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"तेरह महीने में हमने ऐसी रेखाएं खींची हैं, जो काल के कपाल पर अमिट रहेंगी, जिन्हें बदला नहीं जा सकता."- तेरह महीने पुरानी एनडीए सरकार के खिलाफ जब अप्रैल 1999 लोकसभा में अविश्वास प्रस्ताव लाया गया था, तब तत्कालिन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी (Atal Bihari Vajpayee) ने ये बात कही थी.
लेकिन सदन ने फैसला उनकी सरकार के खिलाफ दिया और महज एक वोट से वाजेपयी की सरकाई गिर गई. इसके बाद वाजपेयी ने अपने पद से तुरंत इस्तीफा दे दिया.
आज देश के पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की पुण्यतिथी है. तो आइए इस मौके पर जानते हैं किस्सा देश के उस सियासी घटनाक्रम का जिसका केंद्र वाजपेयी थें.
लोकसभा में वाजपेयी सरकार का विश्वास प्रस्ताव 269 के मुकाबले 270 वोटों से गिरा था. यह सब जिस तरह से हुआ वह देश की संसदीय राजनीति के लिए एक किस्सा बन चुका है.
वाजपेयी सरकार को सत्ता से बेदखल करने की शुरुआत सुब्रमण्यम स्वामी द्वारा आयोजित एक टी-पार्टी से हुई थी. दरअसल जनसंघ से जुड़ाव रखने वाले सुब्रमण्यम स्वामी अटल सरकार में अपनी उपेक्षा से दुखी थे. उन्होंने तमिलनाडु में विपक्ष में बैठी AIADMK कीं नेता जे जयललिता के पास सरपरस्ती तलाशी.
जयललिता अटल को समर्थन दे रही थीं और उसके बदले में चाह रही थीं कि वाजपेयी सरकार तमिलनाडु में सत्तासीन करुणानिधि सरकार पर नकेल कसे.
तमाम कोशिशों के बाद जब जयललिता को दिल्ली से अपेक्षित मदद नहीं मिली, तो स्वामी ने ट्रंप कार्ड चला. उन्होंने एक चाय पार्टी का आयोजन किया, जिसमें जयललिता की मुलाकात कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी से हुई.
टी-पार्टी के करीब दो हफ्ते बाद ही जयललिता दिल्ली वापस लौटीं. तमिल नव वर्ष के मौके पर 14 अप्रैल को उन्होंने तत्कालीन राष्ट्रपति के आर नारायणन से मुलाकत किया और वाजपेयी सरकार से समर्थन वापस लेने की चिट्ठी सौंप दी.
इसके बाद तत्कालीन पीएम वाजपेयी से कहा गया कि वह यह साबित करें कि संसद में उनकी सरकार बहुमत में है.
17 अप्रैल को संसद पहुंचने तक वाजपेयी जी को विश्वास था कि लोकसभा में वह बहुमत का आंकड़ा जुटा लेंगे. अटल जी के भरोसेमंद मंत्री प्रमोद महाजन ने पूरा अंकगणित तैयार कर रखा था.
लेकिन, विश्वास मत पर मतदान की प्रक्रिया शुरू होने से ठीक पहले BSP प्रमुख मायावती ने सदन में ऐलान कर दिया कि उनकी पार्टी BJP के खिलाफ वोट करेगी. BSP सुप्रीमो की इस घोषणा ने अटलजी और उनकी पूरी पार्टी को हैरानी में डाल दिया.
वाजपेयी सरकार की ओर से फ्लोर मैनेजमेंट देख रहे नेताओं को इसपर भी यकीन था कि अंतिम आंकड़ा उनकी सरकार के पक्ष में ही रहेगा.
उस वक्त फारूक अबदुल्ला की नेशनल कांफ्रेंस वाजपेयी सरकार की सहयोगी थी और विश्वास मत के पक्ष में वोटिंग की घोषणा कर चुकी थी. लेकिन, पार्टी के एक सांसद सैफुद्दीन सोज ने पार्टी के व्हिप के खिलाफ जाकर एनडीए के विरुद्ध वोट डाल दिया.
कहानी यही खत्म नहीं हुई. इसके बाद एक ऐसी अप्रत्याशित घटना हुई, जिसकी कल्पना कभी किसी ने नहीं की थी.
जब विश्वास मत के लिए तत्कालीन स्पीकर जीएमसी बालयोगी के निर्देश पर वोटिंग की प्रक्रिया शुरू हुई, तभी सत्तापक्ष के लोगों की नजर सदन में मौजूद उड़ीसा के तत्कालीन मुख्यमंत्री कांग्रेस नेता गिरिधर गमांग पर पड़ गई.
सदन में चारो और हंगामा होने लगा. वो 17 फरवरी, 1999 को उड़ीसा के मुख्यमंत्री नियुक्त हो चुके थे, लेकिन उन्होंने अभी तक लोकसभा की सदस्यता से इस्तीफा नहीं दिया था.
तकनीकी तौर पर गमांग की लोकसभा सदस्यता खत्म नहीं हुई थी, इसलिए उन्हें कांग्रेस के सदस्य के रूप में वोटिंग प्रक्रिया में हिस्सा लेने की अनुमति दी गई.
इस तरह से वाजेपयी सरकार मात्र एक वोट से विश्वास प्रस्ताव हार गई.
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