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फिल्म "मिसेज चटर्जी वर्सेस नॉर्वे" (Mrs Chatterjee Vs Norway) की कहानी ऐसी है कि एक भारतीय फैमली बेहतर लाइफ स्टाइल के लिए नॉर्वे जाती है, लेकिन हालात कुछ ऐसे बदलते हैं कि उनका हंसता-खेलता परिवार बिखर जाता है. उनके बच्चों को नॉर्वेजियन चाइल्ड वेलफेयर सर्विसेज (बार्नवेर्नेट) द्वारा ले जाया जाता है. यही इस फिल्म का आधार बना.
इस फिल्म की कहानी किसी डायरेक्टर की रचना नहीं है बल्कि मिसेज चटर्जी वर्सेस नॉर्वे, सागरिका चक्रवर्ती की सच्ची कहानी पर आधारित है. (उनकी पुस्तक "द जर्नी ऑफ अ मदर" पर आधारित है)
रानी मुखर्जी फिल्म में एक मां (देबिका) की भूमिका निभा रही हैं, जो अपने बच्चों को फिर से हासिल करने के लिए विदेशी चाइल्ड फोस्टर सिस्टम से लड़ जाती है. फिल्म में रानी अपने रोल को इतनी खूबसूरती से निभा रही हैं कि ऐसा लगता है की रानी ने सागरिका की कहानी और उनकी भावनाओं को परदे पर सबके सामने रख दिया.
फिल्म के इमोशनल हिस्से को संभालने की जिम्मेदारी भी रानी के ही कंधों पर है. रानी फिल्म में इमोशनल तड़का लगा रही हैं. ट्रेलर के फसर्ट हाफ में रानी बच्चों के संग हंसती-खेलती नजर आती हैं. वहीं देबिका एक ऐसी मां की झलक है जो देश से दूर होने के बाद भी अपने बच्चों को भारतीय संस्कृति सीखाना चाहती है.
असल में फिल्म में होता यही है कि जब देबिका बच्चे को अपने हाथ से दूध पिलाने लगती है तो कल्चरल डिफरेंससिंस के कारण नॉर्वेजियन चाइल्ड वेलफेयर वाले बच्चों को लेकर जाते है. इसी को नॉर्वे चाइल्ड ऑफिसर मान लेते हैं कि बच्चे उसके संग सुरक्षित नहीं है.
डायरेक्टर आशिमा छिब्बर ने फिल्म को दो हिस्सों में बांटा है. मूवी धीरे-धीरे चलती है, पहले हंसते-खेलते परिवार को दिखाया गया है और देबिका से जब उसके बच्चे छीने जाते है तो एक हाउस वाइफ देबिका अपने बच्चों को हासिल करने के लिए जंग पर निकल पड़ती है. सेकेंड हाफ में फिल्म खुद को समेटती है.
फिल्म में रानी के साथ कॉम्प्लिमेंट्री रोल निभाते हुए जिम सर्भ, जो कि नॉर्वेजियन प्रतिनिधि का रोल निभाते नजर आए. वहीं, दानियाल सिंह सिस्पेक दीपिका के वकील का रोल निभा रहे हैं.
फिल्म के पहले हाफ में देबिका का किरदार प्रभावशाली लग सकता है लेकिन जैसे-जैसे फिल्म आगे बढ़ती है तो देबिका का किरदार निभा रही रानी को अपना इमोशनल एंगल दिखाने की आजादी मिलती है. वैसे ही रानी सब कुछ आउट फोक्स कर दर्शकों का सारा ध्यान अपनी ओर खींच लेती हैं और फिर दिखाई देता है कि प्रभावशाली दिख रही देबिका को कितनी अलग- अलग मुश्किलों का सामना करना पड़ता है.
फिल्म की सबसे बड़ी कमी यह है कि इसमें ज्यादातर मुद्दों को सरसरी तौर से छूआ गया है.
मिसेज देबिका चटर्जी सिर्फ नॉर्वे के सिस्टम से फाइट नहीं कर रही बल्कि फिल्म ने घरेलू हिंसा को भी छुआ है. देबिका का पति (जिस किरदार को अनिर्बान भट्टाचार्य ने निभाया) एक ऐसा किरदार दिखाया गया है जो ना सिर्फ देबिका पर घरेलू हिंसा करता है बल्कि मानसिक उत्पीड़न करते हुऐ भी दिखाई देता है. फिल्म में दूसरी दिक्कत देबिका की भाषा की दिखाई गई है. उसको नॉर्वे अधिकारियों से बात करने में दिक्कत होती है और कोई भी उसकी मदद के लिए तैयार नहीं होता है.
मिस्टर चटर्जी के परिवार और उनकी पत्नी के प्रति उनके व्यवहार ने देबिका को कैसे प्रभावित किया है? क्यों हर कोई फिल्म में इतनी आसानी से देबिका को अपने बच्चों की परवरिश के लिए मानसिक रूप से अस्थिर या अनफिट करार देता है? वो आर्थिक रूप से स्थिर क्यों नहीं है?उसके पास कोई अपनी फाइनेंशियल एजेंसी क्यों नहीं है? वो अपने पति पर क्यों निर्भर है? इन सवालों के जवाब फिल्म के ताने बाने में है मगर इनरे जवाब जनता तक नहीं पहुंचते हैं.
फिल्म जैसे-जैसे आगे बढ़ती है, दर्शकों की देबिका के लिए संवेदना बढ़ती जाती है. वो विदेश में जंग लड़ती मां से जुड़ने लगते हैं, और देबिका की लड़ाई बढ़ती जाती है. फिल्म में ट्विस्ट की कमी है. नॉर्वे अधिकारियों से लेकर देबिका के ससुराल वालों तक का रिएक्शन इतना प्रेडिक्टेबल बन गया कि दर्शकों के लिए उसमें कुछ नया देखने को नहीं बचा. देबिका के पति का किरदार निभा रहे अनिर्बान,एक बेहतरीन कलाकार है लेकिन स्क्रिप्ट में उनको अपनी कला दिखाने की छूट नहीं मिलती.
सिस्पेक को बैकस्टोरी का एक टुकड़ा दिया जाता है लेकिन वो भी फिल्म के चुने हुए संदेश में खो जाता है. सिस्पेक का किरदार भी एक संदेश देता है जो शायद फिल्म में कहीं खो गया मगर उस संदेश को जानना आपके लिए जरूरी है. फिल्म का सारा ध्यान और केंद्र सिर्फ देबिका को रखा गया.
समीर सतीजा, छिब्बर और राहुल हांडा द्वारा लिखी गई फिल्म आधी अधूरी पटकथा सी लगती है, जो एक ही टॉपिक के इर्द-गिर्द घूमती रहती है. फिल्म में बहुत सारे मुद्दों को उठाया है लेकिन उनके साथ न्याय नहीं कर पाई है.
स्टोरी ट्रांसलेशन - शाइना परवीन अंसारी
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