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Katchatheevu पर नेहरू और इंदिरा सरकार का क्या रुख था, RTI से क्या पता चला?

Katchatheevu Dispute: प्रधानमंत्री मोदी ने कच्चाथीवू को लेकर कांग्रेस पर निशाना साधा, जिसके बाद ये मुद्दा गर्मा गया.

मोहन कुमार
कुंजी
Published:
<div class="paragraphs"><p>कच्चाथीवू विवाद क्या है? RTI में क्या बातें सामने आई हैं?</p></div>
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कच्चाथीवू विवाद क्या है? RTI में क्या बातें सामने आई हैं?

(फोटो: क्विंट हिंदी/मोहन कुमार)

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कच्चाथीवू (Katchatheevu) दक्षिण भारत में रामेश्वरम के पास स्थित एक द्वीप है, जो एक बार फिर सुर्खियों में है. प्रधानमंत्री मोदी (PM Modi) ने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म X पर एक RTI का हवाला देते हुए अपने पोस्ट में कहा कि "नए तथ्यों से पता चलता है" कि कांग्रेस ने "बेरहमी" से इस द्वीप को श्रीलंका को सौंप दिया.

टाइम्स ऑफ इंडिया की रिपोर्ट के अनुसार, प्रधानमंत्री की ये पोस्ट तमिलनाडु बीजेपी प्रमुख के. अन्नामलाई द्वारा RTI से प्राप्त दस्तावेजों के बाद आई है, जिससे यह संकेत मिलता है कि कांग्रेस ने कभी भी छोटे, निर्जन द्वीप को ज्यादा महत्व नहीं दिया.

चलिए आपको बताते हैं कि कच्चाथीवू को लेकर भारत और श्रीलंका के बीच क्या विवाद रहा है? पीएम मोदी ने कांग्रेस पर क्या आरोप लगाए हैं? कांग्रेस ने इसपर क्या कहा है? वहीं RTI में क्या बातें सामने आई हैं?

कच्चाथीवू द्वीप कहां है?

कच्चाथीवू भारत और श्रीलंका के बीच पाल्क स्ट्रेट (Palk Strait) में 285 एकड़ का एक निर्जन द्वीप है. इसकी लंबाई करीब 1.6 किलोमीटर है और यह 300 मीटर से थोड़ा अधिक चौड़ा है. ऐसा माना जाता है कि इस द्वीप का निर्माण 14वीं शताब्दी में ज्वालामुखी विस्फोट के बाद हुआ था.

यह रामेश्वरम के उत्तर-पूर्व में भारतीय तट से लगभग 33 किमी दूर स्थित है. श्रीलंका के उत्तरी सिरे पर यह द्वीप जाफना से लगभग 62 किमी दक्षिण-पश्चिम में और डेल्फ्ट द्वीप से 24 किमी दूर है.

कच्चाथीवू द्वीप का मैप

(फोटो: गूगल मैप)

आईलैंड पर 20वीं सदी में निर्मित एक कैथोलिक सेंट एंथोनी चर्च है. वार्षिक उत्सव के दौरान भारत और श्रीलंका दोनों देशों के लोग यहां जुटते हैं. 2023 में त्योहार मानने के लिए भारत के करीब 2,500 लोग रामेश्वरम से कच्चाथीवू गए थे.

कच्चाथीवू स्थायी रूप से रहने के लिए उपयुक्त नहीं है क्योंकि द्वीप पर पीने के पानी का कोई स्रोत नहीं है.

द्वीप का इतिहास क्या है?

इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के मुताबिक, प्रारंभिक मध्ययुगीन काल में इस पर श्रीलंका के जाफना साम्राज्य का नियंत्रण था. 17वीं शताब्दी में नियंत्रण रामनद जमींदारी के हाथ में चला गया, जो रामनाथपुरम से लगभग 55 किमी उत्तर-पश्चिम में स्थित थी. ब्रिटिश राज के दौरान यह मद्रास प्रेसीडेंसी का हिस्सा बन गया.

भारत और श्रीलंका के बीच विवाद दोनों देशों के आजाद होने के बाद भी जारी रहा.

RTI में क्या सामने आया है?

तमिलनाडु BJP चीफ के.अन्नामलाई ने कच्चाथीवू के बारे में जानकारी को लेकर RTI दायर की थी. विदेश मंत्रालय ने दो जानकारियां दी हैं:

  • अनौपचारिक सलाहकार समिति की बैठक के लिए विदेश मंत्रालय का सारांश पृष्ठभूमि नोट (मार्च 1968)

  • जून 1974 में तत्कालीन विदेश सचिव और तमिलनाडु के तत्कालीन मुख्यमंत्री के बीच बैठक की चर्चा का रिकॉर्ड

RTI दस्तावेज के मुताबिक, द्वीप की राजनीतिक स्थिति को लेकर 50 सालों से अधिक समय से विवाद रहा है. यह द्वीप रामनद के राजा की जमीन-जायदाद का हिस्सा थी. मद्रास सरकार ने राजा की पूरी संपत्ति अपने कब्जे में ले ली और राज्य सरकार का दावा है कि यह द्वीप मद्रास राज्य का हिस्सा थी.

द्वीप के स्वामित्व का मुद्दा पहली बार साल 1921 उठा था. दरअसल, तब मछली पकड़ने को लेकर दोनों देशों में विवाद चल रहा था. इस मुद्दे को सुलझाने के लिए भारत के प्रतिनिधि (मद्रास सरकार के प्रतिनिधियों सहित) और सीलोन (अब श्रीलंका) के प्रतिनिधियों का सम्मेलन आयोजित हुआ था.

सीलोन (श्रीलंका) ने आजादी के ठीक बाद कच्चाथीवू पर अपना दावा जताते हुए कहा कि भारतीय नौसेना (तब रॉयल इंडियन नेवी) उसकी अनुमति के बिना द्वीप पर अभ्यास नहीं कर सकती. वहीं अक्टूबर 1955 में सीलोन वायु सेना ने भारत सरकार के किसी भी विरोध के बिना, द्वीप पर अभ्यास आयोजित किया. दूसरी ओर, 1949 में नौसैनिक अभ्यास के लिए इस द्वीप का उपयोग करने की भारतीय इच्छा को सीलोन द्वारा चुनौती दी गई थी.

वहीं 10 मई, 1961 को प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने एक फाइल नोटिंग में द्वीप के विवाद से जुड़े मुद्दे को महत्वहीन बताते हुए खारिज कर दिया.

"मैं इस छोटे से द्वीप को बिल्कुल भी महत्व नहीं देता और इस पर अपना दावा छोड़ने में मुझे कोई झिझक नहीं होगी. मुझे इस तरह के मामले का अनिश्चित काल तक लंबित रहना और संसद में बार-बार उठाया जाना पसंद नहीं है."
विदेश मंत्रालय द्वारा मुहैया करवाए गए RTI दस्तावेज के हवाले से

RTI दस्तावेज

क्विंट हिंदी द्वारा प्राप्त

नेहरू की टिप्पणियां उस समय विदेश मंत्रालय के राष्ट्रमंडल सचिव वाईडी गुंडेविया द्वारा तैयार किए गए एक नोट का हिस्सा थीं.

अंतरराष्ट्रीय कानूनों को लेकर 1960 में विदेश मंत्रालय में संयुक्त सचिव (कानून और संधियां) के कृष्णा राव ने एक नोट में कहा था, "भारत के पास एक अच्छा कानूनी मामला है, जिस पर काफी मजबूती से बहस की जा सकती है. द्वीप के आसपास मछली पकड़ने के अधिकार प्राप्त करने के लिए हमारे कानूनी मामले का उपयोग किया जा सकता है."

वहीं अटॉर्नी जनरल एमसी सीतलवाड ने 1958 में कहा था कि, "द्वीप की संप्रभुता भारत में थी और है."
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कच्चाथीवू को लेकर भारत और श्रीलंका के क्या-क्या दावे थे?

अक्टूबर 1973 में कोलंबो में हुई बैठक में कच्चाथीवू की संप्रभुता पर दोनों पक्षों की ओर से चर्चा हुई. इस वार्ता के दौरान भारत ने लंदन, हेग, गोवा और तमिलनाडु (मद्रास और रामनाथपुरम) स्थित अलग-अलग रिकॉर्ड ऑफिसों से जुटाए गए साक्ष्यों के आधार पर अपना मजबूत पक्ष रखा.

RTI दस्तावेजों के मुताबिक, भारतीय का पक्ष मुख्य रूप से रामनद के राजा के दावों पर आधारित था कि कच्चाथीवू द्वीप प्राचीन काल से उनका था और 1803 में ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा दी गई जमींदारी का हिस्सा था.

दस्तावेजों में आगे कहा गया है कि संपत्ति उन्मूलन अधिनियम-1948 (Estate Abolition Act-1948) के तहत साल 1949 में रामनाद एस्टेट मद्रास सरकार के अधीन आ गया था. मद्रास सरकार ने 1949, 1965 और 1967 में लीज रिन्यू किया.

इसके साथ ही भारत ने इस ओर भी इशारा किया कि ऐतिहासिक दृष्टि से भी कच्चाथीवू पर श्रीलंका के मालिकाना हक का कोई लिखित सबूत नहीं है. 16वीं और 17वीं शताब्दी के डच और पुर्तगाली मानचित्रों में भी कच्चाथीवू के सीलोन से संबंध होने का कोई प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं मिलता है.

हालांकि, श्रीलंकाई पक्ष ने कच्चाथीवू की संप्रभुता के सवाल पर बहुत दृढ़ रुख अपनाया. श्रीलंका ने 1658 के रिकॉर्ड्स का हवाला दिया जिसमें इस द्वीप को जाफरापट्टनम राज्य का हिस्सा बताया गया था. इसके अलावा डच और ब्रिटिश मानचित्रों में भी कच्चाथीवू को श्रीलंका के हिस्से के रूप में दर्शाया गया था.

RTI के मुताबिक, इस बात को तब और बल मिला जब भारत सरकार ने कई अवसरों पर यह स्वीकार किया कि यह द्वीप सीलोन का है. भारत की ओर से बिना किसी चुनौती या विरोध के सीलोन का द्वीप पर क्षेत्राधिकार 1924 से कमोबेश निरंतर जारी रहा.

सीलोन ने 1944 में कच्चाथीवू के संबंध में एक कानून बनाया और इस द्वीप पर नौसेना बमबारी रेंज स्थापित किया. इसको 1950-51 में रिन्यू किया गया था और सीलोन सरकार ने दावा किया था कि "भारत सरकार की जानकारी के अनुसार इस सीमा का उपयोग तब से जारी है".

इंदिरा सरकार में क्या हुआ?

1973 में कोलंबो में विदेश सचिव स्तर की वार्ता के एक साल बाद, जून 1974 में विदेश सचिव केवल सिंह द्वारा भारत के दावे को छोड़ने के निर्णय की जानकारी तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम करुणानिधि को दी गई.

विदेश सचिव ने तमिलनाडु के मुख्यमंत्री को बताया कि सीलोन की तुलना में कच्चाथीवू पर भारत का दावा कमजोर है.

"रामनद के राजा ने दावा किया था कि यह द्वीप प्राचीन काल से उनका है, लेकिन ऐसा कोई दस्तावेज नहीं है जो द्वीप पर उनका मूल स्वामित्व स्थापित करता हो. ऐसा कोई नक्शा नहीं है जिसमें इस द्वीप को भारत का हिस्सा दिखाया गया हो."

दूसरी ओर, श्रीलंका प्रत्यक्ष साक्ष्यों के आधार पर यह स्थापित करने में सफल रहा था कि कच्चाथीवू सीलोन क्षेत्र का हिस्सा था. श्रीलंका ने जून 1974 तक कच्चाथीवू विवाद का समाधान करने पर जोर दिया था.

इस स्तर पर मुख्यमंत्री जानना चाहते थे कि क्या इस मुद्दे को अगले दो सालों तक लंबित नहीं रखा जा सकता है. जिसपर विदेश सचिव ने कुछ घरेलू और बाहरी मजबूरियों की ओर इशारा किया था. विदेश सचिव ने कहा था कि भारत को इस क्षेत्र में तेल संरचनाएं मिली है, जिसके बार में श्रीलंका को कोई सूचना नहीं है. इसके साथ ही विदेश सचिव ने श्रीलंका में एक बहुत मजबूत चीनी समर्थक लॉबी की मौजूदगी की ओर भी इशारा किया था, जो इस मुद्दे को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उठा सकता था.

इसके साथ ही मुख्यमंत्री जानना चाहते थे कि क्या प्रधानमंत्री ने इस मुद्दे को लेकर विपक्ष से बात की है. विदेश सचिव ने कहा, उनकी जानकारी में इस प्रस्ताव के बारे में केवल एक या दो वरिष्ठ कैबिनेट मंत्रियों को ही जानकारी थी और संभवत: प्रधानमंत्री विपक्षी नेताओं के साथ इस पर चर्चा करने से पहले तमिलनाडु के मुख्यमंत्री की राय जानना चाहती थीं.

RTI दस्तावेजों से यह भी पता चलता है कि करुणानिधि ने इस समझौते के विरोध की आशंका जताई थी और कहा था कि इसे बढ़ने नहीं देंगे.HE

“मुख्यमंत्री ने सुझाए गए समाधान के प्रति अपनी सामान्य स्वीकृति का संकेत देते हुए कहा कि स्पष्ट राजनीतिक कारणों से उनसे इसके पक्ष में सार्वजनिक रुख अपनाने की उम्मीद नहीं की जा सकती. हालांकि, मुख्यमंत्री ने विदेश सचिव को आश्वासन दिया कि वह प्रतिक्रिया को कम रखने में मदद करेंगे और इसे बढ़ा-चढ़ाकर पेश नहीं करने देंगे."
"विदेश सचिव ने इस बात की सराहना की और जोर दिया कि केंद्र सरकार को शर्मिंदा करने या मामले को केंद्र और राज्य के बीच के मुद्दे में बदलने के लिए कुछ भी नहीं किया जाना चाहिए."

26-28 जून, 1974 के दौरान भारत और श्रीलंका के तत्कालीन प्रधानमंत्रियों, इंदिरा गांधी और आर.डी. भंडारनायके ने पाल्क स्ट्रेट (Palk Strait) से एडम ब्रिज तक के ऐतिहासिक जल में दोनों देशों के बीच सीमा के सीमांकन के लिए एक समझौते पर हस्ताक्षर किए.

28 जून, 1974 को जारी एक संयुक्त बयान में कहा गया कि सीमा को "ऐतिहासिक साक्ष्य, कानूनी अंतरराष्ट्रीय सिद्धांतों और मिसालों के अनुरूप" परिभाषित किया गया है. इसमें यह भी बताया गया कि "यह सीमा निर्जन कच्चाथीवू के पश्चिमी तट से एक मील दूर पड़ती है."

1974 के समझौते के मुताबिक, भारतीय मछुआरे कच्चाथीवू द्वीप पर आ-जा सकते थे. हालांकि, मार्च 1976 में हुए समझौते के बाद एक-दूसरे के विशेष आर्थिक क्षेत्र में मछली पकड़ने से रोक लग गई.

TOI की रिपोर्ट के मुताबिक, वांडीवाश के सदस्य जी विश्वनाथन ने प्रधानमंत्री पर आरोप लगाया कि उन्होंने उदारतापूर्वक कच्चाथीवू श्रीलंका सरकार को सौंप दिया. उन्होंने यह भी आरोप लगाया कि "द्वीप को सौंपने से पहले न तो राज्य सरकार से परामर्श किया गया और न ही संसद को विश्वास में लिया गया".

तमिलनाडु सरकार का क्या रुख है?

साल 1991 में तमिलनाडु विधानसभा द्वारा एक प्रस्ताव अपनाया गया जिसमें कच्चाथीवू द्वीप को पुनः प्राप्त करने की मांग की गई. तब से कच्चाथीवू का मुद्दा बार-बार तमिल राजनीति में उठता रहा है.

2008 में तत्कालीन AIADMK सुप्रीमो जे जयललिता ने अदालत में एक याचिका दायर की थी जिसमें कहा गया था कि संवैधानिक संशोधन के बिना कच्चाथीवू को किसी अन्य देश को नहीं सौंपा जा सकता है. याचिका में तर्क दिया गया कि 1974 के समझौते ने भारतीय मछुआरों के पारंपरिक मछली पकड़ने के अधिकार और आजीविका को प्रभावित किया है.

2011 में मुख्यमंत्री बनने के बाद, उन्होंने राज्य विधानसभा में एक प्रस्ताव पेश किया और 2012 में श्रीलंका द्वारा भारतीय मछुआरों की बढ़ती गिरफ्तारियों के मद्देनजर अपनी याचिका में तेजी लाने के लिए सुप्रीम कोर्ट गईं.

पिछले साल तमिलनाडु के मुख्यमंत्री और डीएमके नेता एमके स्टालिन ने श्रीलंका के प्रधानमंत्री रानिल विक्रमसिंघे की भारत यात्रा से पहले पीएम मोदी को एक पत्र लिखा था, जिसमें पीएम से कच्चाथीवू के मामले सहित प्रमुख मुद्दों पर चर्चा करने के लिए कहा गया था.

पत्र में 1974 में तमिलनाडु सरकार के विरोध का जिक्र करते हुए कहा गया था, "केंद्र सरकार द्वारा, राज्य सरकार की सहमति के बिना, कच्चाथीवू को श्रीलंका को सौंपने से तमिलनाडु के मछुआरों के अधिकार छिन गए हैं और उनकी आजीविका पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है."

इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के मुताबिक, तत्कालीन अटॉर्नी जनरल मुकुल रोहतगी ने 2014 में सुप्रीम कोर्ट को बताया था: “कच्चाथीवू 1974 में एक समझौते के तहत श्रीलंका को सौंपा गया था… आज इसे वापस कैसे लिया जा सकता है? अगर कच्चाथीवू को वापस लाना है तो इसके लिए युद्ध करना होगा."

कच्चाथीवू से जुड़ा ताजा मुद्दा क्या है?

दरअसल, प्रधानमंत्री मोदी ने कच्चाथीवू पर TOI की रिपोर्ट का हवाला देते हुए कहा, "भारत की एकता, अखंडता और हितों को कमजोर करना 75 सालों से कांग्रेस के काम करने के तरीके में शामिल रहा है."

लोकसभा चुनाव को ध्यान में रखते हुए प्रधानमंत्री मोदी के इस बयान के बाद सियासत गर्मा गई. दरअसल, तमिलनाडु में कच्चाथीवू लंबे समय से चुनावी मुद्दा रहा है.

वहीं विदेश मंत्री एस जयशंकर ने सोमवार को कांग्रेस और DMK पर निशाना साधते हुए कहा कि इन पार्टियों ने कच्चाथीवू मुद्दे को ऐसे उठाया जैसे कि उनकी कोई जिम्मेदारी ही नहीं थी. दिल्ली में एक संवाददाता सम्मेलन को संबोधित करते हुए जयशंकर ने कहा, "हम जानते हैं कि यह किसने किया, हम नहीं जानते कि इसे किसने छिपाया."

कच्चाथीवू द्वीप के मुद्दे पर केंद्र पर पलटवार करते हुए कांग्रेस नेताओं ने सोमवार को 2015 के एक RTI का हवाला दिया, जिसमें कहा गया था कि 1974 और 1976 के समझौतों में भारत से संबंधित क्षेत्र का अधिग्रहण या उसे छोड़ना शामिल नहीं था. इसके साथ ही पूछा कि मोदी सरकार के रुख में "बदलाव" क्या कोई "चुनावी राजनीति" है?

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