advertisement
आदरणीय भक्तों,
बाजार में बहुत शोर है. सवाल पर सवाल. कुछ नए, कुछ वही घिसे-पीटे पुराने. इन सबका एक ही जवाब- देश 2014 के बाद बदल गया है कि नहीं... बदल गया है, तो पुराने पैमाने से नए हालात को कैसे जांचा-परखा जा सकता है?
जीडीपी ग्रोथ के रिविजन पर सवाल. जॉब्स रिपोर्ट छुपाओ, तो सवाल. किसानों को न्यूनतम इनकम गारंटी देने का ऐलान करो, तो सवाल. किसानी से कमाई डबल करने का भरोसा दिलाओ, तो सवाल.
नोटबंदी वाले साल में कंजंप्शन कैसे बढ़ गया? महीनों तक देश में कैश की किल्लत रही. लोग लाइन में खड़े रहे. कैश से लेन-देन होता है. अगर कैश ही नहीं था, तो लेन-देन कैसे हो गया और कंजंप्शन कैसे बढ़ गया?
वो कहते हैं कि कंपनियों के मुनाफे नहीं बढ़ रहे, निवेश की दर कम है, नया निवेश आ नहीं रहा, विदेशी निवेशक भाग रहे हैं. बैंक से मिलने वाले कर्ज नदारद हैं. इंडस्ट्रियल ग्रोथ मामूली है. लेकिन विकास दर फिर भी छलांग मार रहा है. कैसे भाई?
लेकिन इस सबका जवाब है. देश में बहुत-कुछ हो रहा है, जिस पर ध्यान नहीं दिया जा रहा है, जो जीडीपी को तेजी से बढ़ा रहा है. कुछ नमूने देखिए. रेफरेंस के लिए अंतरिम वित्तमंत्री का अंतरिम बजट भाषण सुन लीजिए. उन्होंने एक बड़ी बात कही. 2014 से अब तक डेटा कंजंप्शन 50 गुणा बढ़ा है. भारत के इतिहास में ऐसा कभी हुआ है क्या? यह जीडीपी को बढ़ाने वाला नहीं है क्या?
सरकार ने टेलीकॉम सेक्टर में ग्रोथ नापने का यही तो पैमाना रखा है. पहले चालाकी से मोबाइल ग्राहकों की संख्या को टेलीकॉम सेक्टर में ग्रोथ का पैमाना माना जाता था. वो पुरानी बात हो गई. अब मिनट्स ऑफ यूसेज है पैमाना. जितने मिनट्स मोबाइल पर, उतना ही ज्यादा डेटा कंजंप्शन और उतना ही ज्यादा ग्रोथ... सिंपल.
अब नोटबंदी के समय को याद कीजिए. जेब में कैश थे नहीं. लेकिन जियो के कई दनादन-टनाटन ऑफर चल रहे थे. दूसरे कंजंप्शन भले ही प्रभावित हुए होंगे, लेकिन डेटा कंजंप्शन तो कई गुणा बढ़ गया था.
इस तेजी ने सारे नुकसान की भरपाई कर दी. अब बताइए की कंजंप्शन बढ़ा कि नहीं बढ़ा? और इसी के साथ जीडीपी भी भाग गया. इतनी आसान बात पुराने चश्मे से अर्थव्यवस्था को देखने वाले क्यों नहीं समझ पाते.
अब उज्ज्वला स्कीम के लॉन्च होने की तारीख याद कीजिए. मई 2016. नोटबंदी के दौरान भी गैस कनेक्शन जमकर बांटे गए. इस पर खाना बना और कंजंप्शन हुआ. नोटबंदी के दौरान भी और उसके बाद भी. इसको शामिल करेंगे, तो प्राइवेट कंजंप्शन भी भागेगा और ग्रोथ भी. इसको इग्नोर करेंगे, तो आपको ग्रोथ नहीं ही दिखेगा ना?
नौकरियों के बारे में भी काफी बकवास चल रहा है. किसी आंकड़े के हवाले से बताया जा रहा है कि बेरोजगारी की दर 45 साल के सबसे ऊंचे स्तर है. फिर वही गलती- पुराने चश्मे से नई दुनिया को देखने की कोशिश हो रही है.
कुछ उदाहरण से इसे समझते हैं. 2014 से पहले किसी ने 'पन्ना प्रमुख' का नाम सुना था क्या? अकेले उत्तर प्रदेश में बीजेपी के करीब 27 लाख 'पन्ना प्रमुख' हैं. यह अच्छी क्वालिटी की नौकरी है कि नहीं?
यह तो बस एक ही उदाहरण है. कई और भी हैं. अब ट्रोल आर्मी को ही ले लीजिए. इतनी संगठित फौज है, दिन-रात मेहनत करने वाली, नए-नए आइडिया लाने वाली. ये मुफ्त में थोड़ी काम करते हैं. वेल पेड नौकरियां है. ये अलग बात है कि इनका टीडीएस नहीं कटता है, न ही ईपीएफओ में रजिस्टर्ड हैं. लेकिन वॉट्सऐप यूनिवर्सिटी यही चलाते हैं और सोशल मीडिया पर इनकी ही बादशाहत है.
कोई NSSO इसको कैप्चर कर पाएगा? इसीलिए तो कहा जा रहा है कि बेरोजगारी का सही आंकड़ा नहीं आ रहा है, इसीलिए पब्लिश नहीं हो रहा है.
इसी तरह गोरक्षक दल हैं, लव जिहाद विरोधी दस्ते हैं, रैली आयोजित करने वाले दस्ते हैं, चुनाव के समय नेताजी के वोलंटियर की फौज— ये सारी कमाई वाली नौकरियां हैं. किसी सर्वे में इनका आकलन नहीं होता है. इसीलिए नौकरी के आंकड़े हमेशा अधूरे ही रहते हैं. पुराने चश्मे से कभी कैप्चर नहीं होते. इसीलिए जॉब मार्केट के ठप होने की खबरें छपती हैं. वो सारी फेक न्यूज हैं और उन पर ध्यान मत दीजिए.
आपका आभारी
एक भक्त
(बता दूं कि ये लेख कोरी कल्पना के आधार पर लिखा गया है. किसी रिसर्च पेपर में इन बातों का जिक्र नहीं है.)
(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)