advertisement
हम सबने पढ़ा है कि स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने के लिए भारत आने से पहले मोहनदास करमचंद गांधी दक्षिण अफ्रीका में वकील थे. लाला लाजपत राय से लेकर जवाहरलाल नेहरू जैसे कई स्वतंत्रता सेनानियों का यही पेशा था. ये पेशा उस शख्स के लिए अनफिट लगता था, लेकिन तमाम विरोधाभासों के बावजूद गांधी एक वकील थे, जिन्होंने अपनी जिंदगी के 20 साल कोर्ट में बिताए थे और फिर निराश होकर सबकुछ छोड़ दिया था (इस कारण कई युवा वकील कभी-कभी उनसे सहानुभूति भी रखते हैं)
उदाहरण के लिए उस लीजेंड की बात करते हैं, जो भारतीय वकीलों के आदर्श थे - फिरोज़शाह मेहता. ‘Lion of Bombay’ नाम से मशहूर ये शख्स भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के संस्थापकों में एक था. एक प्रभावशाली वक्ता होने के अलावा एविडेंस एक्ट का गहरा जानकार था. उन्हें पुराने केस जुबानी याद रहते थे. खुद गांधी ने उनकी प्रतिभा के बारे में कहा था, कि इतनी बुद्धिमत्ता उनमें नहीं है.
भारतीय कानून व्यवस्था की विरोधात्मक, भौतिक (सिविल मामलों में), भावनाओं या आध्यात्मिकता रहित प्रकृति उनकी उस सोच के विपरीत थी, जो अक्सर आज़ादी की लड़ाई में उनकी भूमिका और उनके लेखन में झलकती थी.
तो वकील के रूप में गांधी की भूमिका क्या थी? उनके जैसी शख्सियत किस प्रकार निष्ठुर कोर्ट के माहौल के अनुकूल रहा होगा? क्या इसी तजुर्बे ने, जिसमें उन्हें कई बार भारी नाकामी का सामना करना पड़ा था, उन्हें एक महात्मा के रूप में अवतरित किया?
बॉम्बे हाई कोर्ट देश के सबसे खूबसूरत अदालतों में एक है. अपने नियो-गोथिक शिल्प के साथ ये कानून इंटर्नों के बीच बेहतरीन सेल्फी के लिए पसंदीदा जगह है. इसके कोर्टरुम में बदरुद्दीन तैय्यबजी से लेकर राम जेठमलानी और नानी पालकीवाला से लेकर इन्दिरा जयसिंह और फाली नरीमन जैसे भारतीय बार के कुछ मशहूर वकीलों की दलीलें गूंजती रही हैं.
आप कितनी भी तहकीकात कर लें, लेकिन लंदन के इन्नर टेम्पर के बैरिस्टर एमके गांधी को यहां जजों के सामने दलीलें पेश करने के उदाहरण नहीं पाएंगे. इसका मतलब ये नहीं कि वो कोर्ट में नजर नहीं आते थे. अक्सर उन्हें झपकी लेते हुए देखा जा सकता था. आपनी आत्मकथा में गांधी ने खुद लिखा था:
वो लंदन में एक बैरिस्टर के रूप में विकसित की गई अपनी प्रतिभा का इस्तेमाल करने के लिए बॉम्बे आए थे. लेकिन जब तक बॉम्बे में रहे, हाई कोर्ट में एक भी मुकदमे की पैरवी करने में नाकाम रहे (अपनी आत्मकथा में उन्होंने लिखा है कि उन्होंने छह महीने तक प्रैक्टिस किया. रामचंद्र गुहा के मुताबिक वो नवम्बर 1891 से सितम्बर 1892 तक वहां थे). एक मामूली केस में अपीयर होने पर उन्हें शर्मिंदगी झेलनी पड़ी थी, जब वो विरोधी पार्टी को क्रॉस एग्जामिन नहीं कर पाए थे.
आत्मकथा में उनके कुछेक संस्मरणों से साफ है कि बॉम्बे कोर्ट में एक बैरिस्टर के रूप में वो पूरी तरह नाकाम थे. खुद को भारतीय कानून के अनुरूप ढालने के लिए उन्होंने काफी संघर्ष किया. लेकिन जिस आध्यात्मिक झुकाव के कारण उन्हें लंदन में बैरिस्टर की पढ़ाई करते हुए एक लेखक के रूप में कुछ कामयाबी मिली थी, वो यहां किसी काम न आई.
फिर भी बॉम्बे में गांधी का बिताया समय उस शख्सियत के निर्माण में अहम भूमिका निभाता रहा, जिस शख्सियत ने पूरी दुनिया को हैरत में डाल दिया. अगर आपके सामने गांधी शब्द बोला जाए, तो मुमकिन है कि एकबारगी आपके जेहन में हाथ में डंडा लिये लोगों की अगुवाई करते दांडी यात्रा करने वाले शख्स की तस्वीर उभरे.
बॉम्बे में अपनी आर्थिक हालत को देखते हुए उन्होंने पैदल चलने की आदत विकसित कर ली. ये संघर्ष कर रहे एक बैरिस्टर के लिए भी जरूरी था और उनके मुताबिक स्वस्थ रहने और बढ़ती उम्र और कमजोरी के बावजूद दांडी यात्रा जैसे आंदोलन करने के लिए भी.
बॉम्बे में नाकाम रहने के बाद गांधी को राजकोट वापस लौटना पड़ा. यहां अपने भाई (वकील) की मदद से उन्हें कुछ सफलता हासिल हुई. यहां वो सिविल मामलों में याचिकाकर्ताओं के लिए मैटर ड्राफ्ट करते थे, हालांकि अदालतों में बहस करना अब भी उनके लिए दूर की कौड़ी थी.
अपनी आत्मकथा में वो राजकोट में सामने आई एक परेशानी का जिक्र करते हैं. उनके भाई लक्ष्मीदास पोरबंदर के शासक के सत्तासीन होने से पहले उनके सचिव और सलाहकार थे. “उसी दौरान उनपर गलत सलाह देने का आरोप लगा.”
गांधी ने लिखा कि रियासत का ये मामला ब्रिटिश ‘पॉलिटिकल एजेंट’ के पास गया. जब वो एजेंट लंदन में था, तभी वहां एमके गांधी का उससे परिचय हो चुका था. लिहाजा लक्ष्मीदास ने गांधी को उनके पास अपनी पैरवी के लिए भेजा.
एजेंट गांधी से मुलाकात के लिए तो तैयार हो गया, लेकिन पूर्व परिचित होने का उन्हें फायदा नहीं मिला और एजेंट ने गांधी को जाने के लिए कह दिया.
खुद फिरोजशाह मेहता ने उन्हें ऐसा करने से रोका. उन्होंने चेतावनी दी कि उनकी नाराजगी से उन्हें कोई फायदा नहीं मिलेगा, अलबत्ता वो खुद बर्बाद हो जाएंगे. “उससे कहो कि उसे अब भी जिंदगी की समझ विकसित करना बाकी है.” ये मेहता की सलाह थी.
इससे गांधी की जिंदगी में दो बदलाव आए. दोनों बदलावों का असर आजादी की लड़ाई में दिखा. इनमें पहला था दार्शनिक अहसास:
कड़वी सच्चाई और उससे पनपी सोच ने गांधी को असहज बना दिया. उन्हें लगा कि काठियावाड़ जैसी साजिश और भेदभाव वाली जगह में वकालत करना मुश्किल है. ऐसी हालत में इंसाफ मिलना नामुमकिन है. उन्होंने सोचा, बेहतर है कि भारत छोड़ा जाए और दुनिया के किसी दूसरे हिस्से में नया अनुभव प्राप्त किया जाए.
बॉम्बे और राजकोट में हुई घटनाओं का समय जो भी रहा हो, सच्चाई ये थी कि गांधी का मन भारत से ऊब चुका था और वो एक मौके की तलाश में थे. इसकी वजह रामचन्द्र गुहा अपनी किताब Gandhi Before India में लिखते हैं, जिसका मतलब है, “राजनीतिक साजिशों से दूर रहकर कुछ धन कमाना मकसद था.”
बॉम्बे और राजकोट में हुई घटनाओं का समय जो भी रहा हो, सच्चाई ये थी कि गांधी का मन भारत से ऊब चुका था और वो एक मौके की तलाश में थे. इसकी वजह रामचन्द्र गुहा अपनी किताब Gandhi Before India में लिखते हैं, जिसका मतलब है, “राजनीतिक साजिशों से दूर रहकर कुछ धन कमाना मकसद था.”
गांधी के पैतृक घर पोरबंदर में एक मुस्लिम कारोबारी समुदाय में आपसी मतभेद हो गया. इनकी शाखाएं नाताल और ट्रान्सवाल में भी थीं. दादा अब्दुल्ला ने अपने चचेरे भाई तय्यब हाजी खान मोहम्मद पर 40,000 पाउंड का दावा ठोका था, जो उनके चचेरे भाई ने कर्ज लिये थे.
किशोरभट्ट थांकी ने युवा एमके गांधी का दादा अब्दुल्ला के साथ एक तैलचित्र बनाया है, जो फिलहाल पोरबंदर के गांधी स्मृति कीर्ति मंडल में रखा है.
गांधी को इस मामले में हाथ डालने का मौका मिलने की वजह थी कि अब्दुल्ला के रिकॉर्ड गुजराती में लिखे थे. गांधी को गुजराती भाषा मालूम थी और उन्होंने लंदन से बैरिस्ट्री की पढ़ाई की थी. लिहाजा वो कोर्ट में अब्दुल्ला का केस लड़ने वाले अंग्रेज वकीलों की भाषा की परेशानी दूर कर सकते थे. 24 मई 1893 को वो डरबन पहुंचे और वहां से प्रिटोरिया गए, जहां इस मामले की सुनवाई चल रही थी.
इसी यात्रा के दौरान उन्हें नस्लीय भेदभाव करते हुए दो बार ट्रेन से निकाल बाहर किया गया. तीसरी बार भी टिकट होने के बावजूद उन्हें फर्स्ट क्लास कम्पार्टमेंट में नहीं बैठने दिया गया. ये घटनाएं अब मशहूर हैं.
गांधी के मुताबिक इस केस के लिए प्रिटोरिया में बिताया गया समय “उनकी जिंदगी का सबसे कीमती अनुभव था.” इस दौरान उन्होंने सार्वजनिक काम, अपना आध्यात्मिक विकास और मन मुताबिक काम करने का आत्मविश्वास विकसित करना सीखा. ये बातें भविष्य में उनकी जिंदगी में काफी महत्त्वपूर्ण साबित हुईं.
इस केस से उन्हें तथ्यों की कीमत और सच को समझने का अहसास हुआ. “तथ्यों का अर्थ है सच्चाई. और जब हम सच का रास्ता अपनाते हैं तो कानून खुद हमारी मदद करता है.” ये उन्होंने लिखा था. वकालत के पेशे के लिए उन्होंने इसी सोच को आधार बनाया. वो सच के पुजारी के रूप में मशहूर हुए. यहां तक कि वो बीच में ही मुकदमा छोड़ देते थे, अगर उन्हें महसूस होता था कि उनका मुवक्किल झूठ बोल रहा है.
गांधी ने सच का अनुभव करने के लिए दादा अब्दुल्ला केस के अलावा आम जिंदगी में भी विवादों को हल करने के तरीकों में बदलाव किया. कोर्ट में केस लड़ने में ज्यादा समय और खर्च लगता था. लिहाजा गांधी ने सोचा कि मध्यस्थता के जरिये मामले को हल करना ज्यादा बेहतर है. अब्दुल्ला को लगा कि तय्यब इसके लिए तैयार नहीं होंगे.
लेकिन गांधी ने तय्यब से मुलाकात की और उनकी आत्मकथा के मुताबिक उन्हें मध्यस्थता के लिए तैयार कर लिया. ये पहली बार था, जब उन्होंने बातचीत और समझौता का रास्ता अपनाया था. उनके तमाम आंदोलनों में यही सोच हावी रही. बाद में जब अब्दुल्ला केस जीत गए तो गांधी ने उन्हें इस बात के लिए भी तैयार कर लिया कि उनके चचेरे भाई आसान किस्तों में उन्हें कर्ज अदा करेंगे.
केस खत्म होने के बाद गांधी को स्वदेश लौटना था. उनके सम्मान में दादा अब्दुल्ला ने डिनर का आयोजन किया था. इसी दौरान नाताल विधानसभा में पेश हुए विधेयक की बात चली, जिसमें भारतीयों को चुनावों में वोट डालने पर रोक लगाने की पेशकश की गई थी. गांधी से रुककर इस भेदभाव के खिलाफ लड़ाई में सहयोग देने को कहा गया. इस मामले ने उनके भीतर सार्वजनिक हितों के प्रति दिलचस्पी और रुझान पैदा किया और उन्होंने सहयोग देना स्वीकार कर लिया.
बॉम्बे, राजकोट और प्रिटोरिया में सीखे गए सबक को गांधी ने जिंदगीभर अपनाया.
जोहानिसबर्ग के एम्पायर थियेटर में एमके गांधी और भारतीय समुदाय के दूसरे सदस्यों ने भेदभाव के नियमों का विरोध किया. उन्होंने शिक्षकों, छात्रों, मजदूरों पैतृक सम्पत्ति में हिस्सा चाहने वाले परिवारों का प्रतिनिधित्व किया. इसके अलावा व्यक्तिगत अधिकारों की सुरक्षा के लिए भी केस लड़े. उदहरण के लिए जब मुस्लिम समुदाय के एक व्यक्ति को मजिस्ट्रेट के आने पर अपनी टोपी उतारने को कहा गया, तो उन्होंने ये कहते हुए इसका विरोध किया कि हर व्यक्ति को अपने धर्म का पालन करने का अधिकार है. जबकि वो खुद मजिस्ट्रेट के आने पर अपनी टोपी सिर से उतारते थे.
एक महान वक्ता या मशहूर वकील के रूप में कभी उनकी पहचान नहीं बनी. लेकिन नाताल बार के एक प्रमुख वकील के रूप में उन्होंने अपनी साख बना ली थी. हालांकि बॉम्बे में दूसरी बार खुद को स्थापित करने की उनकी कोशिश फिर नाकाम रही. वो फिर दक्षिण अफ्रीका लौटे जहां उनकी जोरदार वापसी हुई. रामचंद्र गुहा लिखते हैं, “वो सभी भारतीयों के वकील थे, चाहे वो किसी भी जाति, वर्ग, धर्म या पेशे से जुड़ा हो.”
ये उस शख्स के लिए बिलकुल सही प्रशिक्षण था, जिसने भविष्य में सभी भारतीयों के लिए लड़ाई में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया.
(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)