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करप्शन हटाने में कितने कारगर लोकपाल और लोकायुक्त? यहां समझिए

हाई लेवल कमेटी ने जस्टिस पीसी घोष को लोकपाल चुन लिया है. लोकपाल के बारे में पूरी जानकारी यहां पाइए

दीपक के मंडल
कुंजी
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करप्शन के खिलाफ अन्ना आंदोलन के दौरान  उनके समर्थक
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करप्शन के खिलाफ अन्ना आंदोलन के दौरान  उनके समर्थक
फोटो : रॉयटर्स 

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मनमोहन सिंह सरकार जब अपने दूसरे दौर में बुरे वक्त से गुजर रही थी, तो ठीक उसी दौरान सार्वजनिक क्षेत्र में भ्रष्टाचार खत्म करने के लिए अन्ना हजारे और अरविंद केजरीवाल ने एक बड़ा आंदोलन शुरू किया. इस आंदोलन को अभूतपूर्व समर्थन मिला. आंदोलन की एक प्रमुख मांग थी लोकपाल कानून को लागू करना. इस आंदोलन ने यूपीए-2 सरकार को बुरी तरह हिला कर रख दिया था. और आखिरकार लोकपाल और लोकायुक्त कानून 2013,जनवरी 2014 में लागू हुआ.

2014 में नरेंद्र मोदी सरकार केंद्र में आ गई. इस सरकार का कार्यकाल भी खत्म हो रहा था लेकिन लोकपाल की नियुक्ति नहीं हो रही थी. जिन राज्यों में लोकायुक्त बनाए जाने थे. वहां भी कोई प्रगति नहीं थी.आखिरकार सुप्रीम कोर्ट को पिछले दिनों अल्टीमेटम देना पड़ा. सुप्रीम कोर्ट की इस सख्ती का ही नतीजा था कि नरेंद्र मोदी, चीफ जस्टिस रंजन गोगोई, लोकसभा स्पीकर सुमित्रा महाजन और सीनियर एडवोकेट मुकुल रोहतगी के पैनल ने सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जस्टिस पीसी घोष को देश का पहले लोकपाल के तौर पर चुन लिया.

लोकपाल कानून और लोकपाल का अब तक का सफर

लोकपाल आंदोलन के दौरान समर्थकों के साथ अन्ना हजारे फोटो : रॉयटर्स 

1963 में पहली बार लोकपाल कानून का विचार लक्ष्मीमल सिंघवी (तत्कालीन संसद सदस्य और सीनियर कांग्रेस नेता अभिषेक मनु सिंघवी के पिता) ने रखा था. इसके बाद मोरारजी देसाई (जो बाद में पीएम बने) की प्रशासनिक सुधार कमेटी ने 1966 में सार्वजनिक जीवन के उच्च पदों पर भ्रष्टाचार को खत्म करने के लिए केंद्र में लोकपाल और राज्यों में लोकायुक्त की नियुक्ति की सिफारिश की थी.

इसके बाद 1971, 1977, 1985, 1989, 1996, 1998, 2001, 2005 और 2008 यानी नौ बार लोकपाल बिल लाने की कोशिश हुई लेकिन कामयाबी नहीं मिली. आखिरकार लोकपाल और लोकायुक्त कानून 2013, 16 जनवरी 2014 से लागू हुआ. अन्ना हजारे और अरविंद केजरीवाल के आंदोलन से बना दबाव इसका तात्कालिक कारण बना.

क्या है लोकपाल और लोकायुक्त कानून?

सुप्रीम कोर्ट ने लोकपाल के लिए सरकार को अल्टीमेटम दिया थाफोटो :  द क्विंट 

लोकपाल और लोकायुक्त कानून 2013 के तहत एक लोकपाल नाम से एक निकाय के गठन का प्रस्ताव है, जिसका एक चेयरमैन होगा. भारत के मौजूदा चीफ जस्टिस या पूर्व चीफ जस्टिस या सुप्रीम कोर्ट के मौजूदा या पूर्व जज या कोई नामचीन व्यक्ति जो लोकपाल के चेयरमैन बनने की योग्यता रखता हो, इस पद के लिए चुना जा सकता है. इस निकाय में आठ से अधिक सदस्य नहीं होंगे. 50 फीसदी मेंबर न्यायिक क्षेत्र के होंगे और 50 फीसदी अनुसूचित जाति, जनजाति, ओबीसी, अल्पसंख्यक समुदाय के होंगे. इन 50 फीसदी सदस्यों में महिला सदस्य का भी प्रावधान है.

इस कानून में कह गया है कि इसके लागू होने के एक साल के भीतर जिन राज्यों में लोकायुक्त की नियुक्ति नहीं हुई है वहां विधानसभा के कानून के मुताबिक इसकी नियुक्ति होगी, जो सार्वजनिक क्षेत्र में भ्रष्टाचार की शिकायतों का निपटारा करेगा.

लोकपाल में एक जांच विभाग होगा. जिसका नेतृत्व जांच निदेशक करेगा. यह भ्रष्टाचार निरोधक कानून 1988 के तहत दंड के दायरे में आने वाले लोकसेवकों के भ्रष्टाचार से जुड़े अपराधों की शुरुआती जांच करेगा. इसमें अभियोजन निदेशक के तहत अभियोजन विभाग भी होगा, जो लोकपाल एक्ट के तहत आरोपों पर कार्रवाई करेगा. लोकसेवक यानी पब्लिक सर्वेंट पर लगे भ्रष्टाचार की जांच के लिए यह व्यवस्था की गई है. लोकपाल के चेयरमैन और सदस्य भी पब्लिक सर्वेंट की परिभाषा के दायरे में आएंगे.

लोकपाल के दायरे में कौन?

लोकपाल की जांच के दायरे में पीएम भी हैं लेकिन कई मामलों में उन्हें छूट है फोटो- (REUTERS) 

लोकपाल के दायरे में प्रधानमंत्री, मंत्री, सांसद से लेकर केंद्र सरकार के ग्रुप ए,बी,सी और डी के अफसर होंगे. पीएम के खिलाफ लोकपाल खुद इनके खिलाफ भ्रष्टाचार के खिलाफ जांच कर सकता है या करवा सकता है. लेकिन अंतरराष्ट्रीय, आंतरिक और बाहरी सुरक्षा, लोक व्यवस्था (public order) , परमाणु ऊर्जा और अंतरिक्ष से जुड़े मामलों में पीएम के खिलाफ लोकपाल जांच नहीं हो सकती. लोकपाल बेंच के पूर्ण या इसके दो तिहाई सदस्यों के समर्थन के बगैर पीएम की जांच नहीं हो सकती. जांच कैमरे में रिकार्ड होगी और लोकपाल आश्वस्त होता है तो जांच खारिज हो सकती है. जांच के रिकार्ड न तो प्रकाशित होंगे और न सार्वजनिक होंगे.

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2014 के बाद भी लोकपाल नियुक्ति में देरी की वजह ?

मोदी सरकार का कहना था लोकपाल नियुक्त करने के लिए बनने वाली कमेटी में विपक्षी दल के नेता का होना जरूरी है. संसद में विपक्षी दल का दर्जा पाने के लिए दस फीसदी सीटें हासिल करना जरूरी है. कांग्रेस के पास यह संख्या नहीं थी. सरकार का कहना था कि जब तक इस संबंध में कानून में संशोधन नहीं होता. विपक्षी दल के नेता के तौर पर किसी कमेटी में शामिल नहीं किया जा सकता. लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि लोकपाल की नियुक्ति में यह वजह आड़े नहीं आनी चाहिए.

क्या 2016 के संशोधन से लोकपाल कमजोर हो गया है?

अन्ना हजारे और अरविंद केजरीवाल आंदोलन के दौरान दिल्ली के रामलीला मैदान में फोटो : रॉयटर्स 

2016 में लोकपाल कानून में संशोधन किया गया. इसके तहत सार्वजनिक क्षेत्र में उच्च पदों पर बैठे लोगों की ओर से संपत्ति घोषित करने का स्वरूप और तरीका सरकार तय करेगी. इसके तहत पब्लिक सर्वेंट्स के पति या पत्नी या बच्चों को अपनी संपत्ति घोषित नहीं करनी होगी. वैसे भी अंतरराष्ट्रीय, आंतरिक और बाहरी सुरक्षा, लोक व्यवस्था (public order) , परमाणु ऊर्जा और अंतरिक्ष से जुड़े मामलों में पीएम के खिलाफ लोकपाल जांच नहीं हो सकती. नौकरशाहों और सार्वजनिक क्षेत्र में उच्च पदों पर बैठे लोगों की पत्नी या पति की ओर से संपत्ति घोषित न करने की बाध्यता से लोकपाल के कड़े प्रावधान नरम तो हो ही गए हैं.

कुछ ही राज्यों में लोकायुक्त क्यों?

लोकपाल कानून 2013 में एक साल के भीतर राज्यों में उच्च पदों पर भ्रष्टाचार खत्म करने के लिए लोकायुक्त नियुक्त करने के लिए कहा गया था. इस डेडलाइन के खत्म हो जाने के बावजूद अब तक कई राज्यों में लोकायुक्त नहीं हैं. सुप्रीम कोर्ट ने कई राज्यों को लोकायुक्त नियुक्त करने की प्रक्रिया तेज करने को कहा है. लेकिन जम्मू-कश्मीर और उत्तराखंड जैसे राज्यों ने तो इसकी जरूरत पर ही सवाल उठा दिया है.

कुछ राज्यों में लोकपाल से पहले ही लोकायुक्त बन चुके हैं. महाराष्ट्र, राजस्थान, मध्य प्रदेश, राजस्थान, आंध्र और हिमाचल प्रदेश में लोकायुक्त बन चुके हैं. कर्नाटक का लोकायुक्त सबसे प्रभावी माना जाता रहा है. 2011 यहां के लोकायुक्त रहे जस्टिस संतोष हेगड़े की अवैध माइनिंग जमीन घोटाले से जुड़ी एक रिपोर्ट की वजह से सीएम बीएस येदियुरप्पा को इस्तीफा देना पड़ा था.

कई राज्यों में लोकायुक्त को कमजोर कर दिया गया है?

सभी राज्यों में लोक आयुक्तों को एक जैसे अधिकार नहीं हैं. कई राज्यों में इनकी ताकत सीमित कर दी गई है. मसलन महाराष्ट्र में रिश्वतखोरी के मामले की जांच के लिए इसके पास पुलिस विभाग नहीं है. पश्चिम बंगाल में नौकरशाहों के और पुलिस अधिकारियों की नियुक्ति के दायरे से सीएम को निकालने के लिए इस कानून में संशोधन कर दिए गए हैं. कर्नाटक के पूर्व लोक आयुक्त का कहना है कि 2016 में एंटी करप्शन ब्यूरो के गठन की वजह से लोक आयुक्त की ताकत काफी कम हो गई है. संतोष हेगड़े का कहना है कि एंटी करप्शन ब्यूरो का गठन इस शर्त पर किया गया था कि यह उच्च पदों पर बैठे अफसरों और राजनीतिक नेताओं के खिलाफ जांच नहीं करेगा. इसके लिए पहले सरकार से अनुमति लेनी होगी. यह हास्यास्पद है.

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Published: 19 Mar 2019,02:25 PM IST

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