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बनारसी साड़ियां बनाने वाले बुनकरों का क्या है हाल?

14वीं सदी के पारंपरिक शिल्प पर काम कर रहे बुनकर अब संघर्ष करते नजर आ रहे हैं

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<div class="paragraphs"><p>14वीं सदी के पारंपरिक शिल्प पर काम कर रहे बुनकर अब संघर्ष करते नजर आ रहे हैं</p></div>
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14वीं सदी के पारंपरिक शिल्प पर काम कर रहे बुनकर अब संघर्ष करते नजर आ रहे हैं

फोटो: क्विंट

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बुनकर कॉलोनी की पक्की सड़क जहां खत्म होती है, वहीं से तंग गलियों का जाल शुरू हो जाता है. ये गलियां अंदर ही अंदर होते हुए बुनकरों की अन्य कॉलोनियों तथा बड़े बाजार पहुंचती हैं. इन गलियों में हमारे आगे-आगे चल रहे हैं ज़ाकिर रहमान, जो हमें गलियों-मोहल्लों और बुनकरी के कारखानों की तमाम जानकारियां देते हुए चल रहे हैं. हमें तमाम लोग चबूतरों और सीढ़ियों पर बैठे दिखते हैं. कुछ बूढ़े -बुजुर्गों के गुट ठंड की इस ठिठुरन में आग तापते भी दिख जाते हैं.

इनके पास जाने और हालचाल पूछने पर शमीम अंसारी कहते हैं कि आग तापते और सीढ़ियों पर बैठ धूप सेंकते दिख रहे लोग सिर्फ ठंड की मार की वजह से यहां-वहां नहीं बैठे हैं, बल्कि वजह ये है कि लोगों के पास काम नहीं है. असल मार तो बुनकरी के कारखानों की मशीनों के बंद होने की वजह से लोगों पर 'बेरोजगारी' की पड़ी है.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के संसदीय क्षेत्र बनारस के अंतर्गत बुनकरों के तमाम मोहल्ले आते हैं. बनारस की सभ्यता में बनारसी साड़ियाों का ताना-बाना प्रमुख स्थान रखता है, जिसकी चर्चा देश-विदेश तक में है. शमीम आगे बताते हैं,

"कोरोना महामारी के पहले भी हम बुनकर तमाम समस्याओं से जूझ ही रहे थे लेकिन लॉकडाउन ने तो कमर ही तोड़ दी. बाजार में मांग कम हो गई. सरकार द्वारा हमारी सुध नहीं ली गई तो बुनकरी के कारीगरों को अपना पारिवारिक और पुस्तैनी काम छोड़ कर बंबई (मुंबई) और सूरत जाना पड़ा, ताकि कुछ पैसे जुटें और घर का खर्चा चल जाए."

इन बुनकरों के मोहल्लों में तमाम ऐसे लोग मिले जो सूरत और मुंबई रहकर कोरोना की तीसरी लहर के डर से अपने घर लौट आए हैं. इनके सामने अब रोजी-रोटी की गंभीर समस्या है. इन बुनकरों का कहना है कि 'अपना पुस्तैनी और पारिवारिक काम छोड़ कर दूसरे किसी शहर कमाने के लिए कोई क्यों जाना चाहेगा. यदि यहां रोजी-रोटी का संकट न होता तो हम कभी बाहर काम करने नहीं जाते.' बुनकरी के कारीगरों ने यह भी कहा कि 'कारीगरों का मेहनताना जो पहले थे वही आज भी चला आ रहा जबकि महंगाई पहले से दोगुनी हो चुकी है. ऐसे में वो अपने परिवार का पेट कैसे पालें!'

हम इस गली से आगे बढ़ते हैं तो एक चारों ओर से ईंट की कुछ ऊंची दीवार से घिरे खाली मैदान में कुछ लोग धूप सेंकते दिख जाते हैं. हमें यहां शिव प्रसाद मिलते हैं जो कि बचपन से ही बनारसी साड़ियों के कारखाने में काम कर रहे हैं. शिव प्रसाद हमें बताते हैं,"लॉकडाउन लग जाने के बाद बुनकर कारखानों के मालिकों ने कर्ज लेकर ज़ेवर बेचकर खुद की रोजी-रोटी चलाई और उन कारीगरों को खाना खिलाया जो कि लॉकडाउन लगने की वजह से अपने घर नहीं लौट पाए."

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लॉकडाउन तो खुल गया लेकिन इसके बाद महंगाई एक बहुत बड़े संकट के रूप में इन बुनकरों के सामने आ खड़ी हुई है. हमें इमामुद्दीन मिलते हैं और बताते हैं,"कच्चे माल की कीमतें बहुत बढ़ गईं हैं. लॉकडाउन के पहले बनारसी साड़ियों के लिए इस्तेमाल होने वाला धागा अगर 200-220 रुपए तक था तो अब वह 300-320 रुपए तक पहुंच गया है. कारखाने में हमारी लागत बढ़ गई और बाजार मंदा होने की वजह से काम मिलने कम हो गए तो कारीगरों का मेहनताना भी नहीं बढ़ाया जा सका."

उत्तर प्रदेश में विधान सभा चुनाव नजदीक हैं. चुनाव के इस माहौल में सभी पार्टियां जोर-शोर से प्रचार में लगी हुई हैं. वादों और वचनों की लंबी फेहरिस्त हर रोज पेश की जा रही हैं, किंतु उत्तर प्रदेश के बनारस शहर की प्राचीन संस्कृति और सभ्यता में शामिल बनारसी साड़ियों के इस कारोबार की सुध कोई पार्टी या दल नहीं ले रहे हैं. बुनकर मानते हैं कि उनकी बात रखने के लिए उनके पास कोई बड़ा संगठन नहीं है इसलिए उनकी समस्या पर किसी का ध्यान जाता ही नहीं है.

उनका नाम न लेने की शर्त पर कुछ बुनकर बताते हैं कि बुनकरों के कुछ छोटे-छोटे संगठन मौजूद तो हैं लेकिन असल में सरकार से कोई बात करने या सरकार के सामने समस्याएं रखने को कोई तैयार नहीं है. बुनकरों के कुछ संगठन के नेता तो बड़ी पार्टियां जॉइन करके अपनी राजनीति चमकाने में जुट गए हैं. उन्होंने बुनकरों को धोखा दिया. वे आगे कहते हैं कि सरकारी योजनाएं यदि आती भी हैं तो बुनकरों को पता ही नहीं लगने दिया जाता और उस योजना की रकम को ऊपर ही पचा लिया जाता है. इसमें कुछ संगठन के नेता भी शामिल रहते हैं.

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