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किसानों की कर्जमाफी के मायने क्या हैं? इसका मतलब ये है कि किसान बैंकों को कर्ज नहीं चुकाएंगे, बल्कि उनकी ओर से सरकार वह रकम बैंकों को चुकाएगी. इसका दूसरा मतलब ये है कि जो रकम कृषि के विकासमें खर्च होनी चाहिए थी, वह रकम ऋण चुकाने में हो गयी. जाहिर है कृषि अनुसंधान से लेकर, मिट्टी, पौधे के संरक्षण तक पर इसका असर पड़ता है.
कर्जमाफी से किसानों को फौरी राहत तो मिल जाती है, लेकिन इससे किसानों के जीवन में कोई बड़ा फर्क नहीं आता. दीर्घकाल में यह पूरे सिस्टम को नुकसान अधिक पहुंचाता है.
देशव्यापी स्तर पर सबसे पहले 1990 में किसानों के ऋण माफ किए गये थे. तब यह 10 हजार करोड़ रुपये का था. 2008 में यूपीए सरकार ने 52 हजार करोड़ रुपये के ऋण माफ किए. मई 2008 में इसे शुरू किया गया था.
इंडियन काउंसिल फॉर रिसर्च ऑन इंटरनेशनल इकनॉमिक रिलेशन्स की रिपोर्ट के मुताबिक, 1990 में वीपी सिंह सरकार की कर्जमाफी की कीमत बैंक और भारत की अर्थव्यवस्था को चुकानी पड़ी. वित्तीय संस्थानों में रिकवरी की दर घटी, डिफॉल्टरों की संख्या में बढ़ोतरी हुई.
ऐसा भी नहीं है कि किसानों के हालात में सुधार हुए हों. इसके बजाए दुर्दशा बढ़ती ही गयी. नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो (एनसीआरबी) की रिपोर्ट पर नजर डालें, तो यह दुर्दशा खुदकुशी के आंकड़े के रूप में लगातार बयां हुईं. 2005 से 2015 के बीच 10 साल में हर एक लाख की आबादी पर 1.4 से 1.8 किसान खुदकुशी करते रहे.
सीएजी ने देश को यह बताया कि 2008 में ऋणमाफी का फायदा जरूरतमंद किसानों को कम मिला, बल्कि वैसे लोगों को भी मिला, जो इसके हकदार नहीं थे. छत्तीसगढ़ तो ऐसा उदाहरण बना, जहां लोन लेने वालों से ज्यादा लोन की माफी पाने वाले लोग थे.
2008 के बाद किसानों की कर्जमाफी 2014 आते-आते व्यापक हो गया. राजनीतिक दलों ने इसे चुनावी मुद्दा बना लिया. सिर्फ 2014 से 2018 के बीच यानी चार साल में 11 राज्यों में किसानों के लिए कर्जमाफी की घोषणाएं हुईं. इनमें ताजा घोषणाए भी शामिल हैं जो छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, राजस्थान और असम में किये गए.
सवाल ये है कि क्या इन कर्जमाफी से किसानों की हालत में कोई सुधार हुआ? इसका जवाब एनसीआरबी के आंकड़े देते हैं.
2014 में आन्ध्र प्रदेश और तेलंगाना में कर्जमाफी हुई थी. एनसीआरबी के आंकड़े कहते हैं कि 2014 में आन्ध्र प्रदेश में 160 किसानों ने आत्महत्या की थी, जो 2015 में बढ़कर 516 हो गयी. यानी तीन गुणा ज्यादा किसानों ने आत्महत्या की. इसी दौरान तेलंगाना में भी 50 फीसदी आत्महत्या की घटनाएं बढ़ गयीं.
सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, भारत में खेती योग्य भूमि का औसत आकार 15 हेक्टेयर है. मगर, छोटे और सीमांत किसानों के पास 2 हेक्टेयर जमीन से भी कम रह गयी है. 72 फीसदी जमीन छोटे किसानों के पास हैं. यानी खेत के छोटे टुकड़े खुद उनके पेट नहीं भर पा रहे हैं. किसान आर्थिक रूप से कमजोर हैं, जिसकी वजह को इन बिन्दुओं में समझा जा सकता है:
फसल कर्ज की खासियत ये है कि ये अल्पकालीन होते हैं. अगर कर्ज खरीफ फसल के लिए ली गयी हो तो उसे रबी फसल आते-आते चुकाना होता है. अगर नहीं चुकाया गया, तो रबी फसल के लिए कर्ज नहीं मिलेगा. सीमांत किसानों के लिए इसका बहुत महत्व है.
एक चुनी हुई सरकार में 5 रबी और 5 खरीफ के सीजन आते हैं. एमपी, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में ऋणमाफी के बाद अब आगे 9 सीजन होंगे. चुनौती ये होती है कि कोई सरकार हर सीजन में ऋणमाफी नहीं करती और इसे चुनाव होने तक उसी हाल में छोड़ दिया जाता है तो चुनाव आने पर विपक्ष इस मुद्दे को हाथ में लेता है और यह मुद्दा उसे वोट दिलाता है. सत्ताधारी दल विगत सीजनों में चुप्पी साध लेने की वजह से विलन बन जाता है.
मगर, इस बार मोदी सरकार सचेत है. उसे यूपीए वन की मनमोहन सरकार याद है, जिसने ऋणमाफी के जरिए ही यूपीए 2 सरकार बनाने में कामयाबी पायी थी.
यूपीए सरकार 2014 में सत्ता से बाहर हो गयी. अब 2019 के लिए मोदी सरकार ने मेगा प्लान रचा है. वह देश में 4 लाख करोड़ की ऋणमाफी की तैयारी के साथ चुनाव मैदान में उतरने जा रही है. अगर ऐसा होता है, तो चुनावी इतिहास यही कहता है कि यह मोदी सरकार के लिए गेमचेंजर साबित होगा.
(प्रेम कुमार जर्नलिस्ट हैं. इस आर्टिकल में लेखक के अपने विचार हैं. इन विचारों से क्विंट की सहमति जरूरी नहीं है.)
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