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जम्मू-कश्मीर का भारत में विलय खास परिस्थितियों में हुआ था. 1947 में जब ब्रिटेन की हुकूमत खत्म हुई, तो दो देश बने, भारत और पाकिस्तान. उस समय भारत में 562 देसी रियासतें थीं. समझौते के मुताबिक, इनमें से जो पाकिस्तान के साथ जाना चाहे, वो पाकिस्तान के साथ और जो भारत के साथ रहना चाहे, वो भारत के साथ रह सकती थीं. जो इन दोनों के अलावा खुद को आजाद रखना चाहते थे, वो ऐसा कर सकते थे. उसी समझौते के तहत जम्मू-कश्मीर के राजा हरि सिंह ने दोनों में से किसी के साथ भी नहीं जाने का फैसला किया.
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 370 के तहत जम्मू-कश्मीर को विशेष स्वायत्तता हासिल है. आजादी के बाद जब रियासतों का भारत में विलय कराया जा रहा था, तो उन्हें भी अपने राज्य के लिए अलग से संविधान बनाने की छूट दी गई. 1949 में रियासतों के प्रतिनिधियों और मुख्यमंत्रियों की बैठक में यह फैसला लिया गया कि राज्यों को अलग से संविधान की कोई जरूरत नहीं.
लेकिन संविधान सभा में जम्मू-कश्मीर के प्रतिनिधियों ने कहा कि विलय के दस्तावेज में मौजूद प्रावधानों को छोड़कर कोई अन्य प्रावधान प्रदेश पर लागू नहीं होना चाहिए. उसी आधार पर भारतीय संविधान में अनुच्छेद 370 को जोड़ा गया.
इसके मुताबिक, संविधान में केंद्र को मिले अधिकारों का इस्तेमाल जम्मू-कश्मीर के संदर्भ में तभी हो सकेगा, जब वहां की संविधान सभा उसकी इजाजत देगी. सीधे शब्दों में कहें, तो जम्मू-कश्मीर के संदर्भ में रक्षा, विदेश और संचार के मामलों को छोड़ कर अन्य मामलों में कोई भी फैसला लेने से पहले केंद्र को जम्मू-कश्मीर की संविधान सभा से मंजूरी लेनी होगी.
भारत का संविधान 26 जनवरी, 1950 में लागू हुआ, जबकि जम्मू-कश्मीर का संविधान 26 जनवरी, 1957 को लागू हुआ. भारतीय संविधान में धारा 370 को एक 'अस्थायी प्रावधान' के तौर पर शामिल किया गया था. इसे राज्य का संविधान लागू होने के साथ खत्म किया जाना था. लेकिन 25 जनवरी 1957 को जम्मू-कश्मीर की संविधान सभा ने राज्य का संविधान लागू करने की सिफारिश तो की, लेकिन देश के संविधान से धारा 370 खत्म करने की सिफारिश नहीं की और खुद को भंग कर दिया.
यही वजह है कि धारा 370 भारतीय संविधान में आज भी मौजूद है और राजनीति का एक मुख्य केंद्र बना हुआ है.
बीजेपी का मानना है कि जम्मू-कश्मीर में सारे फसाद की जड़ धारा 370 है और इसे खत्म किया जाना चाहिए. इसी वजह से केंद्र के पास प्रदेश के संविधान को बर्खास्त करने के अधिकार नहीं हैं.
जम्मू-कश्मीर के तीन हिस्से हैं. कश्मीर, जम्मू और लद्दाख. इनमें क्षेत्रफल के लिहाज से लद्दाख सबसे बड़ा और कश्मीर सबसे छोटा है. लेकिन आबादी के लिहाज से कश्मीर सबसे बड़ा और लद्दाख सबसे छोटा. इन तीनों हिस्सों में कुल 22 जिले हैं. जम्मू और कश्मीर में 10-10 जिले और लद्दाख में 2 जिले.
जम्मू-कश्मीर विधानसभा में इस समय 111 सीटें हैं, जिनमें से 24 पाक अधिकृत कश्मीर के लिए खाली छोड़ी जाती हैं. बाकी 87 पर चुनाव होता है. इनके अलावा अगर विधानसभा में महिलाओं का प्रतिनिधित्व कम लगता है, तो उस सूरत में राज्यपाल दो महिलाएं मनोनीत कर सकता हैं. देश के बाकी राज्यों की विधानसभा का कार्यकाल 5 साल होता है, लेकिन जम्मू-कश्मीर विधानसभा का कार्यकाल 6 साल का होता है.
जम्मू-कश्मीर में 1965 से पहले चुनी हुई सरकार के मुखिया को दीवान (प्रधानमंत्री) कहा जाता था. 15 अक्टूबर 1947 से 5 मार्च 1948 तक मेहर चंद महाजन पहले दीवान थे. उनके बाद 5 मार्च 1948 से 9 अगस्त 1953 तक शेख अब्दुला दीवान बने. उसके बाद शेख अब्दुल्ला को राज्य विरोधी साजिश रचने के आरोप में गिरफ्तार करके जेल में डाल दिया गया. वो 11 साल जेल में रहे.
1953 से 1965 के बीच तीन और नेता (बख्शी गुलाम मोहम्मद, ख्वाजा शम्मसुद्दीन और गुलाम मोहम्मद सादिक) दीवान बने. 1965 में संविधान संशोधन के बाद प्रधानमंत्री के पद का नाम बदल कर मुख्यमंत्री कर दिया गया.
1964 में शेख अब्दुल्ला रिहा तो हुए, लेकिन केंद्र सरकार से उनका टकराव जारी रहा. उसी बीच हुए 1965 में 1971 तक गुलाम मोहम्मद सादिक मुख्यमंत्री बने. 1975 में शेख अब्दुल्ला की नेशनल कॉन्फ्रेंस की जीत हुई और वो मुख्यमंत्री बने. लेकिन मार्च 1977 में उनकी सरकार बर्खास्त कर दी गई और राष्ट्रपति शासन लगा दिया. उसी साल वहां हुए चुनाव में नेशनल कॉन्फ्रेंस को बड़ी जीत मिली और शेख अब्दुल्ला फिर मुख्यमंत्री बने. वो पांच साल मुख्यमंत्री रहे और 1982 में उनके देहांत के बाद उनके बेटे फारूक अब्दुल्ला मुख्यमंत्री बने.
1983 के बाद वहां अस्थिर सरकारों का दौर चला. केंद्र और राज्य के नेताओं के बीच सियासी टकराव के कारण वहां अब तक तीन बार चुनी हुई सरकार बर्खास्त की गई है और सात बार राष्ट्रपति शासन लगा है.
सबसे लंबा राष्ट्रपति शासन 19 जनवरी 1990 से 9 अक्टूबर 1996 के बीच 6 साल 264 दिन के लिए रहा. इसी दौरान आतंकवाद अपने चरम पर था. उसके बाद तीन स्थिर सरकारों को शासन रहा. 1996 से 2002 तक फारूक अब्दुल्ला ने अपना कार्यकाल पूरा किया. उनके बाद 2002-2008 के बीच पीडीपी-कांग्रेस की तीन-तीन साल वाली मिली-जुली सरकार रही. पहले पीडीपी के मुफ्ती मोहम्मद सईद मुख्यमंत्री तीन साल मुख्यमंत्री रहे और उनके बाद कांग्रेस के गुलाम नबी आजाद ने कमान संभाली. वर्ष 2009-2015 तक नेशनल कॉन्फ्रेंस के उमर उब्दुल्ला कांग्रेस के सहयोग से मुख्यमंत्री रहे.
1987 के चुनाव में सहयोगी नेशनल कॉन्फ्रेंस के जीतने के बाद केंद्र की राजीव गांधी सरकार पर धांधली का आरोप लगा. यहीं से जम्मू-कश्मीर के एक बड़े धड़े में लोकतांत्रिक प्रक्रिया को लेकर मोहभंग हो गया. उसी के बाद आतंकवाद की जड़ें मजबूत होती गईं. पाकिस्तान के समर्थन पर वहां हिंसा फैलने लगी. 1989 से लेकर 2004 के बीच आतंकवाद की जड़ें काफी मजबूत थीं. उसके तत्कालीन पीडीपी-कांग्रेस सरकार की कोशिशों की वजह से हिंसक घटनाओं में कमी आने लगी.
इसकी एक वजह यह भी थी कि पाकिस्तान की तरफ से मिलने वाला समर्थन और आर्थिक मदद धीरे-धीरे कम हो रहा था. 2009 से 2013 के बीच तो हिंसक घटनाओं में काफी कमी आयी और ऐसा लगने लगा कि हालात एक बार फिर सामान्य हो जाएंगे. लेकिन हाल के दिनों में जिस तरह हिंसा एक बार फिर बढ़ी है, वो चिंता का सबब है.
25 नवंबर से 20 दिसंबर 2014 के बीच पांच चरणों में चुनाव हुए. हुर्रियत कॉन्फ्रेंस के बहिष्कार के बीच 87 सीटों पर हुए उस चुनाव में किसी को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला. इस चुनाव में पीडीपी 28 सीटों के साथ सबसे बड़ी पार्टी बनी. 25 सीटों के साथ बीजेपी दूसरे नंबर की पार्टी बनी. नेशनल कॉन्फ्रेंस को 15 और कांग्रेस को 12 सीटें हासिल हुईं. त्रिशंकु विधानसभा की सूरत में वहां एक जनवरी को राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया. उसी बीच बीजेपी और पीडीपी के बीच लंबी बातचीत चली और फरवरी 2015 में सरकार के फॉर्मूले पर सहमति बन गई.
1 मार्च 2015 को पीडीपी के मुफ्ती मोहम्मद सईद मुख्यमंत्री बने. 7 जनवरी 2016 को उनके देहांत के बाद सरकार गिर गई और एक बार फिर राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया. 88 दिन बाद दोनों दलों के बीच मिलीजुली सरकार पर दोबारा सहमति बनी और 4 अप्रैल 2016 को महबूबा मुफ्ती ने मुख्यमंत्री पद की शपथ ली. इसी महीने 20 तारीख को बीजेपी ने आतंकवाद पर नकेल न कस पाने और प्रेस की आजादी पर हो रहे हमले को आधार बना कर अपनी सरकार गिरा दी.
जम्मू-कश्मीर में सबसे लंबा शासन शेख अब्दुल्ला परिवार का रहा है. इस परिवार से तीन पीढ़ियों के नेता शेख अब्दुल्ला, उनके बेटे फारूक अब्दुल्ला और फारूक अब्दुल्ला के बेटे और शेख अब्दुल्ला के पोते उमर अब्दुल्ला मुख्यमंत्री रहे हैं. अब्दुल्ला परिवार के अलावा दूसरा सबसे लंबा शासन मुफ्ती परिवार का रहा है. मुफ्ती मोहम्मद सईद दो बार मुख्यमंत्री बने जबकि उनकी बेटी महबूबा मुफ्ती एक बार मुख्यमंत्री रही हैं.
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