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बंधुआगिरी (Bonded Labour) की शुरुआत असमान सामाजिक ढांचे से हुई जिसमें सामंतवादी परिस्थितियों के लक्षण थे. ये कुछ निश्चित प्रकार की ऋण ग्रस्त या जबरन मजदूरी, बेगार, नाम मात्र की मजदूरी, ऋण भार का परिणाम है जो लंबे समय से प्रचलन में हैं, और समाज के आर्थिक रूप से शोषित, लाचार और कमजोर वर्ग इसमें शामिल है.
वे किसी कर्ज के बदले में साहूकार को सेवा प्रदान करने के लिए यानी मजदूरी करके कर्ज उतारने के लिए सहमत होते हैं. कभी-कभी यह मामूली रकम चुकाने के लिए कई पीढ़ियां गुलामी में काम करती हैं और ब्याज के फेर में पड़ जाने के कारण यह गुलामी एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को स्थानांतरित कर दी जाती है और दुर्भाग्यपूर्ण गरीब मजदूर इसे भाग्य के भरोसे छोड़कर आजाद हिंदुस्तान में गुलाम की भांति जीवन जीता है.
इसी बंधुआ मजदूरी का कलंक भारत के माथे पर आज भी गहराता जा रहा है. बंधुआ मजदूरी को खत्म करने के लिए बने कानून के अनुसार कर्ज लेकर उस कर्ज के एवज में काम करना, जबरन काम करना, आने जाने पर रोक होना, अपने उत्पाद को बाजार की दर पर बेच न पाना बंधुआ मजदूरी है.
इस कानून में जिले का जिलाधिकारी और उप खंड अधिकारी को प्रथम श्रेणी के मजिस्ट्रेट का पावर होता है जिसके तहत बंधुआ मजदूरों की पहचान, मुक्ति और पुनर्वास के लिए सतर्कता कमेटी गठित कर कानून और पुनर्वास की योजना को लागू करना है. इस कानून में जिलाधिकारी को समरी ट्रायल का भी पावर होता है लेकिन खराब व्यवथाओं और सरकार के दबाव के कारण कानून और योजना लागू नहीं हो पाती जिससे बंधुआ मजदूरी बढ़ती जाती है.
आपातकाल के दौरान तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने 20 सूत्रीय कार्यक्रम में बंधुआ मजदूरी के मुद्दे को समाहित किया था. पहली बार 25 अक्टूबर, 1975 में एक नोटिफिकेशन जारी हुआ और इस नोटिफिकेशन ने 1976 में बंधुआ मजदूरी प्रथा उन्मूलन अधिनियम की शक्ल ले ली है. देश के बंधुआ मजदूरों का कर्ज खत्म कर कानून को कठोरता से लागू करने की घोषणा हुई.
इसी क्रम में सरकार ने रिहा कराए गए बंधुआ मजदूरों का शारीरिक और मनोवैज्ञानिक पुनर्वास सुरक्षित करने और राज्य सरकारों के इस काम में उनकी मदद करने के उद्देश्य से 1971 में 50 अनुपात 50 के आधार पर एक केंद्र द्वारा प्रायोजित पुनर्वास की योजना शुरू की जिसमें समय समय पर कई परिर्वतन हुए हैं.
मई, 2000 से पुनर्वास की सहायता को प्रति बंधुआ मजदूर ₹10,000 से बढ़ाकर ₹20,000 कर दिया गया था. इस पुनर्वास की योजना में बंधुआ मजदूरों का सर्वेक्षण और बंधुआ मजदूरी के मुद्दे पर समाज में जागरूकता और चेतना जगाने वाली गतिविधियों और उसके होने वाले प्रभाव का मूल्यांकन करने के लिए सरकार को वित्तीय सहायता प्रदान करने का प्रावधान भी था.
साल 2016 में फिर से बंधुआ मजदूरों की पुनर्वास की योजना में एक बदलाव किया गया और मुक्त बंधुआ मजदूरों में प्रति पुरुष बंधुआ मजदूर को एक लाख रुपए, महिला बंधुआ मजदूर महिला को दो लाख रुपए, मानव तस्करी के शिकार बंधुआ मजदूरों, अनाथ बच्चों आदि को तीन लाख रुपए का आर्थिक सहयोग दिया.
केंद्र सरकार की बंधुआ मजदूरों की पुनर्वास की योजना, 2016 के अंतर्गत संपूर्ण अनुदान केंद्र सरकार की ओर से दिया जाता है जो हर साल 47 करोड़ है लेकिन सरकार इसको समय पर खर्च नहीं करती. मैंने साल 2008 से बंधुआ मजदूरी के मुद्दे पर बंधुआ मुक्ति मोर्चा के साथ स्वामी अग्निवेश के नेतृत्व में कार्य शुरू किया. बंधुआ मजदूरों को देश के अलग अलग राज्यों और अलग अलग क्षेत्रों जैसे कृषि क्षेत्र, निर्माण क्षेत्र, पत्थर, कारखानों, रेस्टोरेंट और होटल, खदानों, घरों आदि से मुक्त करवाया है जिनमें महिलाएं और बच्चे शामिल हैं.
छत्तीसगढ़ में तत्कालीन मुख्यमंत्री रमन सिंह के साथ इन मुक्त बंधुआ मजदूरों की बैठक हुई जिसमें स्वयं रमन सिंह ने मजदूरों को पुनर्वास का आश्वासन दिया और उन्हें ₹20,000 प्रति मजदूर के हिसाब से आर्थिक सहयोग दिया गया.
पूर्ण पुनर्वास के उद्देश्य से एक जनहित याचिका सुप्रीम कोर्ट में दाखिल की गई जिसमें मानव तस्करी और बलात्कार पीड़ित महिला बंधुआ मजदूरों के कई मामले थे जो साल 2012 के थे. अचानक कई सालों बाद सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस हेमंत गुप्ता ने बंधुआ मजदूरों के लिए प्रोग्रेसिव फैसला देने ओर बंधुआ मजदूरी के खात्मे की दिशा में सोचने की बजाय बंधुआ मजदूरों, कार्यरत सामाजिक संगठनों और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं पर भद्दी टिप्पणी कर दी जिसका नेशनल कैंपेन कमेटी फॉर इरेडिकेशन ऑफ बॉन्डेड लेबर पुरजोर विरोध करता है, क्योंकि समाज के आखिरी पायदान पर खड़े इन बंधुआ मजदूरों के सामाजिक न्याय पर हमला है और यह सुप्रीम कोर्ट के द्वारा बंधुआ मजदूरी के मामले में दिए गए ऐतिहासिक फैसलों का मजाक उड़ाता है और बंधुआ मजदूरी की कुप्रथा को बढ़ाने में अपनी भूमिका निभाएगा.
साल 2013 में देश भर में मजदूरी के मुद्दे पर काम करने वाले जन संगठनों और यूनियनों के सहयोग से नेशनल कैंपेन कमेटी फॉर इरेडिकेशन ऑफ बॉन्डेड लेबर नेटवर्क बना जो वर्किंग पीपुल्स कोएलेशन, सोशियो लीगल इंफॉर्मेशन, बीएमएम, लेबर लाइन सहित कई संगठनों के साथ मिलकर 3000 बंधुआ मजदूरों को जम्मू एंड कश्मीर के ईंट भट्टों से-
लगभग 18,000 से ज्यादा मजदूरों को देशभर से मुक्त करवाया गया और उनके पुनर्वास के लिए आज भी संघर्ष जारी है. मुक्त बंधुआ मजदूरों में से पचास प्रतिशत बंधुआ मजदूरों को ही मुक्ति प्रमाण पत्र प्राप्त हो पाता है और इन 50% में से 25% को ही आर्थिक अनुदान मिल पाता है जबकि पूर्ण पुनर्वास 5 प्रतिशत से भी कम मजदूर परिवारों को मिल पाता है.
साल 2007 में अर्जुन सेन गुप्ता कमेटी की रिपोर्ट के अनुसार देश की कुल आबादी का 38% हिस्सा गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन कर रहा है जिन्हे न्युनतम मजदूरी भी नहीं मिलती है.
साल 2007-2008 में दिल्ली में बंधुआ मुक्ति मोर्चा द्वारा सर्वे किया गया जिस रिपोर्ट के मुताबिक दिल्ली में 90% मजदूर प्रवासी है और फोर्स लेबर है. हाल ही जारी वर्किंग पीपुल्स कोएलेशन की रिपोर्ट के मुताबित असंगठित क्षेत्र के 95% मजदूरों को दिल्ली सरकार द्वारा तय की गई न्यूनतम मजदूरी नहीं मिलती है. जो 1982 में सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस पीएन भगवती के द्वारा दिए गए बंधुआ मुक्ति मोर्चा बनाम भारत सरकार फैसले के अनुसार बंधुआ मजदूर है.
बंधुआ मजदूरी पर पीयूडीआर बनाम भारत सरकार, नीरजा चौधरी बनाम मध्य प्रदेश सरकार सहित कई फैसले हैं जो बंधुआ मजदूरी के मामले में बंधुआ मजदूरों को न्याय दिलाने में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं. पूरे विश्व में भारत एक इकलौता राज्य है जहां न्यूनतम मजदूरी का न देना अपराध की श्रेणी में आता है.
आस्ट्रेलिया के वॉक फ्री फाउंडेशन और आईएलओ की रिपोर्ट के अनुसार 24 मिलियन गुलामी के शिकार हैं जिनमें से 18.3 मिलियन बंधुआ हैं.
मध्यप्रदेश के सागर जिले की रहने वाली एक महिला और उसके परिवार के साथ-साथ 18 अनुसूचित जाति के बंधुआ मजदूरों को नोएडा, गौतमबुद्ध नगर, उत्तरप्रदेश में जेपी कंस्ट्रक्शन कंपनी के द्वारा चल रहे निर्माण कार्य से 2014 में मुक्त कराया गया, जहां मजदूर अपने बच्चों और महिलाओं को लेकर बेगारी कर रहे थे. फिर इन्हें उत्तर प्रदेश सरकार ने मुक्ति प्रमाण पत्र जारी किए और मध्यप्रदेश सरकार ने आर्थिक अनुदान, पुनर्वास के रूप में दिया.
एक अन्य महिला जिसे बंधुआ मजदूरी से मुक्त कराया गया वह दिल्ली के द्वारका सेक्टर 7 के डीडीए पार्क में स्थित शौचालय में सफाईकर्मी के रूप में 2014 से 2017 तक बेगारी करती रही और आज तक उसे उसकी मजदूर उसके प्राथमिक नियोक्ता और ठेकेदार ने नहीं दी.
नेशनल कैंपेन कमेटी फॉर इरेडिकेशन ऑफ बॉन्डेड लेबर की टीम ने इस पीड़ित महिला को द्वारका एसडीएम के साथ मिलकर बंधुआगिरी से मुक्त कराया. बंधुआ मुक्ति प्रमाण पत्र के आधार पर दिल्ली सरकार ने वर्ष 2019 में आर्थिक सहायता दी लेकिन वो अभी भी रोजगार और आवास प्राप्त करने के लिए संघर्ष कर रही है.
महिलाओं और बालिकाओं को पश्चिम बंगाल, ओडिशा, झारखंड जैसे राज्यों से दिल्ली, हरियाणा, महाराष्ट्र, पंजाब जैसे राज्यों घरेलू काम के लिए मानव तस्करी के जरिए लाया जाता है.
हाल ही में 22 वर्षीय आदिवासी महिला और एक बालिका को नेशनल कैंपेन कमेटी फॉर इरेडिकेशन ऑफ बॉन्डेड लेबर की टीम ने एसडीएम लाजपत नगर, दिल्ली के साथ मिलकर सुखदेव विहार से मुक्त करवाकर वापस छत्तीसगढ के जिला जशपुर भेजा. दिल्ली सरकार ने दोनो मुक्त बंधुआ मजदूरों को मुक्ति प्रमाण पत्र और तत्काल सहायता राशि पुनर्वास के रूप में प्रदान की है.
हरियाणा के फरीदाबाद जिले में हरियाणा सरकार द्वारा पुनर्वासित बंधुआ मजदूरी की कॉलोनी के मजदूरों की न्युनतम मजदूरी आज भी हरियाणा सरकार सुनिश्चित नहीं कर पा रही है. सही मायने में 1980 से पूर्ण पुनर्वास के लिए संघर्ष कर रहे मजदूर आज भी बंधुआ हैं और गुलामी कर रहे हैं.
एक पीड़िता दिल्ली के तीन कॉल सेंटर में काम कर चुकी है जहां उसे न तो कोई कर्मचारी नियुक्ति पत्र मिलता है और न ही न्यूनतम मजदूरी. जबकि दो कम्पनियों ने उसके नाम मात्र की मजदूरी नॉमिनल सेलैरी तक का भुगतान नहीं किया. यह पढ़ा लिखा वर्ग जिसे स्किल वर्कर का वेज रेट मिलना चाहिए उसे अनस्किल वर्कर का रेट भी नहीं मिल रहा है. मजबूरी में पीड़िता गुलामी कर रही है.
आज इस देश में 50 करोड़ असंगठित क्षेत्र के मजदूरों की हालत और संगठित क्षेत्र के मिड डे मील वर्कर, आशा वर्कर्स, आंगनवाड़ी वर्कर्स की हालत भी बंधुआ मजदूरों जैसी है. सरकार तत्काल बंधुआ मजदूरी प्रथा उन्मूलन अधिनियम 1976 और कोर्ट के फैसलों, श्रम कानूनों को कठोरता से लागू करे, असंगठित क्षेत्र के मजदूरों का सरकार नियमितीकरण कर उन्हें सामाजिक सुरक्षा के साथ जोड़े और अनपेड महिला वर्कर को सामाजिक सुरक्षा दे तभी मजदूरों की दुनिया में बदलाव आ सकता है.
(निर्मल गोराना बंधुआ मजदूरी उन्मूलन के लिए नेशनल कैंपेन कमिटी के संयोजक हैं. यह एक ओपिनियन पीस है. यहां लिखे विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है.)
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