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‘द ताशकंद फाइल्स’ साजिशों पर बनी फिल्म है, जिसमें हमारे सामने एक ऐसी कहानी पेश की गई है जिसका एजेंडा विवेक ओबेराय की फिल्म ‘ 'पीएम नरेंद्र मोदी' दूसरी फिल्मों की तरह महीन है.
खैर, यह एक विवेक का नुकसान दूसरे विवेक का फायदा है.
फिल्म निर्माता और ‘अर्बन नक्सल’ (शहरी नक्सली) शब्द के जनक विवेक अग्निहोत्री भारत के दूसरे प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री की मौत की जांच के बारे में एक मुनासिब सवाल पूछते हैं: ‘हम शास्त्री के बारे में उतनी बात क्यों नहीं करते जितनी हमें करनी चाहिए?’
इसका कारण है कि शायद हम जवाहरलाल नेहरु से बहुत प्रभावित हैं, जिन पर पिछले पांच सालों में कुछ ज्यादा ही ध्यान दिया गया है. इसके अलावा हालिया फिल्मों ने पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और इंदिरा गांधी को भी लपेटे में लिया है (यह कुछ ऐसा इशारा करता है कि मानो अगला नंबर राजीव गांधी और पीवी नरसिम्हा राव का हो).
इसलिए यहां फिल्म के 10 मोमेंट्स हैं जो पिछले पांच सालों पर एक समीक्षा के रूप काफी मजबूती से सामने आते हैं.
इस पर बात करने से पहले, सबसे पहले सबसे बड़े सवाल पर आते हैं.
विवेक अग्निहोत्री की प्रोडक्शन कंपनी के लोगो का क्या मतलब है?
पल्लवी जोशी का किरदार “डिम लाइटिंग” का मतलब बताने में इन शब्दों का इस्तेमाल करता है.
एक ऐसे समय में जब इंटरनेट के चलते ज्ञान का पूरा भंडार हमारी हथेलियों पर है, यह अजीब तरीके से हास्यास्पद है कि यह गलत सूचनाएं फैलाने के लिए सबसे प्रभावशाली जरिया भी है.
जैसे व्हाट्सऐप के फॉरवर्ड किये गए मेसेजों में नेहरु के दादा को मुसलमान बताना हो, 2000 रुपये के नोटों में नैनो-चिप होने की बात हो या INDIA का फुल फॉर्म “इंडिपेंडेंट नेशन डिक्लेअर्ड इन अगस्त” बताना हो. क्या इनमें से कुछ भी सच था?
ये शब्द में फिल्म में मिथुन चक्रवर्ती के किरदार ने बोले गए हैं.
“डिवाइड” शब्द जाना-पहचाना लगता है, क्योंकि हमने बहुत सारे राजनेताओं, पत्रकारों, कलाकारों और सिविल सोसाइटी मेंबर्स को “डिवाइसिव पॉलिटिक्स” या “पॉलिटिक्स ऑफ पोलराइजेशन” के खिलाफ बोलते हुए सुना है.
चाहे यह बीफ बैन का मुद्दा हो और उसके बाद मॉब लिंचिंग हों, एनआरसी पर बहस हो, टुकड़े-टुकड़े गैंग या यहां तक कि राष्ट्रवादी बनाम राष्ट्रविरोधी हो, ऐसा लगता है कि राजनीति में यह सब आम हो गया है.
फिल्म में एक इतिहासकार का किरदार निभाने वाली पल्लवी जोशी फिल्म में एक जगह अपसेट होती हैं और झल्लाहट में ये शब्द चिल्लाती हैं.
ऐसा क्यों लगता है कि यह लाइन और इसके साथ की झल्लाहट से हम बहुत वाकिफ हैं?
चाहे यह दावा हो कि अकबर हल्दीघाटी का युद्ध हार गए थे या ताज महल वास्तव में एक शिव मंदिर “तेजोमहालय” था, ऐसा लगता है कि इतिहास इतिहासकारों ने नहीं बल्कि व्हाट्सऐप के इतिहासकारों ने हर रोज लिखा है.
बिलकुल होता है.
‘’एक चालाक मंत्री’’ नसीरुद्दीन शाह ये शब्द लाल बहादुर शास्त्री की मौत के सन्दर्भ में कहते हैं लेकिन यह पूर्व प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु को लगभग रोजाना याद किये जाने के सन्दर्भ में ज्यादा फिट बैठता है.
कश्मीर से लेकर वल्लभभाई पटेल और यहां तक कि शायद नोटबंदी तक नेहरु मोदी के हमलों का शिकार इस हद तक हुए हैं कि आजकल एक जोक यह सवाल पूछता है कि अगर नेहरु मोदी को काम ही नहीं करने देते तो पांच साल के लिए फिर से उन्हें चुनने का क्या मतलब है.
श्वेता बसु प्रसाद द्वारा एक रिपोर्टर रागिनी फुले के रूप में निभाए गए किरदार पर “एंटी-नेशनल” होने का आरोप लगता है क्योंकि वे कुछ असहज सवाल पूछती हैं.
यह मुझे इतना जाना-पहचाना लगा कि मुझे हैरत हुई कि क्या यह फिल्म शास्त्री के बारे में है?
पिछले कुछ सालों में गढ़े गए वाक्यों में “एंटी-नेशनल” कुछ खास लोगों के लिए बना है. चाहे यह जेएनयू के छात्र हों, पत्रकार हों, कॉमेडियन हों, विपक्षी पार्टियां हों, या वो हों जिन्होंने नमो टीवी जल्दी ही छोड़ दिया हो, को “एंटी-नेशनल” बना दिया जाता है.
श्वेता बसु प्रसाद का किरदार यहां राईट टू इनफार्मेशन (आरटीआई) के बारे में बात नहीं कर रहा है. ना ही वह आरटीआई के सवालों को व्यवस्थित तरीके से नजरंदाज किये जाने के बारे में बात कर रही हैं.
लेकिन उन्हें करना चाहिए. सभी को करना चाहिए.
सेंट्रल इनफार्मेशन कमीशन के मुताबिक 27000 अपीलें अभी भी पेंडिंग हैं. नोटबंदी से लेकर ठप्प इन्टरनेट, सरकार की नियुक्त की गई कई समितियों के काम तक, आरटीआई रिक्वेस्ट्स को कमजोर आधार पर खारिज किया जाता रहा है या उनका जवाब ही नहीं दिया गया है.
फिल्म में एक जगह लीड किरदारों के बीच बातचीत इस मुद्दे पर होती है कि कैसे सरकारें अप्राकृतिक मौतों की जांच कराने में दिलचस्पी नहीं लेती हैं. शास्त्री के सन्दर्भ में इस बात की अहमियत हो सकती है, लेकिन आज के सिनेरियो में यह और भी अहम बात है.
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एक अच्छा थ्रिलर या एक कोर्टरूप ड्रामा इसके लिए आधार तय करता है जिस पर यह नैरेटिव गढ़ा जाता है. फिल्म का लीड किरदार एक पत्रकार है जो “सच” की तलाश करती है. सही है.
तो सवाल यह है कि कैसे खराब छवि वाली एक पत्रकार अचानक से सच की मशाल कैसे थाम लेती है? क्या यह सामान्य लगता है?
फिल्म के एक अहम मोड़ पर इसके लीड किरदारों में से एक इस बात को लेकर हताशा में होता है कि कई घटनाओं के लिए एक विशेष समुदाय को दोषी क्यों नहीं ठहराया जा सकता. इस भावना के लिए फिल्म के आखिर में उन्हें सजा दी गयी.
हालांकि, रात में होने वाली प्राइमटाइम टेलीविजन डिबेट्स पर एक सरसरी नजर से पता चलता है कि उन्हें इस तरह की विकट समस्याओं का सामना नहीं करना पड़ता है. रूलिंग पार्टियों के प्रवक्ताओं ने बार-बार अल्पसंख्यक समुदायों पर लगभग हर संभव आरोप लगाया है.
फिल्म के सेंट्रल प्लाट पर आते हैं – शास्त्री की मौत की जांच के लिए सरकार एक कमिटी बनाती है. इतिहासकारों, पूर्व-रॉ अधिकारी, पूर्व न्यायाधीशों, राजनेताओं और नौकरशाहों के साथ-साथ इस कमिटी में एक पत्रकार भी है....क्या यह अजीब बात नहीं है?
देश के पहले गृह मंत्री वल्लभभाई पटेल के नाम पर झंडाबरदारी किस वक्त शुरू हुई इसका जवाब शायद गोलमोल हो, लेकिन अगर यही सवाल लाल बहादुर शास्त्री के तख्तापलट की कोशिश के तौर पर पूछा जाए तो जवाब होगा- द ताशकंद फाइल्स.
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