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चाणक्य ने हिन्दुस्तान टाइम्स में लिखा है कि जब एक्जिट पोल उन एजेंसियों द्वारा कराए जाते हैं जो विज्ञान को समझते हैं और इसमें शामिल महत्वपूर्ण खर्च को वहन करने के लिए तैयार संगठनों द्वारा समर्थित होते हैं तो वे सही नतीजे देते हैं.
एग्जिट पोल की आलोचना करना फैशन बन गया है लेकिन 2014 और 2019 दोनों में अधिकांश प्रमुख एग्जिट पोल दिशा-निर्देश के मामले में सही थे भले ही वे राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की जीत के परिमाण के बारे में गलत थे. दोनों बार उन्होंने भारतीय जनता पार्टी (BJP) के पक्ष में लहर को कम करके आंका. एक बार फिर सभी उल्लेखनीय एग्जिट पोल बीजेपी की स्पष्ट जीत की भविष्यवाणी कर रहे हैं. कुछ पोलस्टर्स के अनुसार एनडीए की संख्या 350 तक बढ़ सकती है. इंडिया ब्लॉक 2014 और 2019 की अपनी भयावहता को दूर करने में असमर्थ है.
तवलीन सिंह ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि चुनाव नतीजों का इंतजार है और इस पर लिखने को जी नहीं चाहता. पिछले दिनों इतने दर्दनाक हादसे हुए हैं, जिन्होंने अपने तथाकथित प्रगतिशील ‘विश्वगुरु’ भारत के चेहरे के सामने आईना दिखा कर साबित किया है कि ‘विकसित’ देश होने से हम कितनी दूर हैं. पुणे में एक रईस के बिगड़ैल बेटे ने शराब पीकर पिता की दी हुई पोर्श गाड़ी तेज रफ्तार में चलाते हुए दो जवान लोगों को रौंद डाला.
इस बिगड़े रईसजादे को गाड़ी में से घसीट कर उसकी पिटाई शुरू कर दी गयी तो उसने बेशर्मी से कहा कि ‘जितना पैसा चाहिए दे दूंगा, हमको मारो मत’.
तवलीन सिंह लिखती हैं कि विकसित देशों में ऐसी चीजें नहीं हो सकतीं. राजधानी में तीस फीसद अस्पताल नाजायज तरीके से चले जा रहे हैं. बच्चों के एक अवैध अस्पताल में आग लगने पर इसका पता चला. ऐसी दर्दनाक घटना अगर किसी विकसित देश में होती तो कई दिनों तक खबर को मीडियावाले सुर्खियों में रखते ताकि उन बेचारों को जिनके नवजात बच्चे उस अवैध अस्पताल के इसीयू के अंदर जन्म लेते ही जिंदा जलकर मर गये थे, उन्हें न्याय मिले.
न्याय मिलना आसान होता है सिर्फ धनवानों, राजनेताओं और आला सरकारी अफसरों के लिए. विकसित देश में राष्ट्रपति भी दंडित किए जा सकते हैं. पिछले सप्ताह न्यूयॉर्क की एक अदालत में डोनाल्ड ट्रंप को दंडित किया गया था. ट्रंप लाख बार कह चुके हैं कि कि उन पर चल रहे मुकदमे सब झूठे हैं, उनसे राजनीतिक बदला लिया जा रहा है लेकिन, मुकदमे फिर भी चल रहे हैं और हर पहलू सबके सामने है.
पी चिदंबरम इंडियन एक्सप्रेस में लिखते हैं कि वोटों की गिनती में अभी दो दिन बाकी हैं. फिर हम जान पाएंगे कि बहुसंख्यक लोग परिवर्तन चाहते हैं या यथास्थिति बनाए रखने में खुश हैं. बदलाव न चाहने वालों को डर है कि बदलाव उनके जीवन को बदतर बना सकता है. उन्हें डर है कि एक पक्ष का परिवर्तन जीवन के अन्य पक्ष को प्रभावित करेगा. यथास्थिति में एक निश्चित सुख है. लेखक का मानना है,
लेखक को लगता है कि भारत फिर से ऐसे ही दौर से गुजर रहा है.
लेखक बताते हैं कि 2016 में की गयी नोटबंदी बहुत बड़ी गलती थी. नकदी की भारी कमी ने लोगों के जीवन के साथ-साथ सैंकड़ों-हजारों सूक्ष्म और लघु इकाइयों के कामकाज में उथल-पुथल मचा दी. महामारी के दौरान बिना योजना के लॉकडाउन ने स्थिति को बदतर बना दिया.
बहुत सारी औद्योगिक इकाइयां बंद हो गईं. दोहरे झटके ने सैकड़ों-हजारों नौकरियां छीन ली. इससे निपटने के लिए साहसिक योजना की आवश्यकता है, जिसमें कर्जमाफी, बड़े पैमाने पर ऋण, सरकारी खरीद, निर्यात प्रोत्साहन और कर रियायतें शामिल हैं. ऐसी कोई योजना नजर नहीं आती. आरक्षण पर मौन प्रहारों ने एससी, एसटी और ओबीसी से किए गये संवैधानिक वादों को खत्म कर दिया है.
सरकार और सरकारी क्षेत्र में तीस लाख पदों को खाली छोड़ना आपराधिक उपेक्षा और आरक्षण विरोधी रवैये का एक उदाहरण है. कई लोग औसत आय में वृद्धि से धोखा खा जाते हैं. याद रखें औसत आय से नीचे पचास फीसदी भारतीय हैं. भारत की वयस्क आबादी 92 करोड़ है. श्रमबल भागीदार का सबसे उदार अनुमान 74 फीसदी पुरुष और 49 फीसदी महिलाए हैं.
रामचंद्र गुहा ने टेलीग्राफ में लिखा है कि बहुत कठिन और लंबे चुनाव के नतीजों का इंतजार है. अगली सरकार को कई गंभीर चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा, जिन्हें चुनाव अभियान ने पृष्ठभूमि में धकेल दिया है.
राजनीतिक दलों में आंतरिक लोकतंत्र होना चाहिए, जिसमें नेता स्वतंत्र रूप से चुने जाएं और अपने पार्टी सहयोगियों के प्रति जवाबदेह हों. आज भारतीय राजनीति इस मॉडल से पूरी तरह अलग है. यहां पार्टियां या तो व्यक्तित्व के पंथ की बंदी हैं या पारिवारिक फर्म बन गयी हैं. बीजेपी पहली तरह की सबसे शानदार मिसाल है.
रामचंद्र गुहा बताते हैं...
लोकतंत्र की जननी होने का दावा हो या दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ती बड़ी अर्थव्यवस्था होने का- ये आंडबरपूर्ण हैं. आर्थिक उदारीकरण ने वास्तव में गरीबी में कमी ला दी है लेकिन इसने असमानता को भी बड़े पैमाने पर बढ़ा दिया है. राष्ट्रीय आय में वृद्धि ने नौकरियों में समान वृद्धि नहीं देखी है. भारत अरबपतियों के उत्पादन में दुनिया में अग्रणी है. वहीं यह भी सच है कि शिक्षित युवाओं में बेरोजगारी दर बहुत ऊंची है.
सौगत भट्टाचार्य ने बिजनेस स्टैंडर्ड में लिखा है कि ऊंची आर्थिक वृद्धि दर निरंतर बनाए रखने के लिए देश को कठिन सुधारों के मार्ग पर चलना होगा. निकट अवधि के वृहद आर्थिक हालात पर 2024 के आम चुनाव का संभवत: असर नहीं होगा.
हालांकि, वैकल्पिक नीतिगत दृष्टिकोण के साथ कठिन नीतिगत उपायों और सुधार कार्यक्रमों के माध्यम से दीर्घ अवधि में आर्थिक तस्वीर काफी अलग दिख सकती है. वैश्विक स्तर पर परिस्थितियां अब भी स्थिर और अनिश्चित लग रही हैं, मगर जी-7 अर्थव्यवस्थाएं अस्थायी चुनौतियों का सामना करने के बाद सामान्य स्थिति में लौटती दिख रही हैं. इसे देखते हुए जो नीतिगत उपाय किए जाएंगे, वे आर्थिक विकास के लिए अधिक अनुकूल होंगे और ब्याज दरें धीरे-धीरे कम होनी शुरू हो जाएंगी. तेजी से उभरते बाजारों के लिए यह स्थिति अनुकूल साबित होगी और निवेशकों में जोखिम लेने का साहस बढ़ने से पूंजी निवेश भी बढ़ेगा.
सौगत भट्टाचार्य का मानना है,
मुद्रास्फीति, विशेषकर गैर खाद्य एवं ईंधन कम हो रही है और खुदरा मुद्रास्फीति वित्त वर्ष 2025 के अंत तक घटकर 4 प्रतिशत के करीब आ सकती है. इससे मौद्रिक नीति के स्तर पर भी राहत मिलेगी. एमएसएमई को ऋण आवंटन मजबूत रहा है. इसमे 24 मार्च 2024 तक सालाना आधार पर 20.1 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है. हालांकि पिछले कुछ वर्षों में दर्ज आर्थिक सफलता के बावजूद अगले 10 वर्षों तक 7 प्रतिशत दर से आर्थिक वृद्धि हासिल करना आसान नहीं रहने वाला है.
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