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Article 142 क्या है? जिसका कोर्ट ने राजीव हत्याकांड से ताजमहल केस तक जिक्र किया

भोपाल गैस कांड, अयोध्या राम जन्मभूमि जैसे मुद्दों पर भी सुप्रीम कोर्ट ने Article 142 का जिक्र किया

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<div class="paragraphs"><p>राजीव गांधी हत्याकांड के आरोपी&nbsp;पेरारिवलन को आर्टिकल 142 के तहत मिली रिहाई.</p></div>
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राजीव गांधी हत्याकांड के आरोपी पेरारिवलन को आर्टिकल 142 के तहत मिली रिहाई.

फोटो : अल्टर्ड बाय क्विंट

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सुप्रीम कोर्ट ने संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत प्राप्त शक्तियों का इस्तेमाल करते हुए राजीव गांधी हत्याकांड मामले में सजा काट रहे एजी पेरारिवलन उर्फ ​​अरिवु को रिहा करने का आदेश दिया है. इस मामले में दायर याचिका राज्यपाल और राष्ट्रपति के बीच लंबित रहने पर सर्वोच्च अदालत ने बड़ा कदम उठाते हुए निर्णय लिया है. ऐसे में आइए जानते हैं आखिर अनुच्छेद 142 क्या है जिसके कारण सर्वोच्च अदालत इस तरह के फैसले ले सकती है. इस अनुच्छेद का दायरा कितना है और इससे पहले कोर्ट ने किन अहम मामलों में इस शक्ति का प्रयोग किया है.

पहले एक नजर हालिया मामले पर

11 जून, 1991 को जब एजी पेरारिवलन 19 साल का था तब उसे गिरफ्तार किया गया था. पेरारिवलन पर लिट्टे के शिवरासन के लिए 9-वोल्ट की दो ‘गोल्डन पावर’ बैटरी सेल खरीदने का आरोप था. शिवरासन ने राजीव गांधी की हत्या की साजिश रची थी. जो बैटरी खरीदी गई थी उसका इस्तेमाल उस बम में किया गया था जिससे 21 मई को पूर्व प्रधान मंत्री राजीव गांधी की हत्या हुई थी. टाडा अदालत ने 1998 में पेरारिवलन को मौत की सजा सुनाई थी, 2014 में इस सजा को सुप्रीम कोर्ट ने आजीवन कारावास में बदल दिया था.

2008 में तमिलनाडु कैबिनेट ने पेरारिवलन को रिहा करने का फैसला किया था, लेकिन राज्यपाल ने इस मामले को राष्ट्रपति के पास भेज दिया था. इसके बाद से ही उसकी रिहाई का मामला लंबित था.

2015 में पेरारिवलन ने तमिलनाडु के राज्यपाल को संविधान के अनुच्छेद 161 के तहत रिहाई की मांग करते हुए एक दया याचिका दायर की थी.

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 161 किसी राज्य के राज्यपाल को किसी भी मामले से संबंधित किसी भी कानून के खिलाफ किसी भी अपराध के लिए दोषी व्यक्ति की सजा को क्षमा करने, राहत देने, राहत या सजा में छूट देने या सजा को निलंबित करने या सजा को कम करने की शक्ति प्रदान करता है.

राज्यपाल से कोई जवाब नहीं मिलने के बाद पेरारिवलन ने सुप्रीम कोर्ट की ओर रुख किया. इसके तीन दिन बाद 9 सितंबर 2018 को तत्कालीन मुख्यमंत्री एडप्पादी के पलानीस्वामी की अध्यक्षता में तमिलनाडु मंत्रिमंडल ने पेरारिवलन सहित सभी सात दोषियों को रिहा करने की सिफारिश की थी.

इसके बाद भी राज्यपाल की ओर से जब कुछ नहीं हुआ तब जुलाई 2020 में मद्रास हाई कोर्ट ने उन्हें इस मामले की याद भी दिलाई लेकिन तब भी राज्यपाल की तरफ से कोई प्रतिक्रिया नहीं आई.

नवंबर 2020 में यह मामला सुप्रीम कोर्ट के समक्ष पहुंचा, तब कोर्ट ने पेंडेंसी को लेकर नाराजगी जताई थी. इसके बाद 21 जनवरी 2021 को सॉलिसिटर जनरल ने सुप्रीम कोर्ट को आश्वासन दिया था कि राज्यपाल तीन से चार दिनों में फैसला करेंगे. तब 22 जनवरी 2021 को बेंच ने राज्यपाल से एक सप्ताह के भीतर फैसला करने को कहा था.

जनवरी 2021 में सुप्रीम ने चेतावनी दी कि जरूरत से ज्यादा देरी होने के आधार पर उन्हें दोषी को रिहा करने के लिए मजबूर होना पड़ेगा. इसके बाद राज्यपाल कार्यालय ने फरवरी 2021 में राज्य सरकार की सिफारिश को राष्ट्रपति राम नाथ कोविंद के पास भेज दिया था, तब से यह फाइल राष्ट्रपति भवन के पास पड़ी है. तभी से उसकी रिहाई का मामला लंबित था. लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने 10 मई को मामले की सुनवाई कर फैसला सुरक्षित रख लिया था और अब जस्टिस एल नागेश्वर की बेंच ने आर्टिकल 142 का इस्तेमाल करते हुए पेरारिवलन को रिहा करने का आदेश दिया है.

अब जानते हैं आखिर संविधान के अनुच्छेद 142 में क्या कहा गया है?

भारतीय संविधान के भाग 5 अध्याय 4 में न्यायपालिका के बारे में जिक्र किया गया है. इसी में अनुच्छेद 142 का जिक्र भी है.

संविधान की अनुच्छेद 142 के तहत सुप्रीम कोर्ट किसी मामले में फैसला सुनाते समय संवैधानिक प्रावधानों के दायरे में रहते हुए ऐसा आदेश दे सकता है, जो किसी व्यक्ति को न्याय देने के लिए जरूरी हो.

संविधान का अनुछेद 142 यह बात कही गई है कि अगर सुप्रीम कोर्ट को ऐसा लगता है कि, अन्य संस्था के जरिए कानून और व्यवस्था को बरकरार रखने के लिए किसी तरह का आदेश देने में देरी हो रही है, तो कोर्ट खुद उस मामले में फैसला ले सकता है.

सरल शब्दों में कहें तो अनुच्छेद 142 सुप्रीम कोर्ट का ऐसा साधन है, जिसके माध्यम से जनता को प्रभावित करने वाली महत्त्वपूर्ण नीतियों में वह परिवर्तन कर सकता है. सुप्रीम कोर्ट इस अनुच्छेद का इस्तेमाल विशेष परिस्थितियों में ही कर सकता है और करता है. इसमें पूर्ण न्याय की बात कही गई है. इसमें यह भी कहा गया है कि जब तक किसी अन्य कानून को लागू नहीं किया जाता तब तक सर्वोच्च न्यायालय का आदेश सर्वोपरि है.

संविधान में 2 बिंदुओं में कुछ इस तरह अनुच्छेद 142 को दर्शाया गया है.

(1) उच्चतम न्यायालय अपने अधिकार का प्रयोग करते हुए ऐसा आदेश कर सकेगा जो उसके समक्ष लंबित किसी केस में पूर्ण न्याय करने के लिए आवश्यक हो और इस प्रकार पारित डिक्री या किया गया आदेश भारत के राज्यक्षेत्र में सर्वत्र ऐसी रीति से, जो संसद‌ द्वारा बनाई गई किसी विधि द्वारा या उसके अधीन विहित की जाए, और जब तक इस निमित्त इस प्रकार उपबंध नहीं किया जाता है तब तक, ऐसी रीति से जो राष्ट्रपति के आदेश द्वारा विहित करे, प्रवर्तनीय होगा.
(2) संसद‌ द्वारा इस निमित्त बनाई गई किसी विधि के उपबंधों के अधीन रहते हुए, उच्चतम न्यायालय को भारत के संपूर्ण राज्यक्षेत्र के बारे में किसी व्यक्ति को हाजिर कराने के, किन्हीं दस्तावेजों के प्रकटीकरण या पेश कराने के अथवा अपने किसी अवमान का अन्वेषण करने या दंड देने के प्रयोजन के लिए कोई आदेश करने की समस्त और प्रत्येक शक्ति होगी.

जब अनुछेद 142 को संविधान में शामिल किया गया था तो इसे इसलिये वरीयता दी गई थी क्योंकि सभी का यह मानना था कि इससे देश के विभिन्न वंचित वर्गों अथवा पर्यावरण का संरक्षण करने में सहायता मिलेगी.

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आर्टिकल 142 का दायरा कितना है? इन उदाहरणों से समझिए

संविधान में आर्टिकल 142 के तहत सर्वाेच्च न्यायालय को भले ही शक्तियां प्रदान की गई हैं लेकिन इतने वर्षाें में सुप्रीम कोर्ट ने इसके दायरे और सीमा को भी परिभाषित किया है. ऐसा नहीं है कि एक पक्षीय शक्तियों का इस्तेमाल करते हुए निर्णय ले लिया गया है, इसके आर्टिकल से जुड़े कई अहम मामलों में सात जजों और पांच जजों की बेंच ने फैसला किया है.

आर्टिकल 142 से जुड़े कुछ अहम मामलों की बात करें तो इसमें प्रेमचंद गर्ग बनाम एक्साइज कमिश्नर उत्तर प्रदेश, इलाहाबाद' (1962); 'एआर अंतुले बनाम आरएस नायक और अन्य' (1988); 'यूनियन कार्बाइड कॉर्पोरेशन बनाम भारत संघ' (1991) और 'सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन बनाम भारत संघ' (1998) है. अंतुले वाले मामले का फैसला सात-न्यायाधीशों की पीठ ने किया था जबकि अन्य तीन मामलों का फैसला पांच जजों की बेंच ने किया था.

प्रेमचंद गर्ग बनाम एक्साइज कमिश्नर उत्तर प्रदेश, इलाहाबाद (1962) मामले में पांच जजों की एक संविधान पीठ ने यह साफ कर दिया कि किसी कानून की अनदेखी कर न्यायालय कोई निर्णय नहीं दे सकता है. यानी जहां कानून स्पष्ट है वहां अनुच्छेद 142 का सहारा लेकर कोई और निर्णय नहीं दिया जा सकता. इसमें कहा गया था कि 'एक आदेश जो यह न्यायालय पार्टियों के बीच पूर्ण न्याय करने के लिए कर सकता है, न केवल संविधान द्वारा गारंटी प्राप्त मौलिक अधिकारों के अनुरूप होना चाहिए, बल्कि यह प्रासंगिक वैधानिक कानूनों के मूल प्रावधानों के साथ असंगत भी नहीं हो सकता है. इसलिए, हमें नहीं लगता कि उस आर्ट को अपनाना संभव होगा. 142(1) इस न्यायालय को ऐसी शक्तियां प्रदान करता है जो अनुच्छेद 32 (संवैधानिक उपचारों का अधिकार) के प्रावधानों का उल्लंघन कर सकती है.'

प्रेमचंद गर्ग वाले मामले में अदालत की जो राय थी उसे ही अंतुले वाले मामले भी बहुमत ने माना.

सर्वोच्च न्यायालय ने यूनियन कार्बाइड मामले को भी अनुच्छेद 142 से संबंधित बताया था. इस मामले में न्यायालय ने यह महसूस किया कि गैस के रिसाव से पीड़ित हजारों लोगों के लिये मौजूदा कानून से अलग निर्णय देना होगा. भोपाल गैस आपदा के मुआवजे के रूप में कंपनी को 470 मिलियन डॉलर का भुगतान करने का आदेश देते हुए यह कहा गया था कि अभी पूर्ण न्याय नहीं हुआ है. इसमें दायरे की बात करते हुए कहा गया था कि 'संविधान के अनुच्छेद 142 (1) के तहत इस न्यायालय की शक्तियों के दायरे को छूने वाले तर्कों में कुछ गलतफहमियों को दूर करना आवश्यक है. अनुच्छेद 142 के तहत शक्ति पूरी तरह से अलग स्तर पर और एक अलग गुणवत्ता की हैं.'

न्यायालय के अनुसार, सामान्य कानूनों में शामिल की गई सीमाएं अथवा प्रावधान संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत संवैधानिक शक्तियों के प्रतिबंध और सीमाओं के रूप में कार्य करते हैं. अपने इस कथन से सर्वोच्च न्यायालय ने स्वयं को संसद अथवा विधायिका द्वारा बनाए गए कानून से सर्वोपरि माना था.

‘बार एसोसिएशन बनाम भारत संघ’ मामले में यह कहा गया कि इस अनुच्छेद का उपयोग मौजूदा कानून को प्रतिस्थापित करने के लिए नहीं, बल्कि एक विकल्प के तौर पर किया जा सकता है.

अयोध्या मामले में आर्टिकल 142

2019 में अयोध्या मामले में कोर्ट ने कहा था कि 'अनुच्छेद 142 के तहत कोर्ट की शक्तियां सीमित नहीं हैं. पूर्ण न्याय, समानता और हितों की रक्षा के लिए कोर्ट इस विशेषाधिकार का इस्तेमाल कर सकता है.'

विवादित जमीन पर बाबरी मस्जिद तोड़े जाने की घटना का जिक्र करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि 'हम अनुच्छेद 142 की मदद ले रहे हैं, ताकि जो भी गलत हुआ उसे सुधारा जा सके.' कोर्ट ने कहा था कि 'मस्जिद के ढांचे को जिस तरह हटाया गया था वह एक धर्मनिरपेक्ष देश में कानूनी तौर पर उचित नहीं था. अब अगर कोर्ट मुस्लिम पक्ष के मस्जिद के अधिकार को अनदेखा करता है तो न्याय नहीं हो सकेगा. संविधान हर आस्था को बराबरी का अधिकार देने की बात करता है.' कोर्ट ने कहा कि सबूतों को देखते हुए 2.77 एकड़ विवादित जमीन मंदिर को दी जाती है. लेकिन इसके साथ ही अनुच्छेद 142 का इस्तेमाल करते हुए विवादित क्षेत्र के बाहर अयोध्या में मस्जिद के लिए भी 5 एकड़ जमीन देने का आदेश सुनाया.

निर्मोही अखाड़ा के पक्ष में फैसला सुनाते हुए कोर्ट ने कहा था कि 'विवादित जमीन पर निर्मोही अखाड़ा का ऐतिहासिक अस्तित्व और इस मामले में उनके योगदान को देखते हुए जरूरी है कि कोर्ट अनुच्छेद 142 की मदद ले और पूर्ण न्याय करे. इसलिए हम निर्देश देते हैं कि मंदिर निर्माण योजना तैयार करने में निर्मोही अखाड़ा को प्रबंधन में उचित भूमिका निभाने का मौका दिया जाए.'

यहां भी हुआ है आर्टिकल 142 का प्रयोग

  • पिछले साल (2021 में) सुप्रीम कोर्ट ने अनुच्छेद 142 के तहत मिले विशेषाधिकारों का इस्तेमाल करते हुए आईआईटी-बॉम्बे को एक दलित छात्र को दाखिला देने का आदेश दिया था. कोर्ट ने आदेश में कहा था कि छात्र को अगले 48 घंटों के अंदर दाखिला दिया जाए.

  • सर्वोच्च न्यायालय ने संविधान के अनुच्छेद 142 का उपयोग करते हुए मणिपुर के एक मंत्री को राज्य मंत्रिमंडल से हटा दिया था. वर्ष 2017 में उक्त मंत्री चुनाव जीतने के बाद दूसरे दल में शामिल हो गया था.

  • सर्वोच्च न्यायालय ने संविधान के अनुच्छेद 142 का जिक्र करते हुए राजमार्गों से 500 मीटर की दूरी तक स्थित शराब की दुकानों पर प्रतिबंध लगाया था.

  • अनुच्छेद 142 का उपयोग ताजमहल के सफेद संगमरमर को उसी रूप में लाने किया गया था.

  • 2013 के इंडियन प्रीमियर लीग (आईपीएल ) स्पॉट फिक्सिंग घोटाले की जांच के लिए न्यायमूर्ति मुकुल मुद्गल समिति का गठन करने के लिए अनुच्छेद 142 का उपयोग किया गया.

  • 2014 में अनुच्छेद 142 प्रावधान का उपयोग 1993 के बाद किये गए कोयला ब्लॉकों के आवंटन को रद्द करने के लिए किया गया था.

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