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साध्वी प्रज्ञा को भोपाल से बीजेपी का एक उम्मीदवार भर मानना सही नहीं होगा. साध्वी प्रज्ञा मुद्दा हैं, बीजेपी का एजेंडा हैं और आक्रामक हिंदुत्व के लिए सजी-सजाई पिच हैं. दूसरे चरण से ठीक पहले और बाकी बचे पांच चरणों के लिए बीजेपी ने साध्वी प्रज्ञा को लॉन्च किया है. यह भी गौर करने वाली बात है कि तत्काल 23 अप्रैल को तीसरे चरण में गुजरात भी शामिल है.
इससे जुड़ा सबसे बड़ा सवाल ये है कि क्या साध्वी कार्ड से बीजेपी के इरादे पूरे होंगे? क्या मिशन 2019 को पूरा करने के लिए बीजेपी का यह ब्रह्मास्त्र है? साध्वी प्रज्ञा से अलग अब कोई अस्त्र क्या बीजेपी के पास नहीं रह गया है?
भोपाल में 12 मई को छठे चरण में चुनाव होंगे, जाहिर है भोपाल से साध्वी प्रज्ञा को उम्मीदवार बनाने से मनमाफिक नए मुद्दे का प्रभाव सभी 7 चरणों तक पर बना रह सकता है. यही वजह है कि दिग्विजय सिंह को छद्म धर्मनिरपेक्षता, तुष्टिकरण और भगवा आतंकवाद या हिंदू आतंकवाद जैसे मुद्दों से जोड़कर बीजेपी ने प्रज्ञा ठाकुर के आक्रामक तेवर पर भरोसा जताना उचित समझा है.
बीजेपी ने साध्वी प्रज्ञा के बहाने कट्टरवाद ही नहीं, अति कट्टरवाद की राह चुनी है. मगर, मुश्किल ये है कि ऐसी राह पर चलते हुए जो जरूरी संयम, अवरोधक और नियंत्रण की जरूरत होती है या हो सकती है, उसके लिए बीजेपी के पास आज कोई अटल बिहारी वाजपेयी नहीं हैं, जो राजधर्म की सीख दे सके. न ही लालकृष्ण आडवाणी हैं, जिन्होंने हवाला के आरोप मात्र के बाद चुनावी राजनीति से संन्यास की नजीर पेश की थी.
महबूबा मुफ्ती पूछ रही हैं कि अगर उन्होंने कश्मीर में आतंकवाद के आरोप का सामना कर रहे किसी व्यक्ति को उम्मीदवार बना दिया होता, तो क्या होता? बीजेपी ने मालेगांव ब्लास्ट और देशद्रोह की आरोपी को कैसे उम्मीदवार बना लिया? जवाबी सवाल की यह पराकाष्ठा है और इसी अपेक्षा के साथ साध्वी प्रज्ञा को लॉन्च किया गया है. ऐसे कड़क मुद्दों पर बीजेपी बाकी के चुनाव चरणों में वोट मांगने की तैयार कर ली है. मगर, यह राह उतना आसान नहीं है जितना बीजेपी नेतृत्व और आरएसएस ने सोच रखा है.
साध्वी प्रज्ञा ने जैसे ही हेमंत करकरे की शहादत को सर्वनाश होने के अपने श्राप से जोड़ा और सूतक से इसका संबंध बनाया, तो देश की चुनावी माहौल में मानो जबरदस्त धमाका हो गया. बीजेपी को तुरंत लोकतांत्रिक चुनाव की प्रक्रिया में इस धमाके से खुद को अलग करने की जल्दबाजी दिखलानी पड़ी. साध्वी के बयान से फायदा होने की बजाए महाराष्ट्र में हेमंत करकरे की शहादत के अपमान से नुकसान की आशंका बन गई.
साध्वी प्रज्ञा ने बयान वापस जरूर लिया, मगर कोई ग्लानिभाव चेहरे पर नहीं था. ऐसा करने की जरूरत भी उन्होंने इसलिए बताई क्योंकि इससे विदेशी 'खुश' हो जाते. साध्वी ये बताना भी नहीं भूलीं कि वह अनर्गल नहीं बोलतीं.
साध्वी प्रज्ञा की अहमियत को इन्हीं दो बयानों के बीच समझने की जरूरत है. शासन में रहने की वजह से नरेंद्र मोदी या फिर दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी के अध्यक्ष होने की वजह से अमित शाह अति हिंदुवाद के प्रतीक बनने की पात्रता अब खो चुके हैं. उन्हें एक ऐसा प्रतिमान गढ़ना था जो उग्र हिंदुत्व की वकालत करे और जो सांप्रदायिकता के आरोपों का भी तिलक करने को तैयार हो.
साध्वी प्रज्ञा से बेहतर कोई ऐसा प्रतिमान देश में नहीं हो सकता था. साध्वी प्रज्ञा रोमांचक खेल दिखलाएंगी. क्रिकेट की भाषा में कहें तो लॉफ्ट शॉट भी खेलेंगी. मगर, ऐसा खिलाड़ी तभी विश्वसनीय होता है जब उसका डिफेंस भी उतना ही मजबूत हो. स्थिति ये है कि पिच पर दौड़ते समय साध्वी प्रज्ञा के साथ दौड़ लगाने वाला उन जैसा कोई खिलाड़ी मौजूद नहीं है. लिहाजा रन आउट होने का खतरा भी बना रहेगा.
साध्वी प्रज्ञा को हिंदुत्व की मर्यादा लांघने के स्वभाव के साथ लॉन्च कर बीजेपी ने वास्तव में आफत मोल ली है. सिर्फ ये मान लेना कि अनर्गल सांप्रदायिक बयानों से मुसलमान नाराज होंगे और हिंदू खुश, बहुत बड़ी गलतफहमी है. कट्टरवाद के खिलाफ सबसे पहली प्रतिक्रिया हिंदुओं में ही होती आई है. इसके कई उदाहरण हैं-
2014 की बीजेपी और 2019 की बीजेपी में बड़ा फर्क है. अब ये दो व्यक्तियों वाली पार्टी है. इसलिए जिस बीजेपी ने 2014 में कट्टरवाद से अलग विकास के मुद्दे पर चुनाव लड़ा और अभूतपूर्व जीत हासिल की, वही बीजेपी अब कट्टरवाद की सीमा लांघने को अपना कर्त्तव्य समझ रही है. यह मान लेना कि प्रज्ञा ठाकुर को ट्रायल के दौरान यातनाएं दी गईं और इसे मतदाताओं के बीच भुनाया जा सकेगा, विक्टिम कार्ड खेला जा सकेगा और ‘कब तक सहेंगे हिन्दू’ का संदेश दिया जा सकेगा- बीजेपी की भूल भी हो सकती है.
आज भी इस देश में मालेगांव ब्लास्ट या समझौता एक्सप्रेस ब्लास्ट के समर्थकों की संख्या बहुत कम है. ये सच है कि देश 'हिंदू आतंकवाद' और 'भगवा आतंकवाद' को भी पचाने को तैयार नहीं है, मगर सच ये भी है कि ऐसी किसी कोशिश का भी देश समर्थन करने को तैयार नहीं है. यह देश आरएसएस पर प्रतिबंध के साथ भी कभी खड़ा नहीं हुआ, न ही आरएसएस के एजेंडे पर चलने को तैयार हुआ है. 2014 का बहुमत पिछले दरवाजे से बीजेपी और आरएसएस ने हासिल किया था, न कि किसी कट्टरवादी एजेंडे पर पार्टी ने जनादेश लिया था.
साध्वी प्रज्ञा को एजेंडा बनाकर बीजेपी ने विकासवादी एजेंडे का त्याग कर दिया है और कट्टरवाद की सीमाएं लांघते हुए वोट मांगने का फैसला किया है. इसे इस रूप में देखा जाना चाहिए कि बीजेपी को विपक्ष ने नहीं हराया है, बीजेपी खुद ही कॉन्फिडेंस खो रही है. अटल-आडवाणी और 2014 की बीजेपी को टाटा बाय-बाय कर दिया गया है और अब नई बीजेपी नए पिच पर बैंटिंग को उतरी है. पता नहीं पिच टर्न लेने वाला है या फास्ट बोलर को मदद देगा.
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