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अभिषेक वर्मन की फिल्म ‘कलंक’ की खूबसूरती है शानदार कपड़े और बेहतरीन ज्वेलरी. साथ ही आलिया भट्ट, आदित्य रॉय कपूर और वरुण धवन के चार्म से विजुअली ये और भी बेहतर हो जाती है. कुल मिलाकर फिल्म तो काफी ‘खूबसूरत’ है, लेकिन जब बात होती है कहानी की तो ये काफी बोरिंग है. फिल्म को देखकर ये पीरियड ड्रामा (जैसा फिल्म दावा करती है) से ज्यादा, फैंटेसी से भरा लगता है.
'अंग्रेज जा रहे हैं' और 'मुल्क का बंटवारा' जैसी सीन को देखकर हमें याद आता है कि फिल्म 1940 के दशक पर बेस्ड है. मतलब वो वक्त जब अजादी मिलने वाली है, लेकिन बंटवारे, दर्द और विनाश की कीमत पर.
वो अलग बात है कि सोनाक्षी एकदम शानदार और ब्राइट दिख रही हैं. उन्होंने अपना किरदार एकदम वहीं से पकड़ा है, जहां 'लुटेरा' में छोड़ा था.
संजय दत्त का फिल्म में स्पेशल अपीयरेंस है, जिसमें वो अधिकतर दुखी नजर आते हैं. सोनाक्षी सिन्हा जल्द ही स्क्रीन से गायब हो जाती हैं. आदित्य रॉय कपूर हमेशा की तरह डैपर लग रहे हैं, लेकिन एक एक्सप्रेशन के अलावा और कुछ दिखा नहीं पाए.
तो सब कुछ आलिया और वरुण के कंधे पर आ जाता है. रूप और जफर जब भी स्क्रीन पर आते हैं, अपनी इंटेंस सीन से छा जाते हैं. माधुरी दीक्षित अच्छी लगती हैं. बंटवारे और कम्युनिटी के बीच लड़ाई बैकड्रॉप का काम करती है, जिसमें प्यार को जीतना ही है.
फिल्म में 30-40 मिनट आसानी से हटाए जा सकते थे, कम से कम दो 'आइटम नंबर', जिनकी कोई जरूरत नहीं है. कियारा आडवाणी और कृति सैनन का गाना इस फिल्म का हिस्सा ही नहीं होना चाहिए था.
फिल्म रूप (आलिया भट्ट) के सवाल के साथ खत्म होती है. वो व्यूअर्स से पूछती है, 'अब ये आप सब पर है... आपको ये कहानी देखकर क्या लगा, ये कलंक है या मोहब्बत?' हम बस इतना कहेंगे, कि आप ये फिल्म थोड़ी छोटी कर सकते थे. ये तब ज्यादा मजेदार होता. आलिया और वरुण फिल्म में शानदार हैं, लेकिन फिल्म में वो दम नहीं.
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