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3 जून को रिलीज हुई यश राज फिल्म की 'सम्राट पृथ्वीराज' Samrat Prithviraj में 12 वीं शताब्दी के शासक पृथ्वीराज (अक्षय कुमार Akshay Kumar) और उनके साथियों ने सरहद, गुस्ताखी माफ़, शुक्रिया और इश्क जैसे शब्दों का प्रयोग किया है.
वास्तुकला और भाषा में गलत बयानी से लेकर 16वीं शताब्दी के महाकाव्य के त्रुटिपूर्ण रूपांतरण तक, "जौहर" को महत्व देने और उस समय के शासकों पर वर्तमान हिंदू-मुस्लिम बाइनरी थोपने के लिए जानबूझकर की गई चूक तक फिल्म 'सम्राट पृथ्वीराज' ऐतिहासिक अशुद्धियों से भरी पड़ी है.
पृथ्वीराज 12वीं शताब्दी का सम्राट था. पृथ्वीराज ने गजनी के 12वीं शताब्दी के शासक मोहम्मद गोरी के खिलाफ तराइन के दो युद्ध लड़े थे.
पृथ्वीराज चाहमान वंश का शासक था, जिसकी राजधानी अजमेर में थी. 12 वीं शताब्दी में उपमहाद्वीप पर शासन करने वाली कई जनजातियों में से एक चाहमान थे, इसकी समकालीन जनजातियों में से एक कन्नौज के गढ़वाल थे, जिसका शासक जयचंद था, वह पृथ्वीराज का प्रतिद्वंद्वी था. सम्राट पृथ्वीराज के निर्माता का दावा है कि यह फिल्म चंद बरदाई महाकाव्य पर आधारित है. जिसके अनुसार जयचंद की बेटी संयोगिता का अपहरण पृथ्वीराज ने किया.
12वीं शताब्दी में शिहाब-उद-दीन गोरी या मोहम्मद गोरी गजनी का शासक था जो 1191 में पंजाब क्षेत्र को जीतने के लिए आया था. पृथ्वीराज ने उसे तराइन के पहले युद्ध में हराया था. वहीं तराइन का दूसरा युद्ध एक साल बाद 1192 में लड़ा गया था जिसमें बेहतर रणनीति की वजह से गोरी ने जीत हासिल की थी.
अक्षय कुमार-मानुषी छिल्लर अभिनीत फिल्म सम्राट पृथ्वीराज को एक ऐतिहासिक दुःस्वप्न कहा जा सकता है जो खतरनाक और गैर-जिम्मेदार दोनों है. इस फिल्म की कुछ गलतियों के बारे में हम यहां आपको बताने जा रहे हैं :
फिल्म को लेकर ऐसा "दावा" किया जा रहा है कि यह 16वीं शताब्दी की रचना पृथ्वीराज रासो पर आधारित है, जिसे कवि चंद बरदाई ने लिखी थी. स्क्रीन पर पृथ्वीराज के जीवन का वर्णन करने के लिए यह टेक्स्ट (चंद बरदाई का पाठ) एक संदर्भ बिंदु है, यह अपने आप में एक समस्या है. क्योंकि सम्राट पृथ्वीराज का युग 12वीं शताब्दी था जबकि इस रचना को लगभग 400 साल बाद 16वीं शताब्दी में लिखा गया था.
गौरतलब है कि पृथ्वीराज रासो अपने आप में तराइन के युद्ध का एक काल्पनिक वृत्तांत है.
ऐसे में एक सवाल यह भी उठता है कि क्या यह फिल्म कम से कम महाकाव्य पर खरी उतरती है? जिसका जवाब है : नहीं.
महाकाव्य में यह बताया गया है कि तराइन के दूसरे युद्ध (जिसमें मोहम्मद गोरी की जीत हुई थी) के बाद पृथ्वीराज को गजनी शहर ले जाया जाता है और अंधा कर दिया जाता है. वहां (गजनी में) पृथ्वीराज को तीरंदाजी में चुनौती दी जाती है जिसके दौरान वह (पृथ्वीराज) निहत्थे गोरी को अपने एक तीर का निशाना बनाता है और वह तीर गोरी को लगता है जिससे तुरंत ही उसकी मौत हो जाती है.
हालांकि फिल्म में महाकाव्य के इस प्रसंग में कुछ और भी जोड़ दिया गया है. फिल्म में दिखाया गया है कि गोरी पृथ्वीराज पर भाला ताने हुए है और तब पृथ्वीराज उसे तीर मारता है.
इसके अलावा फिल्म का एक हिस्सा और एक गाना जौहर ("समुदाय के सम्मान" की रक्षा के लिए महिलाओं का आत्मदाह) को लेकर भी है. इस तथ्य के अलावा कि यह अमानवीय कृत्य का महिमामंडन करता है, यह भी अजीब है कि आखिर फिल्म के लेखकों को इस दृश्य को जोड़ने की आवश्यकता क्यों महसूस हुई? क्योंकि चंद बरदाई के पृथ्वीराज रासो में जौहर का कोई जिक्र नहीं है. ऐसे में अगर यह फिल्म चंद बरदाई के महाकाव्य पर आधारित है, तो जौहर दिखाने वाला यह हिस्सा मूवी में कहां से जोड़ा गया?
फिल्म में न केवल बरदाई की काल्पनिक कहानी, बल्कि तराइन के युद्ध के ऐतिहासिक नैरेटिव को भी ठीक ढंग से सच के साथ नहीं दिखाया गया है.
अपनी उत्कृष्ट रणनीति के कारण गोरी तराइन का दूसरा युद्ध जीत गया. इसमें पृथ्वीराज की हार हुई और उसे बंदी बना लिया गया. रासो के मुताबिक सम्राट पृथ्वीराज को गजनी ले जाया गया, उसे अंधा बनाया गया. फिर चंदबरदाई गजनी पहुंचा और गोरी को एक तीरंदाजी प्रतियोगिता के लिए मनाया जिसमें पृथ्वीराज बिना देखे निशाना लगाने वाला था. इसी प्रतियोगिता में पृथ्वीराज ने गोरी को तीर से मारा डाला और फिर चंद बरदाई के साथ खुदकुशी कर ली. लेकिन इस विषय पर अन्य स्त्रोत बताते हैं कि पृथ्वीराज को गोरी ने अजमेर का शासक बनाया और बाद में बगावत करने पर मार डाला. कई सोर्स ये भी बताते हैं कि दरअसल गोरी ने पृथ्वीराज की मौत के कई साल तक शासन किया था.
फिल्म में ये भी दिखाया गया है कि तराइन का पहला युद्ध इसलिए होता है क्योंकि पृथ्वीराज "नारी की इज्जत" बचाना चाहते हैं, जोकि सरासर झूठ है.
फिल्म का पूरा मकसद तराइन के युद्ध को दो धर्मों के बीच की जंग के तौर पर दिखाना है. पृथ्वीराज और उसकी सेना भगवा रंग के कपड़े पहने हैं, उसका झंडा भगवा है वहीं गोरी की सेना हरे रंग की पोशाक में है और उसका झंडा हरा है.
इसमें ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य या संदर्भ का अभाव है क्योंकि पृथ्वीराज के लिए या उसके कालखंड के किसी भी साहित्य में पृथ्वीराज और गोरी की सेनाओं के झंडे या वर्दी के रंग का कोई उल्लेख नहीं किया गया है.
फिल्म की शुरुआत में पृथ्वीराज ने घोषणा की कि यह युद्ध "हिंदू" के रूप में उनका "धर्म" है. न तो चंद बरदाई और न ही किसी अन्य लेखक ने 12वीं शताब्दी के सम्राट पृथ्वीराज का वर्णन करने के लिए "हिंदू" शब्द का उपयोग किया है. उसे (पृथ्वीराज को) कभी हिंदू नहीं कहा गया.
आधुनिक समय की बायनेरीज को फिल्म में थोपना न केवल अत्यंत खतरनाक और गैर-जिम्मेदाराना है, बल्कि यह ऐतिहासिक रूप से गलत भी है.
फिल्म में पृथ्वीराज को एक संगमरमर के महल में रहते हुए दिखाया गया है. यह देखकर मुझे काफी आश्चर्य हुआ क्योंकि पहली संगमरमर की संरचना का निर्माण होशंग शाह गोरी के लिए उसके उत्तराधिकारी मांडू के महमूद खिलजी ने 1440 में करवाया था.
ऐसा प्रतीत होता है कि फिल्म के निर्माता भी 16वीं-17वीं शताब्दी की सल्तनत और मुगल-युग की वास्तुकला के प्रति ऑब्सेस्ड थे. उदाहरण के लिए, फिल्म में जयचंद के महल (12 वीं शताब्दी) में जाली का काम गुजरात के अहमदाबाद में सिदी सैय्यद मस्जिद के जैसा ही है, जिसे 16वीं शताब्दी में बनाया गया था.
फोटो : मूवी के ट्रेलर से स्क्रीनग्रैब
फोटो : मूवी के ट्रेलर से स्क्रीनग्रैब
12वीं शताब्दी पर आधारित फिल्म में जाली वर्क का होना ऐतिहासिक तौर पर ठीक नहीं है क्योंकि इस तरह के जटिल और सजीला काम (जाली वर्क) करने के लिए 12 वीं शताब्दी में आवश्यक कौशल मौजूद नहीं था.
फिल्म में लोगों को काफी भव्य महलों में रहते हुए दिखाया गया है, लेकिन ऐतिहासिक तौर पर मैं आपको विश्वास दिला सकती हूं कि जमीन के ऊपर या जमीन के नीचे उस दौर की कभी भी ऐसी कोई संरचना नहीं खोजी गई है. इसका कारण यह है कि 11वीं और 12वीं शताब्दी में सूखी चिनाई या लकड़ी के काम के का उपयोग निर्माण तकनीक में किया जाता था.
फिल्म में दो घंटे हो गए और मैं अभी भी यह सोच रही हूं कि आखिर पृथ्वीराज एक्सपर्ट के तौर पर फारसी कैसे बोल रहे हैं. हर 15 मिनट में या तो पृथ्वीराज या उनका कोई व्यक्ति गुस्ताखी माफ कहता है. सरहद, बे-अदबी, इश्क और शुक्रिया फिल्म के अन्य शब्दों में से हैं जो स्पष्ट रूप से 12 वीं शताब्दी के उपमहाद्वीप से संबंधित नहीं हैं.
क्या आप जानते हैं कि उस समय गोरी और उसके दल की भाषा भी फारसी नहीं थी? दिल्ली सल्तनत के शुरुआती 50 वर्षों में "तुर्की" वहां की भाषा थी जबकि बाद में फारसी अदालत की भाषा बन गई.
(रुचिका शर्मा, इतिहास पढ़ाती हैं और सेंटर फॉर हिस्टोरिकल स्टडीज, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, दिल्ली में इतिहास की डॉक्टरेट स्कॉलर हैं. वह एक यूट्यूब में आईशैडो और इतिहास (Eyeshadow & Etihaas) चैनल संचालित करती हैं.)
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