advertisement
बंदी अधिनियम 1920 को बदलने के लिए लोकसभा में पेश आपराधिक प्रक्रिया (पहचान) विधेयक/ Criminal Procedure Identification Bill 2022 बुधवार, 6 अप्रैल को पारित हो गया . बंदी अधिनियम इस बात के लिए अधिकृत करता है कि व्यक्तियों की पहचान से संबंधित जानकारी जुटाई जाए (खासकर किसी दोषी के गुनाह की जांच के लिए), मौजूदा बिल से जानकारी जुटाने का दायरा बढ़ जाएगा. बिल नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो को भी 75 साल तक डाटा लेने, संग्रह और संरक्षित करने की अनुमति देता है.
इस बिल के आने के बाद से कानूनी विशेषज्ञों और कार्यकर्ताओं ने इसके प्रावधानों को देखते हुए प्राइवेसी से जुड़ी कई चिंताओं को उठाया है. ये बिल के नीचे बताए पहलुओं से काफी हद तक संबंधित हैं:
पहचान चिन्हों का विस्तार
डेटा लेने की श्रेणियों में विस्तार
NCRB के साथ मिलकर डाटा संग्रह और सुरक्षा
द क्विंट से इंटरनेट फ्रीडम फाउंडेशन (IFF) के वकील और कार्यकारी निदेशक, अपार गुप्ता ने कहा:
मौजूदा स्वरूप में बिल प्राइवेसी के मौलिक अधिकार का उल्लंघन होगा. जस्टिस पुट्टुस्वामी (निजता का अधिकार) निर्णय के तहत लोगों को प्राइवेसी का अधिकार मिला था. इसमें साफ बताया गया था कि प्राइवेसी में दखल देने से पहले इसका मकसद बताना पड़ेगा. प्राइवेसी की सुरक्षा का इंतजाम करने की बात भी कही गई थी.
न्यायमूर्ति केएस पुट्टस्वामी (सेवानिवृत्त) & Anr बनाम भारत संघ मामले में सुप्रीम कोर्ट ने 2017 में कहा था कि भारत का संविधान प्रत्येक व्यक्ति को प्राइवेसी का मौलिक अधिकार की गारंटी देता है. लेकिन आपराधिक प्रक्रिया (पहचान) विधेयक 2022 से जुड़ी चिंताओं को गहराई से देखने से पहले यह समझना महत्वपूर्ण है कि कैसा डाटा लिया जा सकता है और किससे लिया जा सकता है.
पुराना बंदी अधिनियम के तहत जानकारी लेने के लिए उंगलियों और पैरों के निशान लेने की इजाजत है लेकिन नए बिल के तहत अब नीचे बताई पहुलओं का डाटा लेने का अधिकार मिलेगा.
हथेली की छाप
आईरिस और रेटिना स्कैन
हस्ताक्षर और लिखावट
शारीरिक और बायोलॉजिकल नमूने, जैसे रक्त, वीर्य, बालों के नमूने और स्वाब
ये जानकारियां किसी भी ऐसे व्यक्ति से ली जा सकती है जो
किसी अपराध के संबंध में गिरफ्तार या किसी निवारक निरोध कानून के तहत हिरासत में लिया गया हो
दंड प्रक्रिया संहिता की संबंधित धाराओं के तहत व्यवहार या शांति बनाए रखने के लिए सुरक्षा देने का आदेश दिया गया हो
यह ध्यान देना जरूरी है पुराने अधिनियम में पहले की दो कैटेगरी वालों को कवर किया गया था, तीसरी कैटेगरी को नए बिल में शामिल किया गया है.
प्राइवेसी का अधिकार और 'अतिरिक्त कानूनी अधिकार’ (Excessive Delegated Legislation}' वकील और सिविक इंगेजमेंट इनीशिएटिव की संस्थापक मानसी वर्मा बताती हैं, पुटुस्वामी फैसला कहता है कि कोई भी कानून जो प्राइवेसी के अधिकार को नुकसान पहुंचा सकता है, उसे तय नियम कायदे से चलने होंगे. इसलिए तो किसी कानून की जरूरत और किस हद तक वो जरूरी है उसका ख्याल रखा जाना चाहिए. आखिर ऐसे कानून की क्या जरूरत है ? क्यों ऐसा कानून बनाना जिससे प्राइवेसी के अधिकार का हनन हो ? क्या निष्पक्ष रहकर अपना लक्ष्य हासिल किया जा सकता है ?
वर्मा ने आगे कहा, "अगर हम उस नजरिए से बिल को देखें, तो ऐसा लगता है कि उनमें से बहुत सारी जरूरी शर्तों को पूरा नहीं किया गया है" उदाहरण के लिए, गुनाह साबित करने का दर बढ़ने के बारे में भ्रमित करने वाले बयान हैं. ऐसा लगता है कि गुनाह नहीं साबित होने का एक मात्र कारण यह है कि हमारे पास उन तक पहुंचने का उपाय नहीं है.
मानसी वर्मा बताती हैं - लेकिन शायद ऐसा नहीं है. एक आपराधिक मुकदमे में, कई कारणों से सजा की दर कम हो सकती है. ऐसा कोई शोध नहीं है जिसे सरकार यह साबित करने के लिए बता सकती है कि सजा की दर कम है क्योंकि अथॉरिटी के पास उनके मेजरमेंट नहीं है. इसलिए सबूत जुटाने और सजा दर बढ़ाने की बात अटपटी है. इसलिए इस कानून की जरूरत का कोई सॉलिड ग्राउंड नहीं बनता है.
चूंकि बिल का लक्ष्य बहुत साफ नहीं है, प्राइवेसी का उल्लंघन किस हद तक होगा और क्या इससे उस लक्ष्य को हासिल करने में मदद मिलेगी , इसे भी बिल में ठीक से बताया नहीं गया है.
बिल में इस्तेमाल भाषा के बारे में मानसी कहती हैं- बिल बहुत से पहलुओं के बारे में कुछ नहीं बताता और शायद सफाई बाद में आए . लेकिन मानसी कहती है कि ये लगभग वैसी ही होगा जिसे कोर्ट हमेशा ‘अतिरिक्त कानून’ बताती है और इसलिए ये गैरसंवैधानिक हो जाएगा. लेकिन इस अतिरिक्त या ज्यादा कानून का हकीकत में मतलब क्या है .
इसे यूं समझा जा सकता है कि संसद जो कानून बनाकर पास करती है तो उसके कई अहम पहलुओं को कार्यपालिका या नौकरशाही के हवाले छोड़ देती है. फिर नौकरशाही या कार्यपालिका जो एक्शन लेती है, उनके ड्राफ्ट को कानूनी मान लिया जाता है. लेकिन ऐसा करना बहुत बड़ी समस्या बन जाती है क्योंकि ऐसे नियमों को संसद के समक्ष रखने की आवश्यकता नहीं होती है, और इसलिए ये बहस और चर्चा और जांच के अधीन नहीं होते हैं.
इंटरनेशनल फ्रीडम फाउंडेशन का कहना है कि नया कानून अपराधी की पहचान से आगे ‘खतरनाक विस्तार’ जैसा है.
गुनाह करने वाला और गुनाहगार को कानून स्थापित करने में . आगे इंटरनेट फ्रीडम फाउंडेशन का कहना है "यह प्राइवेसी का खतरनाक उल्लंघन है क्योंकि इसमें बहुत कम सुरक्षा उपाय हैं,"
वर्मा ने सुझाव दिया कि अगर कुछ अंतर्निहित सुरक्षा उपाय होते तो प्राइवेसी के अधिकार के संभावित उल्लंघन से बचा जा सकता था:
इस बीच, "मेजरमेंट " से " पहचान की विशिष्टताओं का जो विस्तार किया गया है वो चिंताजनक है. अपार गुप्ता कहते हैं:
"यह सिर्फ पहचान का मामला नहीं है, ये उससे परे है, एक अपराधी को पकड़ने के लिए जो डेटा लिए जाते हैं उसका अब विस्तार हो जाएगा "
यह देखते हुए कि कानूनन "एक वर्ष से अधिक का सजायाफ्ता अपराधी या अंडर ट्रायल कैदी जो जमानत पर रिहा है उससे डाटा लिया जा सकता है. बिल के मुताबिक " पुलिस अधिकारी अपने हिसाब से गिरफ्तार व्यक्ति से सभी जानकारी मांग सकता है. वो कोई भी मेजरमेंट उनका ले सकता है.
नए प्रावधान में, पुराने कानून का विस्तार कर इसे किसी भी अपराध में गिरफ्तार शख्स तक कर दिया गया है और उस शख्स की पहचान से जुड़ी जानकारी ली जा सकती है. इसलिए, यह सभी अपराधों पर लागू होगा, यहां तक कि छोटे-मोटे अपराध जैसे मास्क नहीं पहनने, निषेध आज्ञा को तोड़कर बाहर घूमने निकलने या फिर ट्रैफिक नियमों का उल्लंघन में. अपार गुप्ता ने आगे कहा, इस खंड के एक प्रावधान को पढ़ने के बाद जो समझ में आता है वो ये है कि सब कुछ पुलिस अधिकारी के विवेक पर छोड़ दिया गया है.
इस बीच, इंटरनेट फ्रीडम फाउंडेशन ने भी एक ट्वीट में लिखा है कि अभी बिल से समझ नहीं आ रहा है कि जो बायोलॉजिकल डाटा लिए जाएगा उसमें DNA भी शामिल है या नहीं.
डीएनए टेक्नोलॉजी रेगुलेशन बिल 2018 के तहत आपराधिक जांच में डीएनए के इस्तेमाल पर भी डिजिटल आजादी और अधिकार पर काम करने वाले गैर सरकारी संगठनों ने अपने अपने हिसाब से सवाल उठाए हैं
IFF के अनुसार, संभावित रूप से सबसे अधिक चिंता जो इस प्रावधान पर डाटा जुटाने को लेकर है वो है क्लॉज 4. इसके तहत ये अधिकार एनसीआरबी (राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो) को दिया जाएगा. एनसीआरबी अब तक केंद्रीय गृह मंत्रालय के नियंत्रण में है. मानसी वर्मा का मानना है कि इस तरह से डाटा जुटाए जाने पर संघीय ढांचे पर सवाल भी खड़े हो सकते हैं.
जब MoS अजय मिश्रा टेनी बिल पर बहस का जवाब दे रहे थे, उन्होंने कहा कि उन्होंने राज्य के साथ विस्तार से बातचीत की है, और उन्होंने राज्य सरकारों को इसके तहत कुछ नियम बनाने के लिए शक्ति दी है. लेकिन ऐसा लगता है कि बिल में कामकाज केंद्रीकृत कर दिया गया है. संविधान के हिसाब से पुलिस राज्य का मामला है लेकिन बिल उसका उल्लंघन कर एनसीआरबी को जानकारी एकत्र करने, संग्रहीत करने, और प्रसारित करने की शक्ति दे देता है.
भले ही केंद्र ने कहा है कि राज्य सरकार अपनी पसंद की एजेंसी के माध्यम से इसी तरह की गतिविधियों को अंजाम दे सकती है, बिल यकीनन कई मायनों में राज्यों के अधिकार क्षेत्र में हस्तक्षेप करने जैसा है. लेकिन यह महत्वपूर्ण क्यों है?
मानसी वर्मा कहती हैं- भले ही यह एक पॉलिटिकल प्वाइंट ज्यादा लगे, तथ्य यह है कि यदि, राज्य स्तर पर, आपको लगता है कि अधिकारियों (जैसे स्थानीय पुलिस) ने आपके अधिकारों का उल्लंघन किया है, तो आपके पास अलग-अलग सेफगार्ड मौजूद हैं. स्थानीय अदालतों या फिर राज्य के हाईकोर्ट से संपर्क करके आप उन सेफगार्ड का इस्तेमाल कर सकते हैं.
वर्मा ने कहा, सब कुछ केंद्रीकृत होने पर केंद्रीय एजेंसियां अपना काम कैसे कर रही हैं, उनकी पारदर्शिता के बारे में जानकारी जुटाना बहुत मुश्किल हो जाएगा. किसी व्यक्ति के पास न तो इतनी जानकारी उपलब्ध होगी और ना ही उनके पास पहुंच होगी. इस प्रकार, जब प्रक्रिया केंद्रीकृत हो जाती है, तो कानूनी बचाव के उपाय व्यक्तियों के हाथ से दूर हो जाएंगे.
विशेषज्ञों के साथ हमारी बातचीत से जो दो अत्यधिक चिंताएँ उभरती हैं, वे हैं बिल में साफगोई का ना होना और प्राइवेसी के अधिकार का संभावित उल्लंघन.
जाहिर है, ये दोनों चिंताएं भी आपस में जुड़ी हुई हैं. यदि विधेयक की भाषा को अधिक साफ किया जाए, विशेषताओं को अधिक परिभाषित किया जाए, सुरक्षा उपायों को प्रमुखता से बताया जाए, तो प्राइवेसी संबंधी चिंताएं कम हो सकती हैं.
IFF ने आपराधिक प्रक्रिया (पहचान) विधेयक 2022 पर उठाई गई ‘अत्यधिक चिंताओं’ की जांच के लिए बिल को स्थायी समिति में भेजने का अनुरोध किया है. यह विशेष रूप से सुप्रीम कोर्ट के पुट्टस्वामी ( प्राइवेसी का अधिकार) निर्णय (एसआईसी) के पालन को सुनिश्चित कराने के लिए है.
संसद की स्थायी समिति में बिल को भेजे जाने की जरूरत का का समर्थन करते हुए, IFF के कार्यकारी निदेशक ने द क्विंट को बताया, कि सदन में एक बहस के दौरान आपत्ति होने पर डीएनए उपयोग और प्रौद्योगिकी के नियमन विधेयक को भी स्थायी समिति को भेजा गया था.
गुप्ता ने कहा, मैं कहूंगा कि आदर्श कदम तो ये होगा कि बिल को वापस लिए जाए, क्योंकि इस बिल के बारे में लोगों से सलाह मशविरा नहीं किया गया है. गुप्ता ने यह भी कहा, लेकिन इसे कम से कम एक स्थायी समिति को जरूर भेजा जाना चाहिए.
मानसी वर्मा ने अपनी ओर से सुझाव दिया कि बिल में भाषा की सफाई नहीं रहने से बिल राज्य और नागरिक के बीच में राज्य की तरफ ज्यादा झुकाव वाला होगा. मानसी वर्मा कहती हैं
"मेरे अनुभव से, एक आपराधिक कानून में अस्पष्ट भाषा लगभग हमेशा राज्य को फायदा पहुंचाती है,"
"आमतौर पर, अस्पष्ट भाषा के मामले में, राज्य अपनी शक्तियों के विस्तार का फायदा तब तक उठा सकता है, जब तक कि कोई व्यक्ति इस मामले को अदालतों में नहीं ले जाता।"
"चूंकि अब सरकार ने विधेयक पेश कर दिया है, तो ऐसा नहीं लगता कि यह इसे पूरी तरह से वापस लेने के लिए तैयार होगी. इसलिए, एक व्यावहारिक और बीच का रास्ता यह होगा कि इसे संसद की समिति को भेजा जाए. समिति इसका अध्ययन और समीक्षा करेगी और अलग अलग स्टेकहोल्डरों से बात कर कुछ सुधारों की सिफारिश कर सकती है और बिल को संविधान के मुताबिक बनाने में अपना राय दे सकती है. "
(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)