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उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव (Uttar Pradesh Assembly elections) लगभग 70 प्रतिशत खत्म हो चुके हैं. 403 में से 292 विधानसभा क्षेत्रों के वोटर्स अपना वोट दे चुके हैं. अब भी पूर्वी उत्तर प्रदेश की 111 सीटों पर दो चरणों के मतदान बाकी हैं.
और जैसा कि सभी कह रहे हैं, यह चुनाव 2017 के विधानसभा चुनावों या 2014 और 2019 के लोकसभा चुनावों की तुलना में कहीं अधिक रोमांचक है, जिनमें सभी पर बीजेपी का दबदबा था.
तो क्या इस स्टेज पर हम कह सकते हैं कि उत्तर प्रदेश चुनावों में ऊंट किस करवट बैठेगा?
एसपी-बीजेपी को जबरदस्त टक्कर दे रही है
समाजवादी पार्टी और उसके सहयोगी, जैसे राष्ट्रीय लोकदल, सुहलदेव भारतीय समाज पार्टी, महान दल, प्रगतिशील समाज पार्टी (लोहिया) और जनवादी पार्टी (सोशलिस्ट) बीजेपी की ताकत को चुनौती दे रहे हैं.
बीजेपी के नेतृत्व में एनडीए ने चुनावों में भारी बढ़त हासिल की थी- उसने 2017 के विधानसभा चुनावों में 325 सीटें जीती थीं और उसका वोट शेयर 41 प्रतिशत था. पिछले दो दशकों में किसी पार्टी या गठबंधन ने यह आंकड़ा नहीं छुआ था.
उसे बहुजन समाज पार्टी और कांग्रेस की कीमत पर यह फायदा हुआ है, खास तौर से मुसलमान वोटों के लिहाज से. इसके अलावा किसानों के विरोध प्रदर्शनों की वजह से, उसने बीजेपी के जाट वोटों का भी एक बड़ा हिस्सा हथिया लिया है.
अखिलेश यादव के नेरेटिव में लोगों- बेरोजगार नौजवान, किसान, छोटे उद्योग और सरकारी कर्मचारी की आर्थिक बेहाली भी शामिल है.
एसपी ने अपनी पार्टी के यादव और मुस्लिम आधार से परे जाने की कोशिश की है, और आरएलडी के जाट आधार के अलावा गैर-यादव ओबीसी और दलितों को लुभाने की मशक्कत की है.
अब देखना यह है कि इस रणनीति में एसपी को कितनी कामयाबी मिलती है.
2. बीजेपी के लिए चरण 1 और 2 बुरे रहे
ऐसा लगता है कि पहले और दूसरे चरण में एसपी के नेतृत्व वाले गठबंधन ने बीजेपी को भारी नुकसान पहुंचाया है. जहां पहले चरण में मुख्य रूप से किसान विरोध के बाद जाट वोटों के बदलाव की वजह से नुकसान हुआ, वहीं दूसरे चरण में मुसलमान वोट एसपी के नेतृत्व वाले गठबंधन के समर्थन में आ गए जिसका बीजेपी को नुकसान हो सकता है.
रिपोर्ट्स कहती हैं कि गुर्जर और सैनी जैसे समुदाय भी बीजेपी से छिटक कर एसपी के नेतृत्व वाले गठबंधन की तरफ जा सकते हैं. हालांकि यह उम्मीदवारों, और सीट दर सीट पर निर्भर करेगा.
परंपरावादी अनुमान बताते हैं कि इन दो चरणों में बीजेपी को 30 सीटों का नुकसान हुआ है, जबकि कुछ पर्यवेक्षकों का कहना है कि यह इससे कहीं ज्यादा हो सकता है.
बीजेपी मुजफ्फरनगर, शामली, बागपत, मेरठ, हापुड़, सहारनपुर और रोहिलखंड के ज्यादातर इलाकों में हार सकती है, लेकिन गौतम बुद्ध नगर, गाजियाबाद, बुलंदशहर, आगरा, अलीगढ़ और कासगंज जैसे जिलों में बीजेपी का दबदबा बना रह सकता है.
लेकिन इन दो चरणों में खराब प्रदर्शन इस बात की तरफ इशारा करता है कि चुनाव में बहुत ज्यादा सांप्रदायिक ध्रुवीकरण नहीं हुआ. और यह एसपी के पक्ष में काम कर सकता है.
3. चरण 3, 4 और 5 में बीजेपी को कुछ फायदा
यादव बाहुल्य वाले जिलों, जैसे मैनपुरी, इटावा और कन्नौज को छोड़कर बीजेपी को उन इलाकों में फायदा हुआ होगा, जहां चरण 3-5 में वोटिंग हुई है. यहां तुलनात्मक रूप से अपर कास्ट आबादी ज्यादा है, और यादव, जाटव और मुसलमान लोग कम.
हालांकि मुमकिन है कि इन इलाकों में भी एसपी के नेतृत्व वाले गठबंधन ने बीजेपी के वोट बैंक और उसकी सीट टैली में सेंध लगाई हो. खास तौर से, कहा जा रहा है कि उसने सीतापुर और बाराबंकी जैसे जिलों में पैठ बनाई है.
इनमें से कई इलाकों में आवारा मवेशियों के आतंक की वजह से ग्रामीणों में बीजेपी के खिलाफ असंतोष है.
लखनऊ सिटी की कुछ सीटों, जैसे लखनऊ पश्चिम, लखनऊ मध्य और बख्शी का तालाब में एसपी कुछ सांसत में पड़ गई है, जिसकी वजह टिकटों का चतुर बंटवारा है. दूसरी तरफ कानपुर में कानपुर छावनी, शीशमऊ और आर्य नगर जैसी सीटों पर एसपी और कांग्रेस के बीच बीजेपी विरोधी वोटों के बंटवारे से बीजेपी को कुछ फायदा हो सकता है.
बुंदेलखंड में बीजेपी को वोट शेयर में नुकसान हो सकता है लेकिन पिछली बार की भारी बढ़त के कारण सीटों के मामले में कम नुकसान हो सकता है.
कुल मिलाकर, हालांकि बीजेपी इन तीन चरणों में एसपी पर बड़ी बढ़त का मजा उठा सकती है लेकिन फिर भी 2017 के मुकाबले उसे बड़ा नुकसान हो सकता है.
4. पीएम नरेंद्र मोदी अब भी लोकप्रिय हैं, और विधायक स्तर पर बीजेपी विरोधी सेंटिमेंट हैं
बीजेपी के समर्थन में गिरावट होने के बावजूद पीएम नरेंद्र मोदी के प्रति सीधा गुस्सा नहीं है. जमीनी स्तर की रिपोर्ट्स से तो लगता है कि पीएम की लोकप्रियता अब भी जबरदस्त है.
एक बात यह है कि संभव है, रूस और यूक्रेन के बीच संघर्ष कुछ हद तक बीजेपी को फायदा पहुंचाए. इसकी एक वजह यह है कि पीएम के लिए यह माना जाता है कि वह अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सफल रहे हैं.
वोटर्स अक्सर यह कहते सुने जाते हैं कि उन्हें लगता है, मोदी ने विश्व मंच पर भारत का नाम रोशन किया है. अब यह सही है या नहीं, यह अलग बात है, लेकिन यूपी में यह आम धारणा है.
जो गुस्सा है, वह विधायक स्तर पर है. अयोध्या जैसी सीट पर भी, जहां निर्माणाधीन राम मंदिर की वजह से बीजेपी के अच्छा करने की उम्मीद है, वहां भी हवा विधायक के खिलाफ है.
बीजेपी की हालत और खस्ता होने की वजह यह भी है कि स्वामी प्रसाद मौर्य, दारा सिंह चौहान और कई विधायकों, विशेष रूप से ओबीसी पृष्ठभूमि वाले, पार्टी को अलविदा कह गए हैं. इसकी वजह से बड़ी संख्या में मौजूदा विधायकों के टिकट काटने की पार्टी की योजनाओं पर पानी फिर गया.
इससे स्थानीय विधायक के खिलाफ नाराजगी के चलते बीजेपी को सीटों का नुकसान होने का खतरा बना हुआ है.
इस तरह पीएम की लोकप्रियता और विधायकों की अलोकप्रियता के बीच सीएम योगी आदित्यनाथ झूल रहे हैं.
इसमें कोई शक नहीं कि आदित्यनाथ को भारी समर्थन मिल रहा है. मतदाताओं के एक वर्ग के बीच यह धारणा है कि आदित्यनाथ के तहत कानून और व्यवस्था की स्थिति में सुधार हुआ है, लेकिन आंकड़े बताते हैं कि 'सुधार' उतना स्पष्ट साफ नहीं दिखता, जितना कि बीजेपी दावा करती है.
लेकिन आदित्यनाथ की शोहरत का वह आलम नहीं जो उन्हें पीएम के नजदीक खड़ा करे और ऐसे बहुत से वोटर्स हैं जो खुलकर उन्हें खिलाफ नाखुशी जाहिर करते हैं.
5. बीएसपी ने समर्थन खोया तो है लेकिन उतना नहीं जितना अनुमान था
जनवरी की शुरुआत में ऐसा लग रहा था कि बीएसपी पूरी क्षमता के साथ कैंपेन नहीं कर रही और कइयों ने उसे गुजरे जमाने की पार्टी बता दिया था. इससे एसपी को खुद को राज्य की मुख्य विपक्षी पार्टी बताने का मौका मिल गया.
ऐसा लगता है कि बीजेपी बीएसपी के अच्छे प्रदर्शन पर भरोसा कर रही है, जैसा कि केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह की हालिया टिप्पणी में साफ था कि पार्टी की मौजूदगी है और मुसलमान भी उसे वोट दे रहे हैं.
हालांकि ऐसा लगता है कि बीएसपी ने कुछ महीने पहले की तुलना में बेहतर प्रदर्शन किया है, लेकिन यह साफ नहीं है कि क्या इसे असल में मुसलमान वोटर्स के बीच नई जिंदगी मिली है, जैसा कि बीजेपी उम्मीद कर रही है.
लगता तो यह है कि बीएसपी की उम्मीदें पार्टी के मूल जाटव आधार पर टिकी हुई हैं, साथ ही उम्मीदवारों के अपने दम पर बटोरे गए वोटों पर भी. यह साफ नहीं है कि यह कितनी सीटों में तब्दील होगा.
6. कांग्रेस का भविष्य ज्यादातर उम्मीदवारों के आसरे है
कांग्रेस के अभियान ने काफी हलचल पैदा की है- विशेष रूप से 'लड़की हूं लड़ सकती हूं' के नारे के साथ जो महिलाओं को लगभग 40 प्रतिशत टिकटों का आबंटन किया गया है.
ऐसा लगता है कि प्रियंका गांधी वाड्रा ने प्रचार के दौरान कड़ी मेहनत की है और भीड़ को खींचा भी है.
हालांकि सीटों के मामले में पार्टी काफी हद तक व्यक्तिगत उम्मीदवारों के खुद के समर्थन के आसरे हो सकती है. इसके कुछ मजबूत उम्मीदवारों में रामपुर खास में आराधना 'मोना' मिश्रा, किदवई नगर में अजय कपूर, तमकुही राज में अजय कुमार लल्लू, बछरावां में सुशील पासी, जगदीशपुर में विजय पासी शामिल हैं.
एक और पहलू है जो इस चुनाव में जाहिर नहीं हो सकता है लेकिन कांग्रेस की भविष्य की संभावनाओं के दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है- बड़े शहरों में कई उच्च जाति के मतदाताओं के लिए, एसपी नहीं, कांग्रेस बीजेपी का पसंदीदा विकल्प है. यह एसपी के उठान की सीमाओं को भी दर्शाता है.
ये छह पहलू करीब करीब निश्चित हैं. हालांकि अंतिम नतीजा कम से कम चार X-फैक्टर्स पर आधारित होगा.
2017 में, एनडीए ने 10 प्रतिशत से अधिक अंकों के अंतर से 222 सीटें जीतीं. इनमें से पार्टी ने 93 को 20 से ज्यादा प्वाइंट्स के अंतर से और 129 को 10-20 प्रतिशत प्वाइंट्स के अंतर से जीता था. इसके अलावा 103 सीटें 10 प्रतिशत से कम के अंतर से जीती थीं.
सभी 103 में एसपी उपविजेता नहीं है. इस तरह भले ही बीजेपी अपनी सभी सीटों को बरकरार रखने के अलावा सभी 103 सीटों पर फिसल जाए, फिर भी यह बहुमत से बहुत कम होगी. क्या एपसी ने ऐसा कुछ किया है कि बीजेपी ने जिन सीटों को 10-20 प्रतिशत प्वाइंट्स से जीता था, उन सभी को अपनी तरफ मोड़ सके?
जब तक एसपी यह हासिल नहीं कर लेती, संभावित नतीजा यह हो सकता है कि बीजेपी को लगभग बहुमत मिल जाए.
हम निश्चित तौर पर कह सकते हैं कि एसपी-आरएलडी गठबंधन बीजेपी से जाट वोटों के एक बड़े हिस्से को झटकने में सफल रहा है. इससे पूरे गन्ना क्षेत्र में गठबंधन को फायदा हो रहा है.
हालांकि, यह पक्का नहीं है क्या एसपी के नेतृत्व वाला गठबंधन इतने बड़े पैमाने पर बीजेपी से किसी दूसरे बड़े वोटिंग ब्लॉक को हथिया पाएगा
ऐसा महसूस होता है कि उम्मीदवारों के चयन या स्थानीय कारकों की वजह से कुर्मी, मौर्य, सैनी, गुर्जर और अन्य ओबीसी जाति समूह इधर से उधर हो जाएं.
तब अवध और संभवत: पूर्वी यूपी के कुछ हिस्सों में पासी दलित मतदाता बीजेपी से दूर हो सकते हैं. एसपी को इससे फायदा हो सकता है, लेकिन जरूरी नहीं कि उसे अकेले को फायदा हो. बछरावां, जगदीशपुर और बख्शी का तालाब जैसी कुछ सीटों पर कांग्रेस को भी बढ़त मिलती दिख रही है.
अब भले एसपी ने गैर-यादव ओबीसी लोगों को लुभाया है, लेकिन ऐसा लगता नहीं है कि इस हिस्से में बीजेपी को उतना नुकसान हुआ है, जितना गन्ना क्षेत्र के जाटों के बीच हुआ है.
ऐसा लगता है कि बीएसपी मुसलमानों के बीच अपना कुछ समर्थन खो रही है. यह दो कारणों से हो सकता है: पहला, मुसलमानों में यह भावना पैदा हुई है, खासकर बंगाल चुनावों के बाद कि उनके समुदाय को सिर्फ सीट के स्तर पर नहीं, राज्य स्तर पर भी बीजेपी की मुख्य विरोधी पार्टी का समर्थन करना चाहिए.
दूसरा, यह धारणा है कि बीएसपी ने तीन तलाक जैसे मुद्दों पर राष्ट्रीय स्तर पर बीजेपी का साथ दिया है और दोनों पार्टियों के बीच चुनाव बाद गठबंधन से इनकार नहीं किया जा सकता.
लेकिन मुस्लिम समर्थन के नुकसान से परे, बीएसपी का वोट आधार कैसे बदल रहा है? क्या यह पार्टी गैर-जाटव दलितों के बीच, खासकर हाथरस गैंगरेप के बाद, मजबूत हो रही है? क्या यह फिर से अपर कास्ट जातियों का समर्थन जुटा रही है जो पिछले कुछ वर्षों में खो गया था?
इससे उलट, अगर बीएसपी मुसलमानों से परे जाकर अपना समर्थन खो रही है, तो उसके वोटर्स किस तरफ जा रहे हैं? ये वोटर्स किसे बड़ा दुश्मन मानेंगे- बीजेपी को या एसपी को?
ऐसा ही एक मुद्दा है एसपी की पुरानी पेंशन योजना को बहाल करने की घोषणा.
ऐसा लगता है कि सरकारी कर्मचारियों के बीच यह अच्छी तरह से चल गई है. लेकिन यह वर्ग सीमित क्षेत्रों में केंद्रित नहीं है, बल्कि पूरे राज्य में फैला हुआ है. तो क्या इसका चुनावी नतीजों पर खासा असर पड़ेगा?
ऐसा ही दूसरा मुद्दा बेरोजगारी है और इस मुद्दे पर बीजेपी की आलोचना बढ़ रही है, खासकर इलाहाबाद में नौकरी के इच्छुक उम्मीदवारों के खिलाफ पुलिस की हिंसा के बाद.
लेकिन फिर से कहना होगा, इससे प्रभावित होने वाले नौजवान पूरे राज्य में हैं और इसलिए किसी विशेष क्षेत्र के नतीजों को प्रभावित करने की स्थिति में नहीं हैं. क्या इस मुद्दे ने पूरे यूपी में बीजेपी के खिलाफ भावना पैदा कर दी है? या फिर पीएम मोदी और सीएम योगी की अपील से हुए नुकसान पर पार्टी काबू पा लेगी.
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