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मुख्य सूचना आयुक्त (सीआईसी) और सूचना आयुक्तों के कार्यकाल और वेतन निर्धारित करने की शक्ति केंद्र सरकार को देने संबंधी एक विधेयक लोकसभा के बाद अब राज्यसभा में भी पास हो गया है.
इससे पहले लोकसभा में सूचना का अधिकार (संशोधन) विधेयक, 2019 को मत विभाजन के बाद 178 सदस्यों की सहमति के साथ पारित किया गया. कुल 79 सदस्य इसके खिलाफ रहे.
सूचना का अधिकार (आरटीआई) अधिनियम, 2005 की धारा 13 और 16 में संशोधन के लिए विधेयक लाया गया है. मूल अधिनियम की धारा-13 में केंद्रीय मुख्य सूचना आयुक्त और सूचना आयुक्तों का कार्यकाल पांच साल या 65 साल की आयु तक (जो भी पहले हो) निर्धारित किया गया है.
लेकिन, विधेयक इस प्रावधान को हटाने की बात करता है और केंद्र सरकार को इस पर फैसला लेने की अनुमति देता है. धारा 13 में कहा गया है कि "मुख्य सूचना आयुक्त के वेतन, भत्ते और सेवा की अन्य शर्तें मुख्य चुनाव आयुक्त के समान ही होंगी." लेकिन विधेयक इसे बदलकर सरकार को वेतन तय करने की अनुमति देने का प्रावधान करता है."
मूल अधिनियम की धारा 16 राज्य स्तरीय मुख्य सूचना आयुक्तों और सूचना आयुक्तों से संबंधित है. यह राज्य-स्तरीय मुख्या सूचना आयुक्तों और सूचना आयुक्तों के लिए पांच साल (या 65 वर्ष की आयु, जो भी पहले हो) के लिए कार्यकाल निर्धारित करता है.
संशोधन का प्रस्ताव है कि ये नियुक्तियां “केंद्र सरकार द्वारा निर्धारित की गई अवधि” के लिए होनी चाहिए. जबकि मूल अधिनियम राज्य के मुख्य सूचना आयुक्त के वेतन, भत्ते और सेवा की शर्तों को "चुनाव आयुक्त के समान" और राज्य सूचना आयुक्तों के वेतन और अन्य शर्तों को राज्य सरकार के मुख्य सचिव के "समान" निर्धारित करता है.
यह संशोधन प्रस्तावित करता है कि वेतन और कार्यकाल की अवधि "केंद्र सरकार द्वारा निर्धारित किए जा सकते हैं."
मूल अधिनियम ने कार्यकाल निर्धारित किया था, और मौजूदा बेंचमार्क के संदर्भ में वेतन को परिभाषित किया था.
संशोधनों को यह कहते हुए देखा जा रहा है कि, वास्तव में, मुख्य सूचना आयुक्तों और सूचना आयुक्तों की नियुक्ति, वेतन और कार्यकाल की शर्तें सरकार द्वारा केस-टू-केस के आधार पर तय की जा सकती हैं. विपक्ष ने तर्क दिया है कि इससे आरटीआई अधिकारियों की स्वतंत्रता छीन ली जाएगी.
लोकसभा में कांग्रेस के नेता अधीर रंजन चौधरी ने कहा कि विधेयक केंद्रीय सूचना आयुक्त की "स्वतंत्रता के लिए खतरा" है. बहस की शुरुआत करते हुए कांग्रेस नेता शशि थरूर ने विधेयक पर कड़ी आपत्ति जताई और इसे वापस लेने की मांग की.
विधेयक से आरटीआई ढांचे को कमजोर करने और सीआईसी और सूचना आयुक्तों की स्वतंत्रता को कमजोर करने का आरोप लगाते हुए उन्होंने तर्क दिया कि इसे किसी भी सार्वजनिक बहस के बिना संसद में लाया गया है. थरूर ने इसे जानबूझकर किया गया परिवर्तन बताया.
थरूर ने कहा, "क्या आप यह संशोधन इसलिए ला रहे हैं क्योंकि एक सूचना आयुक्त ने पीएमओ से प्रधानमंत्री की शैक्षणिक जानकारी मांग ली थी? हर बिल को बिना जांच किए आगे बढ़ाने में क्या जल्दी है? सरकार संसदीय स्थायी समितियों के गठन में देरी क्यों कर रही है?"
इसके अलावा तृणमूल कांग्रेस, डीएमके और एआईएमआईएम ने भी इसका विरोध किया. बता दें, सरकार ने पिछले साल भी संशोधन पेश करने की कोशिश की थी, लेकिन विपक्ष के विरोध के कारण विधेयक को वापस लेना पड़ा था.
सरकार के बयान में कहा गया है, “इलेक्शन कमीशन ऑफ इंडिया और सेंट्रल एंड स्टेट इन्फॉर्मेशन कमीशन की भूमिकाएं अलग-अलग हैं. इसलिए, उनकी स्थिति और सेवा शर्तों को भी उसी हिसाब से तर्कसंगत बनाने की जरूरत है.”
संशोधन विधेयक को पेश करते हुए, राज्य मंत्री जितेंद्र सिंह ने कहा था, “शायद, तत्कालीन सरकार ने आरटीआई अधिनियम, 2005 को पारित करने की जल्दबाजी में बहुत सी चीजों को नजरअंदाज कर दिया. केंद्रीय सूचना आयुक्त को सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश का दर्जा दिया गया है, लेकिन उनके निर्णयों को उच्च न्यायालयों में चुनौती दी जा सकती है. यह कैसे संभव है? इसके अलावा, आरटीआई अधिनियम ने सरकार को नियम बनाने की शक्तियां नहीं दीं. हम संशोधन के माध्यम से इन्हें ठीक कर रहे हैं.”
मूल अधिनियम जिस विधेयक से वास्तविकता में आया था, उस पर कार्मिक, जनता की शिकायतें, कानून और न्याय की संसदीय समिति ने चर्चा की थी. इस समिति में अभी के राष्ट्रपति और तब के बीजेपी सदस्य रामनाथ कोविंद, बलवंत आप्टे और राम जेठमलानी शामिल थे.
असल में, मुख्य सूचना आयुक्तों की सैलरी केंद्र सरकार के सचिवों के बराबर प्रस्तावित की गई थी. वहीं, सूचना आयुक्तों की सैलरी केंद्र सरकार के एडिशनल सेक्रेटरी और ज्वॉइंट सेक्रेटरी के बराबर प्रस्तावित की गई थी.
ईएमएस नचीअप्पन की अध्यक्षता में संसदीय समिति ने 2005 में अपनी रिपोर्ट पेश की और कहा, "समिति को लगता है कि सूचना आयुक्तों (बाद में मुख्य सूचना आयुक्त) को मुख्य चुनाव आयुक्त और डिप्टी सूचना आयुक्तों (अब सूचना आयुक्त) को चुनाव आयुक्त के बराबर का दर्जा मिलना चाहिए. इसके लिए समिति क्लॉज में उचित प्रावधान जोड़ने की सलाह देती है."
आरटीआई एक्ट को आजाद भारत के सबसे सफल कानूनों में से एक माना जाता है. इसने आम नागरिकों को सरकारी अधिकारियों से सवाल पूछने का अधिकार और विश्वास दिया है.
अनुमान के मुताबिक, हर साल लगभग 60 लाख आरटीआई दाखिल की जा रही हैं. इसका इस्तेमाल आम नागरिकों के साथ-साथ मीडिया भी करता है.
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Published: 22 Jul 2019,11:06 PM IST