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हर तरफ 'मोदी- मोदी' की गूंज है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक बार फिर 2019 के लोकसभा चुनाव में अपनी पार्टी को भारी मतों से जीत दिलाई है. किस ने सोचा था कि डायरेक्टर उमंग कुमार को इतनी परफेक्ट रिलीज डेट मिलेगी? जब मोदी अपने कार्यकाल की दूसरी पारी शुरू करने जा रहे हैं, ऐसे में जाहिर सी बात है, थिएटर में मोदी की बायोपिक का जादू चलना कोई हैरत की बात नहीं होगी.
फिल्म में ये दिखाया गया है कि मोदी एक ऐसी शख्सियत हैं, जो कभी गलत नहीं हो सकते. यहां तक कि वो सपने में भी कुछ गलत नहीं कर सकते. ये कहना भी गलत नहीं होगा कि फिल्म में मोदी की छवि को जरूरत से ज्यादा चमका कर पेश किया गया है. मतलब साफ है कि एक भक्त ने भक्तों के लिए ये फिल्म बनाई है.
फिल्म की अप्रोच बहुत ही अफसोसनाक और दयनीय है. फिल्म की शुरुआत विवेक ओबेरॉय के पिता सुरेश ओबेरॉय की आवाज से होती है, जिसमें वो हम सब से ये बता रहे हैं, ''ये एक इंसान की कहानी नहीं, बल्कि एक देश की कहानी है.’’
मोदी महान हैं और उनका जन्म इसी महानता के साथ हुआ था. ट्रेन में चाय बेचने वाले से लेकर ये दिखाया गया है कि कैसे नरेंद्र मोदी मगरमच्छों के साथ खेलते हैं. इस फिल्म में आपको सभी मसाले मिलेंगे.
10 मिनट के अंदर हमें दाढ़ी वाले विवेक ओबेरॉय स्क्रीन पर दिखाई देते हैं. ये झलक आती है उस युवा मोदी के बाद, जो इस सोच में है कि अपनी जिंदगी में अब क्या करें. जो हिमालय में जाकर संन्यासी बनना चाहता है और खुद को तलाशना चाहते है, जबकि उनका परिवार उनके इस फैसले के सख्त खिलाफ है.
फिल्म में एक बार वो जब अपने मिशन ‘देश सेवा’ की शुरुआत करते हैं. उसके बाद संघ प्रचारक से लेकर गुजरात के मुख्यमंत्री तक, हर किरदार को पर्दे पर उतारा गया है. गुजरात दंगों की भी झलक दिखाई गई. ये भी दिखाया गया कि कैसे अमेरिका ने मोदी को विजा देने से मना कर दिया था, इसके पीछे विपक्ष की बड़ी चाल बताई गई है.
मोदी के बयान ‘न खाऊंगा, न खाने दूंगा’ और 'मैं चौकीदार', 'भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई' ये सभी बयान चमका-चमकाकर दिखाए गए हैं.
फिल्म में जो एक बात अच्छी, वो ये है कि विवेक ओबेरॉय ने पीएम मोदी की मिमिक्री नहीं की, बल्कि मोदी के किरदार को प्ले करने की कोशिश की है. फिल्म में मनमोहन सिंह और राहुल गांधी के किरदारों को भी कम ही दिखाया गया है.
फिल्म डिस्क्लेमर से काफी दूर नजर आती है, जिसमें लिखा है कि ये फिल्म देशप्रेम, राष्ट्रवाद और और अपने देश के प्रति श्रद्धा को बढ़ाने के लिए बनाई गई है.
फिल्म साल 2014 के उस चुनाव के साथ खत्म हो जाती है, जिसमें पीएम मोदी भारी मतों से जीत हासिल कर लेते हैं. लेकिन हम असल स्टोरी थिएटर के बाहर देख सकते हैं, जहां मोदी के फैंस 'मोदी-मोदी' की माला जप रहे हैं.
मोदी को और उनकी शख्सियत को पसंद किया जा सकता है, उनकी राजनीति का सम्मान किया जा सकता है. लेकिन जब फिल्म की बात करें, तो कमजोर कहानी और खराब डायरेक्शन के साथ ये फिल्म जुमले के अलावा और कुछ नहीं.
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