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कैमरा: शिव कुमार मौर्या
एडिटर: कुणाल मेहरा
वीडियो प्रोड्यूसर: चांदनी शर्मा
'कारवां' में बहुत सारी चीजें अच्छी हैं. जैसे इरफान खान, जो एक्टिंग की अपनी खास शैली की वजह से महज फ्रेम में मौजूद रहने से ही सीन में जान डाल देते हैं. इसके अलावा दुलकर सलमान हैं, जिन्होंने बॉलीवुड में डेब्यू किया है. जब भी वे स्क्रीन पर आते हैं, तो छा जाते हैं.
मिथिला पालकर खूबसूरत हैं. उनमें ऊर्जा की कोई कमी नहीं और उन्हें देखना हमेशा खुशनुमा अहसास देता है. अविनाश अरुण की बेहतरीन सिनेमेटोग्राफी है, जो फिल्म में कुदरत की हरियाली और आसमानी नीले रंग के खूबसूरत तालमेल को कैमरे में कैद करती है.
एक बेहतरीन सिनेमाई अनुभव के लिए सभी जरूरी चीजें होने के बावजूद 'करवां' जानदार नहीं मालूम पड़ती है. फिल्म में मौजूद ये सभी तत्व पूरी तरह एकसाथ कभी परदे पर नहीं आते.
अविनाश (दुलकर सलमान) एक नाखुश आदमी है. वो एक ऐसी नौकरी में फंसा हुआ है, जिससे वो नफरत करता है. फ्लैशबैक से पता चलता है कि उसके पिता ने उसका फोटोग्राफर बनने का अपना सपना तोड़ दिया था.
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अविनाश के दोस्त शौकत (इरफान) उन्हें शवों की अदला-बदली के लिए कोच्चि ले जाने की पेशकश करते हैं. कुछ अजीबोगरीब और दुखद परिस्थितियों से होते हुए अविनाश की मुलाकात कॉलेज में पढ़ने वाली एक लड़की तान्या (मिथिला पालकर) से होती है.
'कारवां' को एक अच्छी फिल्म बनाने की पूरी कोशिश की गयी है, लेकिन कहानी में कसावट की कमी के चलते बुरी तरह नाकाम रहती है. भूलने लायक गाने और आधे-अधूरे किरदार फिल्म से जुड़ाव को कम कर देते हैं. विजुअली, ये एक अच्छी तस्वीर पेश करती है, लेकिन फिल्म खोखली है, जो निराश करती है.
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