण भी बदल सकते हैं.
अधिकतर सर्वे के मुताबिक 2019 के चुनावों में एनडीए की सीटों में लगभग सभी राज्यों में कमी आएगी (उत्तर प्रदेश में भारी कमी, जबकि अन्य राज्यों में इकाई अंक में कमी की संभावना), लेकिन ओडिशा, तमिलनाडु तथा पश्चिम बंगाल में सीटों में बढ़ोत्तरी के कारण गठबंधन का आंकड़ा आधी संख्या के करीब (272) पहुंच सकता है.
लेकिन चूंकि किसी ने ये नहीं सोचा था कि नरेंद्र मोदी के शासनकाल में क्या होगा, चुनाव प्रचार के केंद्र में कौन-कौन अजीबोगरीब मुद्दे होंगे, या किस प्रकार चुनावी गठबंधन तय होंगे, लिहाजा सभी दूरदर्शियों ने सुरक्षित राह पकड़ी है, और पिछले पांच वर्षों में हुई उठापटक को देखते हुए उसके अनुरूप संख्या का अनुमान लगा रहे हैं.
पूर्वानुमान लगाने वालों के लिए सुरक्षित राह चुनने की खास वजह है. बीजेपी की चमक-दमक से भरपूर और सुनियोजित चुनाव प्रचार की पहले कल्पना नहीं की गई थी. 2004 और 2009 के चुनावों में पूर्वानुमान लगाने वालों ने कुछ ज्यादा ही अनुमान लगा लिया था और 2014 में कम. इससे भी महत्त्वपूर्ण बात ये है, कि वोटर किस हद तक तीखी बयानबाजियों से प्रभावित होते हैं, इसका अनुमान लगाना कठिन है. हाल में हुए संसदीय चुनाव में हुई जीत इस गणनाओं पर निर्भर नहीं करते. या तो वो प्रतिद्वंदियों के विकास के रिकॉर्ड की जांच करते हैं और अपना एजेंडा तय करते हैं (2004 में कांग्रेस, 2014 में बीजेपी) या फिर उनके क्रियाकलापों की (2009 में यूपीए).
तो क्या अब तक के ओपीनियन पोल के मुताबिक कुछ नतीजे निकाले जा सकते हैं? अगर सुर्खियों में आने वाली संख्याओं को नजरअंदाज कर दिया जाए और राज्य स्तर पर समानताओं तथा विरोधों का आकलन किया जाए तो ये मुमकिन दिखता है और तीन परिस्थितियां सामने आती हैं:
तो निश्चित रूप से कुछ भी हो सकता है. लिहाजा निश्चित रूप से इस बार चमत्कारी संख्या 230 ही मानी जानी चाहिए.
(मनीष दूबे एक राजनीतिक विश्लेषक और एक क्राइम फिक्शन राइटर हैं. उन्हें @ManishDubey1972 पर ट्वीट किया जा सकता है. आर्टिकल में दिए गए विचार उनके निजी विचार हैं और क्विंट का उनसे सहमत होना जरूरी नहीं है.)
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Published: 23 Apr 2019,07:37 PM IST