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‘एर्तुग्रुल’ शो क्यों जीत रहा करोड़ों मुसलमानों का दिल? 

पाकिस्तान में इस शो ने धूम मचा दिया है, यूट्यूब पर उर्दू वर्जन आने के बाद तो कई रिकॉर्ड टूट गए

हिबा बेग
टीवी
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13वीं शताब्दी के अनातोलिया पर आधारित तुर्की का टीवी शो ‘एर्तुग्रुल’ है
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13वीं शताब्दी के अनातोलिया पर आधारित तुर्की का टीवी शो ‘एर्तुग्रुल’ है
(फोटोः Youtube screenshot)

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दिरिलिस एर्तुग्रुल, एर्तुग्रुल गाजी, पुनर्जीवन: एर्तुग्रुल

अगर आप लॉकडाउन के नियम नहीं तोड़ रहे हैं और इतने खुशकिस्मत हैं कि आपका अपना कोई घर है, तो मुमिकन है ये शब्द आप रोज कई बार सुनते होंगे –ये इस बात पर निर्भर करता है कि आप सोशल मीडिया पर अपना कितना वक्त बिताते हैं. निजी तौर पर मेरा लगभग चौबीस घंटा पूरा होने जा रहा है – लेकिन ये कहानी फिर कभी बताएंगे.

13वीं शताब्दी के अनातोलिया पर आधारित तुर्की का टीवी शो ‘एर्तुग्रुल’ है जो कि ऑटोमन साम्राज्य की स्थापना से पहले की कहानी है. इसमें एर्तुगुल गाजी के संघर्ष को दिखाया गया है, जो कि ऑटोमन साम्राज्य के संस्थापक, ओस्मान, के पिता थे. इसे तुर्की का गेम ऑफ थ्रोन्स भी कहा जाता है, और इसकी कई वजह है – क्योंकि ड्रैगन और सेक्स के अलावा इसमें बाकी सब कुछ है: बड़े-बड़े महल, शानदार दृश्य, बेहतरीन कपड़े, तलवारों की खनखनाहट, रोमांच, जहन्नुम और यहां तक कि शो की शुरुआती धुन भी उतना ही जोश भर देने वाली है. मैंने कई बार पचास की उम्र में पहुंच चुके अपने माता-पिता को भी इसकी टाइटल थीम पर सिर हिलाते देखा है ठीक वैसे ही जैसे मैं GOT के दौरान करती थी – और ये मुझे बहुत प्यारा लगता है.

पाकिस्तान में इस शो ने धूम मचा दी है, यूट्यूब पर उर्दू वर्जन आने के बाद तो कई रिकॉर्ड टूट गए, और अब हिंदुस्तान में भी मुस्लिम घरों में इस शो को खूब पसंद किया जा रहा है. मैंने ये शो देखना शुरू किया तो गेम ऑफ थ्रोन्स के खुमार से बाहर निकलने में एकाध मिनट जरूर लगा, लेकिन फिर तो मैं बस देखती ही चली गई. क्या शो है, क्या बात है.

(फोटोः Youtube screenshot)

शो को मिली नई जिंदगी

एर्तुग्रुल तुर्की में 2014 में रिलीज हुआ, और देखते-ही-देखते सबका चहेता शो बन गया, असर अजरबैजान में भी दिखा क्योंकि दोनों देशों का इतिहास कभी एक ही रहा है. हाल में पाकिस्तान के प्रधानमंत्री तुर्की गए और इस शो को लेकर लोगों की दीवानगी के बारे में सुना. जिसके बाद उन्होंने शो की उर्दू डबिंग कराकर इसे पाकिस्तान लाने और रमजान के पहले दिन इसे रिलीज करने का फैसला किया, इसके बाद दक्षिण एशियाई मुस्लिम समुदाय में ये शो आग की तरह फैल गया. तुर्की, पाकिस्तान और मलेशिया ने साथ मिलकर पूरी दुनिया, खास तौर पर पश्चिमी देशों में, बेतरतीब फैले इस्लामोफोबिया से लड़ने का फैसला लिया है, और करीब-करीब हर फिल्म और नेटफ्लिक्स सीरीज के जरिए जो नुकसान पहुंचा है उसकी भरपाई करने वाले इस शो को आगे लाना चाहा.

भाषा की बाधा खत्म होते ही, पुनर्जीवन: एर्तुग्रुल हकीकत में दर्शकों में पुनर्जीवित हो गया, जिसके बाद शो के लीड एक्टर्स अपने फैन्स का शुक्रिया अदा करते और उनसे मिलने का वादा करते नजर आए. मैं कोई शिकायत नहीं कर रही, मैं ये साफ कर दूं: अगर कोई मिलना-जुलना होता है, आप यकीन मानो मैं कतार में जरूर खड़ी मिलूंगी.
(फोटोः Youtube screenshot)
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इस नुमाइंदगी से मुस्लिम दर्शकों की भूख मिटी

ये शो हर नजरिए से शानदार है, चाहे आप किसी भी आधार पर इसे जज करने की कोशिश करें; वो निर्देशन हो, कहानी हो, एक्टिंग हो या प्रोडक्शन हो – इसमें इन सबसे से ज्यादा और भी बहुत कुछ है. अगर पूरी दुनिया के मुसलमान इस शो से भावनात्मक तरीके से जुड़ गए हैं, तो क्या इसकी वजह ये है कि ये शो मुस्लिम किरदारों पर आधारित है? ऐसा नहीं है. सच तो ये है कि, पहली बार, किसी शो में मुस्लिम किरदार को जाहिल, या चापलूस, या आतंकवादी नहीं दिखाया गया है. वो असली हीरो है. एक दरियादिल इंसान जो कि कुरान के हिसाब से जीता है, और अपनी जनता का भला करने की हर कोशिश करता है. पहली बार किसी शो में दिखाया गया है कि मुसलमानों में भी दिल होता है, उनके अंदर भी भावनाएं होती हैं और उनमें भी दूसरे इंसानों की तरह खामियां होती हैं. ये सब नया है, खासकर ऐसे प्रोडक्शन वैल्यू के शो के लिए.

जो बात मुझे सबसे अच्छी लगी वो ये कि शो में दिखाए गए मुसलमान और ईसाई अलग-अलग नहीं नजर आए, अच्छा बनाम बुरा के रूप में नहीं दिखाए गए. दोनों तरफ अच्छा और बुरा नजर आया, जिससे कहानी में वो मानवीय हृदय नजर आया जिसके लिए हम तरस रहे थे. पिछली पीढ़ी के लोग जिन्हें गेम ऑफ थ्रोन्स जैसा शो कुछ खास पसंद नहीं आया, उनका इस शैली के शो को पंसद करना काफी उत्साहवर्धक लगा. टीवी स्क्रीन पर किसी इस्लामिक साम्राज्य का चित्रण देखना अपने आप में एक नई बात है. पहले कभी अगर किसी शो या फिल्म में मुस्लिम साम्राज्य को दिखाया भी गया है तो उसे नकारात्मक नजरिए से ही दिखाया गया.

इस मामले में ये महज एक शो नहीं है, ये इस्लामिक विश्व की प्राचीन (Orientalist) पहचान का ऐलान और उसका अंत है, जिसमें मुस्लिम राजाओं को बर्बर और सनकी दिखाया जाता था जो हमेशा ऐय्याशी और हिंसा में डूबे रहते थे.

यह शो कुरान के संदेशों से भरा पड़ा है, जो कि लगभग हर किसी के लिए एक नया आयाम लेकर आता है. वाकई में, एर्तुग्रुल गाजी के जरिए, पूरी दुनिया के मुसलमानों को ना सिर्फ एक शो मिला है जो बेहतरीन तरीके से बनाया गया है बल्कि वो नायक भी नजर आए जिनके बारे में उन्होंने अपने पूर्वजों से सुना था.

फतवा क्या है और क्या हराम है

जाकिर नाइक ने, शो के बारे में बताते हुए एक वीडियो जारी कर, कहा कि इस शो में मोहब्बत के सीन जैसे बड़े गुनाह के दृश्य तो नहीं हैं लेकिन फिर भी इसे देखना ‘हराम’ है, और जो टीवी शो नहीं देखते उनका हौसला बढ़ाते हुए इस शो को भी देखने से मना कर दिया. जाकिर नाइक ने कहा कि मुसलमानों की आंखों को शो में मौजूद संगीत और बिना हिजाब की महिलाएं देखने की इजाजत नहीं है. अब आप इनसे इत्तेफाक रखते हैं या नहीं ये आप पर निर्भर है, लेकिन हर वो चीज जिससे ‘मुस्लिम’ शब्द जुड़ा हो विवाद तो बन ही जाता है, इसलिए हमलोग इसके लिए तैयार थे. मेरी राय? हम्मम... हो सकता है मैं इससे भी बड़ी गलतियां कर रही हूं, लेकिन फिर बात ये भी है कि मैं कोई उपदेशक नहीं हूं.

अगर इस शो से जुड़ी कोई एक बात मैं बदल पाती तो वो यह है कि ये बेहद लंबा है. कभी-कभी मैं बीच रात में उठ कर सोचने लगती हूं ‘क्या मैं इस जिंदगी में पूरे 500 एपिसोड देख पाऊंगी?’ और फिर सारी रात मैं सो नहीं पाती... मैं मजाक कर रही थी. लेकिन वाकई में, ये 'क्योंकि सास भी कभी बहू थी' की तरह कभी खत्म ना होने वाला लगने लगता है. कई बार आप सोचने लगते हैं कि ये घोड़े अगर स्लो-मोशन में नहीं दौड़ते तो अच्छा होता, और ये कि लोग सिर्फ नाटकीय होते बजाय इसके कि हर बात पर सबके चेहरे की प्रतिक्रिया दिखाई जाती... ताकि ये शो जल्दी आगे बढ़ता... लेकिन ये बस मेरी सोच है.

(फोटोः Youtube screenshot)

कई मुस्लिम परिवारों के लिए शाम को एक साथ एर्तुग्रुल देखना एक रिवाज बन गया है. हम सब एक साथ बैठकर शो देखते हैं और सभी किरदारों के जटिल रिश्तों को समझने की कोशिश करते हैं, अपनी मांओं पर गुर्राते हैं जब वो खूनी जंग के सीन में अपना चेहरा छिपाने की कोशिश करती हैं, और गर्व से मुस्कराते हैं जब कोई नेक इंसान पैगंबर की तालीम मानते हुए हार मानने से इनकार कर देता है. यह सच है कि इस शो का दूसरे वर्गों तक पहुंचना जरूरी है, लेकिन मैंने उम्मीद का दामन नहीं छोड़ा है.

जहां हर कोई इस शो के मजहबी नजरिए से जुड़ाव महसूस नहीं कर सकता, और ऐसा जरूरी भी नहीं है. इसके बगैर भी ये शो उतना ही शानदार है.

और कुछ नहीं तो हर किसी को इस शो में एक ना एक ऐसा किरदार जरूर मिल जाएगा जो उसका चहेता बन जाए, और इसका मैं पूरा समर्थन करती हूं. इससे भी बड़ी बात ये कि इस्लामोफोबिया के खिलाफ लड़ाई में इस तरह का शो बहुत बड़ी भूमिका अदा करेगा, क्योंकि इससे मुसलमानों की संस्कृति और जिंदगी समझ में आती है. ये शो उन्हें भी सामान्य इंसान की तरह महसूस करने देता है, और ये वो चीज है जिससे हर रोज दुनिया उन्हें महरूम करती जा रही है.

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Published: 23 May 2020,08:51 PM IST

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