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PDP-BJP | ‘उम्मीदों के गठबंधन’ से ‘डर के गठबंधन’ तक

मौत, संदेह और राजनीतिक संभावनाओं से भरा क्षण

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मौकापरस्ती की हद. पूरी तरह बेमेल. सत्ता के भूखे. इन्हें तो फेल होना ही था.

ये कुछ ऐसे शब्द हैं, जिनका इस्तेमाल पीडीपी-बीजेपी गठजोड़ के टूटने से जुड़े विश्लेषणों में जमकर किया जा रहा है. कुछ विश्लेषक दावा करते हैं कि ये बोल्ड राजनीतिक प्रयोग इसलिए धराशायी हो गया, क्योंकि ये गठजोड़ चलने लायक था ही नहीं. लेकिन इस तरह के निष्कर्ष पर पहुंचना न सिर्फ जरूरत से ज्यादा सामान्यीकरण है, बल्कि गलत भी है.

ऐसे विश्लेषणों में राजनीति की सही समझ का घनघोर अभाव दिखाई देता है.

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परस्पर विरोधी हितों के बीच गठजोड़ का नाम ही राजनीति है

"गठबंधन" के लिए इस्तेमाल होने वाला अंग्रेजी शब्द “coalition” फ्रेंच भाषा के coalascere से निकला है, जिसका अर्थ है "किसी संगठन के पास अकेले दम पर जितना असर और ताकत है, उससे ज्यादा हासिल करने की कोशिश." यानी राजनीति का मतलब ही परस्पर विरोधी हितों के बीच गठजोड़ बनाना है, फिर चाहे वो एक राजनीतिक दल की अंदरूनी राजनीति हो (बिजनेस के शब्दों में कहें तो एक ही बैलेंस शीट का मामला) या फिर दो अलग-अलग पार्टियों के बीच (यानी एक ज्वाइंट वेंचर).

ये बात हम बार-बार सुनते रहते हैं कि मिस्टर एक्स ओबीसी हितों के प्रतिनिधि हैं, जबकि मिस Y मुस्लिम चेहरा हैं और उसी तरह श्री जेड उत्तरी इलाकों की नुमाइंदगी करते हैं. जी हां, राजनीति के मंच पर उठाया गया हर कदम अक्सर आपस में टकराने वाले हितों के बीच गठजोड़ बनाने के मकसद से काफी सोच-समझकर उठाया जाता है.

आजादी की लड़ाई के दौर में हर तरह के राजनीतिक गठजोड़ की शुरुआत भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से हुई, जब हितों के टकराव वाले तमाम सामाजिक, धार्मिक और क्षेत्रीय समूहों ने देश को आजाद कराने के लिए महात्मा गांधी की छत्रछाया में मिलजुलकर काम किया.

19वीं सदी के बीच के दौर में अमेरिका की रिपब्लिकन पार्टी का गठन अलग-अलग तरह के गुटों के विलय से हुआ था, जिनमें व्हिग्स, डेमोक्रेट्स, फ्री सॉयलर्स, एबॉलिशनिस्ट, नो-नथिंग्स, टेंपरेंस मूवमेंट के सदस्य और इनमें किसी राजनीतिक गुट से नहीं जुड़े दूसरे लोग भी शामिल थे.

"किसी पार्टी के अंदरूनी और अपने में सिमटे हुए गठबंधनों" के विपरीत "अलग-अलग पार्टियों के बीच घोषित गठबंधन" भी होते हैं, जिनमें अलग-अलग विचारधाराएं एक कॉमन और आमतौर पर अस्थायी कार्यक्रम के तहत साथ आती हैं. वैश्विक राजनीति के मौजूदा दौर में जर्मनी में मर्कल और सोशल डेमोक्रेट्स का गठजोड़ और यूके का कंजर्वेटिव-लिबरल गठबंधन इसके प्रमुख उदाहरण हैं.

इन सभी को "बेमेल, अवसरवादी और सत्ता के भूखे" कहा जा सकता है, क्योंकि गठजोड़ आम तौर पर ऐसे ही होते हैं. लिहाजा, इतनी महत्वपूर्ण राजनीतिक प्रक्रिया को इसलिए खारिज करना क्योंकि वो वही है, जो उसे होना चाहिए, बेवकूफाना बात है !

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हॉरिजोंटल बनाम वर्टिकल गठजोड़

राजनीतिक गठजोड़ को मैं दो श्रेणियों में बांटना पसंद करूंगा, भले ही एकेडमिक लिटरेचर में ऐसा न किया जाता हो :

  • पहला, हॉरिजोंटल, विस्तारवादी "उम्मीदों का गठजोड़", जिसमें पार्टियां अपने प्रभाव का दायरा बढ़ाने के लिए अब तक नजरअंदाज किए गए, यहां तक कि परस्पर विरोधी हितों से जुड़े समूहों को भी साथ लाने की कोशिश करती हैं. इसके लिए अपनी राजनीतिक विचारधारा के साथ कुछ समझौते करना और उसके चुभने वाले सिरों की धार को कुंद करना जरूरी हो जाता है. 2014 में पीएम पद के उम्मीदवार मोदी ने ठीक यही किया था, जब उन्होंने मुसलमानों, दलितों, महत्वाकांक्षी युवाओं, गैर-यादव ओबीसी और गैर-हिंदी भाषी क्षेत्रों के अलग-थलग पड़े वोटरों का दिल जीतने के लिए उग्र हिंदुत्व की लाइन को छोड़ दिया था.
  • गठबंधन की दूसरी किस्म है वर्टिकल, ईको चैंबर जैसे "डर के गठजोड़" की, जिसमें राजनीतिक दल ध्रुवीकरण करने वाले नारों और मुद्दों के जरिए धार्मिक संकीर्णता में फंसे लोगों को डराने और भड़काने का काम करते हैं. इस तरह वो उनके बीच न सिर्फ अविश्वास की खाई पैदा करते हैं, बल्कि उन्हें आपसी अलगाव की दीवारों में घेरकर एक-दूसरे से अलग-थलग कर देते हैं. वो ऐसा सिर्फ इसलिए करते हैं ताकि लोगों को एक-दूसरे के खिलाफ और अपने पीछे लामबंद करके अपने राजनीतिक प्रभाव का विस्तार कर सकें. इस तरह के गठजोड़ में दो ही विकल्प होते हैं - आप या तो हमारे साथ हैं या हमारे दुश्मन. इसमें बीच का कोई रास्ता नहीं होता.
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मुफ्ती-मोदी समझौता : "उम्मीदों का दुस्साहस"

इसमें कोई शक नहीं कि 1 मार्च 2015 को पी़डीपी-बीजेपी गठबंधन की सरकार बनाने के लिए किए गए मुफ्ती-मोदी समझौते ने बड़ी उम्मीदों को जन्म दिया था.

वैसे तो, मुफ्ती-कांग्रेस गठजोड़ एक ज्यादा "स्वाभाविक" गठबंधन होता (जिसे नेशनल कॉन्फ्रेंस से "मुद्दा आधारित" समर्थन मिल सकता था), लेकिन घाटी में पकड़ रखने वाली, नर्म-अलगाववादी पीडीपी की सगाई अगर जम्मू आधारित, मर्दवादी/सैन्यवादी, हिंदुओं को सबके ऊपर रखने वाली बीजेपी से हो रही हो, तो ऐसे गठजोड़ के "बेमेल" होने की वजह से ही उसमें छिपी संभावनाएं और भी बढ़ जाती हैं. खतरे इतने अधिक थे कि उन्हें दूर करने पर उम्मीद से कहीं ज्यादा फायदे भी हो सकते थे.

इन जोखिमों की वजह से ही मुफ्ती-मोदी मिलन की हैरान करने वाली घटना ने उम्मीदों को नई ऊंचाइयों पर पहुंचा दिया था.. दोनों नेता भारत के लिए “Audacity of Hope” यानी "उम्मीदों के दुस्साहस" की एक नई इबारत लिख रहे थे!

मौत, संदेह और राजनीतिक संभावनाओं से भरा क्षण
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद
(फाइल फोटो: PTI)

इस गठजोड़ को बंधन में बांधने का शानदार काम किया एक "ड्रीम डॉक्युमेंट ऑफ गवर्नेंस" ने (जिसका आधार था बीजेपी-पीडीपी कॉमन मिनिमम प्रोग्राम-2015; खास बातों पर जोर देने के लिए इटैलिक्स का इस्तेमाल मैंने किया है) :

  • "इंसानियत, कश्मीरियत और जम्हूरियत" के सिद्धांतों पर अमल करते हुए राज्य सरकार लगातार और सार्थक बातचीत का सिलसिला शुरू करने में मदद करेगी, जिसमें सभी आंतरिक पक्षों को शामिल किया जाएगा. इनमें सभी राजनीतिक समूह शिरकत करेंगे, चाहे उनके वैचारिक रुझान और जुड़ाव कुछ भी हो.
  • उपद्रव ग्रस्त क्षेत्रों को डी-नोटिफाई करने और इन क्षेत्रों में लागू आर्म्ड फोर्सेज स्पेशल पावर्स एक्ट (AFSPA) को हटाने के बारे में अंतिम राय बनाना.
  • धारा 370 : बनी रहेगी
  • हुर्रियत कॉन्फ्रेंस से बातचीत की शुरूआत.
  • पाकिस्तानी कब्जे वाले कश्मीर से आए शरणार्थियों के संबंध में वन-टाइम सेटलमेंट.
  • जम्मू-कश्मीर के पानी से NHPC (नेशनल हाइड्रो-इलेक्ट्रिक पावर कॉरपोरेशन) को होने वाले मुनाफे में राज्य की हिस्सेदारी.
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अगर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और मुख्यमंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद ने अपने इन वादों का एक छोटा सा हिस्सा भी पूरा किया होता, तो हम जमीनी हालात में सकारात्मक बदलाव ला पाए होते. लेकिन दुर्भाग्य से "ड्रीम डॉक्युमेंट" जुमलों के पुलिंदे से ज्यादा कुछ नहीं निकला.

हकीकत में कुछ भी नहीं हुआ. असल में, मोदी अपने सबसे अहम वादे से ये कहते हुए पलट गए कि हुर्रियत या ऐसे किसी भी व्यक्ति से कोई बातचीत नहीं होगी, जिसका "अलगाववाद" से जरा सा भी लेना-देना है. बाढ़ से हुई तबाही की भरपाई के लिए जो स्पेशल पैकेज देने का वादा किया गया था, उसका भी कहीं नामोनिशान नहीं दिखा.

और AFSPA को किसी भी मायने में वापस लिए जाने का तो कहीं कोई सवाल ही नहीं था. यहां तक कि NHPC के मुनाफे में राज्य को हिस्सा देने के जुमले को भी ताक पर रख दिया गया. ये बात आईने की तरह साफ हो चुकी थी कि "ड्रीम डॉक्युमेंट" दरअसल "जुमलों का डॉक्युमेंट" है. इन हालात में आम कश्मीरी का तेजी से मोहभंग होना कोई हैरानी की बात नहीं.

मौत, संदेह और राजनीतिक संभावनाओं से भरा क्षण

और तभी, दस महीने के भीतर मुख्यमंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद का निधन हो गया. ये वक्त राजनीतिक संभावनाओं से भरा था. मैं इसे रिवाज के मुताबिक एक "धक्का" या "ट्रैजडी" नहीं कह रहा, क्योंकि अभी हमारा फोकस निजी बातों पर नहीं है. इस अड़चन को एक अवसर में बदला जा सकता था. लेकिन प्रधानमंत्री मोदी ने आश्चर्यजनक रूप से अपमानजनक बर्ताव करते हुए मुफ्ती मोहम्मद सईद के अंतिम संस्कार में हिस्सा नहीं लिया. अंतिम यात्रा में कम भीड़ होने से ये संदेह भी और मजबूत हुआ कि पीडीपी-बीजेपी गठबंधन अपनी लोकप्रियता खोता जा रहा है.

मरहूम मुफ्ती की बेटी और उत्तराधिकारी महबूबा ने भी अपनी अगली गठबंधन सरकार का नेतृत्व करने के बीजेपी के आग्रह को बार-बार ठुकराकर अपनी नाराजगी सार्वजनिक तौर पर जाहिर की.

गठबंधन के घोषित साझा कार्यक्रम के प्रति बीजेपी की निष्ठा पर संदेह भी महबूबा की इस अनिच्छा में अंतर्निहित था. उन्हें वादे पूरे करने के लिए दबाव डालना चाहिए था और मोदी को उदारता दिखाते हुए कम से कम दो वादे तो पूरे करने चाहिए थे - जिनमें एक शायद अलगाववादियों से बातचीत शुरू करने का हो सकता था और दूसरा NHPC के मुनाफे में हिस्सेदारी का. लेकिन दोनों ही वादे पूरे नहीं किए गए.

मौत, संदेह और राजनीतिक संभावनाओं से भरा क्षण
प्रधानमंत्री मोदी ने मुफ्ती मोहम्मद सईद के अंतिम संस्कार में हिस्सा नहीं लिया था
(फोटो: ANI)

दिलचस्प बात ये कि ठीक तीन महीने बाद, 4 अप्रैल 2016 को महबूबा मुफ्ती ने अपनी जिद छोड़ दी और मुख्यमंत्री बनने को तैयार हो गईं, अपने अब तक के बर्ताव की कोई ठोस वजह बताए बिना.

  • इस तरह उम्मीदों से भरे इस गठजोड़ को नए सिरे से परिभाषित करने का मौका हाथ से निकल गया. उलटे इसकी जगह अब लगातार आपसी अविश्वास में घिरे "संदिग्ध इरादों के गठजोड़" ने ले ली. मोदी ने "अनुच्छेद 370 को नहीं छूने" की अपनी शपथ भी उस वक्त तोड़ दी, जब उनकी सरकार ने सुप्रीम कोर्ट से कहा कि वो अनुच्छेद 35A को खत्म करने पर चर्चा के लिए तैयार है. संविधान की इस धारा में प्रॉपर्टी, सेटलमेंट और कुछ अन्य मामलों में कश्मीरियों को कुछ खास अधिकार दिए गए हैं. इस तरह इस पार्टनरशिप की पीठ में खंजर घोंप दिया गया. किसी भी गठबंधन की बुनियाद जिस आपसी भरोसे पर टिकी होती है, उसे तोड़ दिया गया था.
  • इसके बाद कठुआ की वारदात हुई. 8 साल की एक बकरवाल मुस्लिम लड़की का कथित तौर पर कुछ हिंदू पुरुषों ने एक मंदिर के भीतर रेप किया. बीजेपी जम्मू में अपने मतदाताओं के ध्रुवीकरण के इरादे से इस मामले में ये कहते हुए कूद पड़ी कि इस वारदात में हिंदू युवकों को फंसाया जा रहा है. महबूबा को तब हताशा भरी झल्लाहट में ट्वीट करना पड़ा : "कठुआ में हाल में गिरफ्तार बलात्कारियों के समर्थन में जुलूस और प्रदर्शन निकाले जाने से मैं स्तब्ध हूं. इन प्रदर्शनों में राष्ट्र ध्वज का इस्तेमाल और भी भयावह है...ऐसा करना ध्वज के अपमान से कम नहीं है."
  • इसके अलावा भी तकरार पैदा करने वाली कई बातें हुईं : मुठभेड़ में बुरहान वानी के मारे जाने पर बीजेपी की तरफ से अपनी जीत के नगाड़े पीटना, सेना का एक आम कश्मीरी को मानव ढाल बनाना, पत्थरबाजी करने वाले नाबालिग प्रदर्शनकारियों को आतंकवादी मानना और घातक पैलेट्स चलाकर उनकी आंखें छीन लेना, शोपियां में तीन नागरिकों की मौत और सेना का ये क्रूरताभरा एलान कि "अगर ये सीरिया होता तो हम अपने टैंक लेकर चढ़ाई कर देते".... ये बदले और प्रतिहिंसा से भरे शब्दों/कार्रवाइयों की एक कभी न खत्म होने वाली सूची है.
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डर का गठबंधन

"संदिग्ध इरादों का गठजोड़" अब तक "डर का गठबंधन" बन चुका था. पीडीपी और बीजेपी अपने-अपने ईको चैंबर्स में लौट चुके थे. इसके बाद हुई शुजात बुखारी की हत्या. अंत नजदीक था. और ये अंत दहला देने वाली रफ्तार और ज्यादा से ज्यादा अपमान करने वाले तरीके से हुआ. महबूबा को निजी तौर पर कोई सूचना या चेतावनी दिए बिना बीजेपी ने गठबंधन तोड़ने का सार्वजनिक एलान कर दिया.

महबूबा इसके लिए बिलकुल तैयार नहीं थीं. उन्होंने अपने पूर्व सहयोगी दल पर जब चुनौती और अनुरोध के मिलेजुले अंदाज में "कश्मीर को दुश्मन का इलाका" मानकर बर्ताव करने का आरोप लगाया तो उनकी हैरानी और घबराहट साफ-साफ झलक रही थी.

मुफ्ती/मोदी का बनाया “बड़ी उम्मीदों वाला गठबंधन” अब “डर की पराकाष्ठा के गठजोड़” में बदलकर टुकड़े-टुकड़े हो चुका था, जिसके अवशेष सबकी नजरों के सामने तमाशा बनकर बिखरे पड़े थे.

बीजेपी को 2019 के लिए अपना बड़ा नारा मिल चुका था- कि भारत की एकता खतरे में है और हम उसके एकमात्र ताकतवर रक्षक हैं. बाकी सब गद्दार हैं.

मुझे पूरा भरोसा है कि पीडीपी अब घाटी में अपने नर्म-अलगाववादी राजनीतिक आधार को दोबारा हासिल करने की कोशिश करेगी.

लेकिन आपके प्यारे भारत को इस सबकी क्या कीमत चुकानी पड़ रही है?

ये भी पढ़ें- 2019 के प्रधानमंत्री जी, बैंकों के निजीकरण के लिए ये सुझाव मान लें

(हैलो दोस्तों! हमारे Telegram चैनल से जुड़े रहिए यहां)

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