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देखे जाने से पहले भी हर शहर के नाम के साथ एक इमेज मन में तैरती जाती है. बार्सिलोना का नाम बचपन में पहली बार तब सुना था, जब वहां ओलंपिक खेल हुए थे. तब से मन में इस शहर की इमेज एक खिलंदड़े जवान की सी बसी हुई थी. लेकिन पहुंचने पर कई सौ सालों का इतिहास समेटे, अब भी अपनी अलग पहचान की जद्दोजहद में लगे एक प्रौढ़ शहर को अपने पूरे विस्तार में बाहें फैलाए इंतजार करता पाया.
दो हजार फुट की ऊंचाई से बार्सिलोना का रंग धूसर पीला नजर आता है. बीच-बीच में किसी चित्रकार की कूंची से गलती से टपक गए लाल रंग के छींटों को छोड़ दें तो. घनी, गुंथी हुई बस्तियां मीलों तक फैली दिखती हैं. यूरोप का कोई और शहर आसमान से इतना सघन नहीं दिखता.
यूं एयरपोर्ट से शहर के रास्ते सड़कों पर दौड़ते हुए सफेद दीवारों और काले शीशों वाली नई सीरत की कई इमारतें भी नजर आईं, शहर की आत्मा पर पैबंद सी चिपकी हुई. मुझे लगता है हर शहर का एक रंग मुकर्रर होना चाहिए, उसी रंग में शहर की आत्मा धड़कती रहे और हम जैसे सैलानी उसी रंग की तलाश में अपनी खोह से बाहर निकल उसकी गलियों के ओर-छोर मापते रहें.
अमूमन सैलानियों का पहला पड़ाव शहर का सबसे हलचल भरा इलाका ला राम्बला स्ट्रीट रहता है, वो सड़क जिसकी पहचान 20वीं सदी के लोकप्रिय स्पैनिश कवि लॉर्का के उस कथन का पर्याय बन गई है कि अगर दुनिया में कोई ऐसी सड़क है जो मैं चाहता हूं कभी खत्म ना हो, तो वो ला राम्बला है.
यूं तो दोनों ओर रेस्तरां और गिफ्ट शॉप और बीच के पेवमेंट पर खाने-पीने के लिए लगी कुर्सियों वाली इस सड़क की कुल लंबाई सवा किलोमीटर है, लेकिन चिनार की घनी-छितरी डालियों के नीचे इसकी गहमागहमी और रौनक में वाकई कुछ घंटे यूं निकल जाते हैं कि पता ही नहीं चलता.
ला राम्बला पहुंचकर जाने क्यों जनपथ के कुछ लंबे और चांदनी चौक के कुछ चौड़े होने का एहसास हुआ. घर से दूर की यात्रा अक्सर यूं ही घर के बेहद पास भी ले आती है. भले ही वापस लौटने पर अपनी जानी-पहचानी सड़कों पर सुकून का एक दिन ढूंढने में फिर बरसों निकल जाएं. ला राम्बला से सटे मध्यकालीन इमारतों को सहेजे गौथिक क्वार्टर्स की सैर भी पैदल चलकर ही की जा सकती है.
दुनियाभर से सैलानी जिस एक इमारत को देखने बार्सिलोना आते हैं वो है सवा सौ साल से अपने पूरा होने का इंतजार कर रहा बैसीलिका, ‘सगराडा फैमिलिया’ यानि होली फैमिली. इमारत यूं तो एक चर्च है, लेकिन ये वक्त से बहुत आगे चल रहे एक आर्किटेक्ट के जुनून और उसे साकार कर पाने की उसकी अंतहीन प्रतीक्षा की कहानी भी है.
प्रकृति के सबसे सघन स्वरूप जंगलों से प्रेरणा लेते हुए चर्च की हर दीवार उसकी अनूठी कल्पना की इबारत है. इस चर्च की शुरुआत मैड्रिड के आर्किटेक्चर के पर्याय बन चुके आर्किटेक्ट एंटनी गाउडी ने सवा सौ साल पहले 1882 में शुरू की थी. ये जानते हुए कि उसके जीते-जी ये इमारत खत्म नहीं हो पाएगी, गाउडी ने इसकी एक ओर की दीवार पूरी तरह बना दी, ताकि उनके बाद आए आर्किटेक्ट उसी के तर्ज पर बाकी हिस्सों को पूरा कर सकें.
2010 में यूनेस्को के इस चर्च को वर्ल्ड हेरिटेज साइट घोषित करने के बाद काम में तेजी आई है और उम्मीद है कि 2024 में गाउडी की सौवीं पुण्यतिथि पर इसे बनाने का काम पूरा हो जाएगा. हालांकि इमारत का भीतरी हिस्सा पूरी तरह तैयार है और हर रोजा हजारों सैलानी इसे देखने जाते हैं.
सगराडा फैमीलिया ही नहीं, बार्सिलोना के चप्पे-चप्पे पर गाउडी की अनूठी परिकल्पना और अद्वितीय कौशल की छाप नजर आती है. उन्नीसवीं सदी के आखिरी दशकों में गाउडी के डिजाइन किए घर में रहना शहर के रईसों के लिए स्टेटस सिंबल माना जाता था. इनमें से ज्यादातर इमारतें अब टूरिस्ट स्पॉट में तब्दील हो गई हैं. इनमें सबसे चर्चित है अनूठी आकृतियों और रंगों वाला ‘कासा बाटलो’ और घुमावदार दीवारों और मेटल की कलात्मक फेंस वाला ‘कासा मिला’.
कभी बार्सिलोना को समुद्र की तरफ पीठ किए खड़ा शहर माना जाता था. यानी जो घर समुद्र तट से जितनी दूर उसे उतना ही अपस्केल और समृद्ध माना जाता. ओलंपिक खेलों ने शहर की नजरें पलटी. खिलाड़ियों को ठहराने के लिए सागर की ओर खुलते अपार्टमेंट बनाए गए, जो अब शहर के उच्च मध्यवर्ग की रिहायश हैं. अब शहर के समुद्र तट से पूर्वी और दक्षिणी योरोपीय देशो के लिए लग्जरी क्रूज चलते हैं और हार्बर का इलाका हमेशा चहल-पहल से भरा रहता है.
बार्सिलोना में देखे जाने को इतना कुछ है कि तीन दिन बिताने के बाद भी ओलंपिक विलेज को दरवाजे से छूकर लौटना पड़ा. एक ओर टिबिडाबो पहाड़ी से शहर का विहंगम नजारा और पहाड़ की चोटी पर बने एम्यूजमेंट पार्क का लुत्फ है तो दूसरी ओर शहर के बाहर फुटबॉल के सरताज मेसी का होम स्टेडियम कैंप नू जहां स्टेडियम की मिट्टी और घास बाकायदा शो पीस के तौर पर बेची जाती है.
सांस्कृतिक महत्व की इमारतों और चर्चों की तो गिनती ही क्या. इसलिए शहर छोड़ते वक्त दूसरी मुलाकात का वादा तो बनता ही था.
(डॉ. शिल्पी झा जीडी गोएनका यूनिवर्सिटी के स्कूल ऑफ कम्यूनिकेशन में एसोसिएट प्रोफेसर हैं. इसके पहले उन्होंने बतौर टीवी पत्रकार ‘आजतक’ और ‘वॉइस ऑफ अमेरिका’ की हिंदी सर्विस में काम किया है.)
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