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दिल्ली के मुख्यमंत्री और आम आदमी पार्टी के संयोजक अरविंद केजरीवाल (Arvind Kejriwal) और केंद्र की मोदी सरकार (Modi Government) के बीच लगातार विवाद सामने आते रहे हैं। ताजा विवाद दिल्ली नगर निगम के एकीकरण का मामला है। केंद्र और दिल्ली सरकार के बीच कानूनी शक्तियों की लड़ाई में केजरीवाल अक्सर कमतर आंके जाते रहे हैं।
दरअसल, दिल्ली में सत्तारूढ़ आम आदमी पार्टी लगातार केंद्र के फैसले पर असहमति जताती रही है, यही वजह है कि केंद्र और राज्य सरकार के बीच विवाद खुलकर सामने आते रहे हैं। चाहे वह दिल्ली में मुख्य सचिव की नियुक्ति हो, प्रदूषण स्तर को नियंत्रित करने का मामला हो, घर-घर राशन पहुंचाने की बात हो या एनसीटी एक्ट को लेकर दोनों की राय या फिर कश्मीर फाइल्स को जनता को फ्री दिखाने की बात। तमाम विवाद खुलकर जनता के सामने आए जिन पर दोनों ओर से बयानबाजी भी हुई।
हाल ही में दिल्ली नगर निगम के एकीकरण को लेकर दिल्ली के मुख्यमंत्री केजरीवाल ने कहा कि नगर निगम केंद्र सरकार के अधीन कर दिया जाएगा तो नगर निगम और दिल्ली सरकार के बीच तालमेल नहीं रहेगा। उन्होंने कहा कि शहर और राज्य के लिए सभी एजेंसियों के बीच तालमेल होना चाहिए, लेकिन एजेंसियों के बीच तालमेल न होने पर दिक्कत आएगी।
केंद्र सरकार की तरफ से दिल्ली नगर निगम अधिनियम में संशोधन के लिए संसद में पेश विधेयक पर केजरीवाल ने आपत्ति जताते हुए इसे निगम चुनाव को टालने वाला करार दिया। उन्होंने कहा कि दिल्ली सरकार को नगर निगम से दूर करने के लिए ये फैसला लिया गया है। उन्होंने कहा कि नगर निगम में वाडरें की संख्या कम करने का कोई औचित्य नहीं है, मगर चुनाव टालने के लिए वार्ड कम करने का फैसला लिया गया है।
साल 1966 में दिल्ली एडमिनिस्ट्रेशन एक्ट के तहत दिल्ली नगरपालिका का गठन किया गया। इसके प्रमुख उस समय उपराज्यपाल होते थे और नगरपालिका के पास विधायी शक्तियां नहीं थी।
इसी तरह से घर-घर राशन पहुंचाने की दिल्ली सरकार की स्कीम को केंद्र में सत्तारूढ़ बीजेपी ने घोटाला करने वाला करार दिया। केजरीवाल सरकार का दावा था कि जनता को पिज्जा-बर्गर अगर घर पहुंचा जा सकता है राशन क्यों नहीं।
बीजेपी का आरोप था कि इस योजना के जरिए दिल्ली सरकार की मंशा गरीबों के नाम पर मिले राशन को डायवर्ट कर घोटाला करने की थी। केंद्र सरकार ने वन नेशन-वन राशन कार्ड का प्रावधान किया था, लेकिन दिल्ली की सरकार ने इस विषय पर आगे बढ़ने से मना कर दिया। हालांकि केंद्र और दिल्ली की सरकार अगर किसी एक मुद्दे पर कानून बनाती है तो केंद्र का कानून लागू होगा। जिसमें दिल्ली सरकार को कमतर माना जा सकता है।
दरअसल पंजाब चुनाव जीतने के बाद आम आदमी पार्टी ने भारतीय राजनीतिक परंपरा को चुनौती देते हुए मुख्यमंत्री कार्यालय से देश के राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री की तस्वीर हटा दी। यहां तक कि महात्मा गांधी की तस्वीर भी गायब रही। हालांकि, पंजाब के मुख्यमंत्री भगवंत मान ने भगत सिंह और बाबा भीमराव अंबेडकर की तस्वीर लगाई, लेकिन इसे भारतीय राजनीतिक व्यवस्था में स्थापित मानकों के ठीक उल्टा माना गया।
इस विवाद को लेकर आप संयोजक केजरीवाल ने कहा कि दिल्ली के हर नागरिक के जीवन की रक्षा करना मुख्यमंत्री के रूप में उनका पहला कर्तव्य है। लेकिन बड़ी बात ये है कि चाहे पंजाब हो, गुजरात हो या उत्तराखंड, उन्होंने हर जगह वहां के हालात और उसकी वित्तीय स्थिति को जाने बिना मुफ्त का वादा थमाने का काम किया।
दिल्ली सरकार और केंद्र के बीच जंग की शुरूआत में एनसीटी एक्ट को भी माना जाता है। जिसके आधार पर दिल्ली में उपराज्यपाल की शक्ति में इजाफे का दावा किया गया। हालांकि ये सुप्रीम कोर्ट के 4 जुलाई 2018 के फैसले के खिलाफ माना गया, जिसमें कहा गया था कि फाइल्स उपराज्यपाल (एलजी) को नहीं भेजी जाएंगी, चुनी हुई सरकार सभी फैसले लेगी और एलजी को फैसले की कॉपी ही भेजी जाएगी।
इस बीच ऐसे कई मौके आये जब केंद्र और दिल्ली के बीच केजरीवाल जंग हार गए। मसलन - उपराज्यपाल नजीब जंग और केजरीवाल सरकार के बीच कई महीनों तक अधिकारों को लेकर चली रस्साकशी में दिल्ली सरकार को हाईकोर्ट से तगड़ा झटका लगा। यहां तक कि कोर्ट ने केजरीवाल सरकार द्वारा जारी कई अधिसूचनाओं को भी रद्द करते हुये उन्हें अवैध करार दिया। दिल्ली के उपराज्यपाल के पास अन्य राज्यपालों की तुलना में अधिक शक्तियां हैं।
संविधान के अनुच्छेद 239AA का बार-बार जिक्र किया गया और दोनों पक्षों को याद दिलाया गया कि दिल्ली राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र है न कि राज्य। नियमों के अनुसार अगर सरकार और उपराज्यपाल के बीच में कोई मतभेद होते हैं तो उपराज्यपाल राष्ट्रपति के पास मामला भेज सकते हैं।
हालांकि पहले दिल्ली नगरपालिका के पास विधायी शक्तियां नहीं थी। 1990 तक दिल्ली में इसी तरह शासन चलता रहा। बाद में संविधान में 69वां संशोधन विधेयक पारित किया गया। संशोधन के बाद राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र अधिनियम, 1991 में लागू हो जाने से दिल्ली में विधानसभा का गठन हुआ। दूसरे राज्यों की तरह दिल्ली में भी मुख्यमंत्री और मंत्रिमंडल का प्रावधान किया गया है, जो विधानसभा के लिए सामूहिक रूप से जि़म्मेदार होते हैं। लेकिन केंद्र और दिल्ली की सरकार अगर किसी एक मुद्दे पर कानून बनाती है तो केंद्र का कानून लागू होगा। ऐसे में केजरीवाल कानूनी लड़ाई में केंद्र से अक्सर हारते रहे हैं।
--आईएएनएस/
पीटीके/एसकेपी
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