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सौरव मिश्रा, दोस्तों के साथ रात को मुंबई के लियोपोल्ड कैफे एंड बार में बैठे थे, जब आतंकवादियों ने रेस्टोरेंट के अंदर गोलीबारी शुरू कर दी. इस हमले में उनकी जान कैसे बची, वह यहां बता रहे हैं.
मेरे लिए उस रात के एक लम्हे को भी भुलाना मुश्किल है. सर्दियों का मौसम फ्रांस से मेरे दो दोस्तों को मुंबई ले आया था. इनमें से एक फिल्ममेकर केट थीं और दूसरी आईआईटी की विजिटिंग टीचर क्लेमेन्टिन. शहर के जाने-माने कैफे, लियोपोल्ड में हम रात 8:30 बजे मिल रहे थे. मैं उस समय न्यूज एजेंसी रॉयटर्स के लिए काम करता था. देर से स्टोरी फाइल करने के बाद मैं ओल्ड कोलाबा की तरफ भागा, जहां 150 साल पुराना यह कैफे है. कैफे में हम प्रॉन, चिकन टिक्का और बीयर के साथ केट की पहली हिंदी फिल्म ‘मूंछोंवाला हो या ना हो’ के बारे में बात कर रहे थे. यह एक कॉमेडी फिल्म थी, जिसमें पेरिस में रहने वाली एक लड़की मूंछवाले एक शख्स से शादी करना चाहती है. कैफे में हम घंटा भर गुजार चुके थे. हमने बीयर के एक और राउंड के बाद अपने-अपने घर लौटने का फैसला किया.
जब हम आखिरी ऑर्डर दे रहे थे, तभी मेरी नजर पास के एक टेबल पर पड़ी. वहां जो शख्स बैठा था, वह हॉलीवुड की फिल्म सीरीज ‘पाइरेट्स ऑफ द कैरेबियन’ के एक्टर जॉनी डेप की तरह दिख रहा था. मैं उसके हाव-भाव देख रहा था, तभी अचानक उसका टेबल चकनाचूर हो गया और वह उछलता हुआ जमीन पर जा गिरा.
अब मेरे अंदर एक कदम चलने की हिम्मत नहीं थी. मैं गिरने वाला ही था, तभी किसी ने मुझे थाम लिया. जिस शख्स ने मुझे गिरने से बचाया था, उसने एक टैक्सी ढूंढी और मुझे छत्रपति शिवाजी टर्मिनस (सीएसटी) के पीछे सेंट जॉर्ज हॉस्पिटल ले गया.
इन सबके बीच चलने-फिरने से लाचार मैं अपनी जान बचाने वाले से बात करने की कोशिश कर रहा था. पता चला कि उनका नाम किशोर पुजारी है. उस समय किशोर की उम्र 19 साल थी और वह कोलाबा कॉजवे पर हॉकर थे. वह दुकान से निकले ही थे कि उन्होंने लियोपोल्ड कैफे पर हमले को देखा और वहां से मुझे लेकर अस्पताल आए.
उन दो घंटों में मुझे पता चल चुका था कि यह गैंगवॉर नहीं बल्कि सुनियोजित आतंकवादी हमला था. मैं अभी भी मौत और जिंदगी के बीच झूल रहा था, मेरे चारों तरफ खून और शव पड़े थे. तभी जिस महिला ने मेरा इलाज किया था, वह पास से गुजरीं और रुककर कहा, ‘तुम बच जाओगे.’ तब किशोर और मेरी जान में जान आई. बाद में जब मैंने उस रात की घटनाओं के बारे में सोचा तो लगा कि मैंने कायरता दिखाई थी. मैं केट और क्लेमेन्टिन को पीछे छोड़ आया था. बाद में पता चला कि क्लेमेन्टिन को बांह में गोली लगी थी और बुलेट के छर्रों और टूटे हुए शीशे से वह घायल हो गई थीं.
केट और क्लेमेन्टिन दोनों टेबल के नीचे छिप गई थीं और बाद में एक सज्जन उन्हें पास की डिस्पेंसरी ले गए थे. खुशकिस्मती से क्लेमेन्टिन पूरी तरह रिकवर कर गईं और अब पति और बच्चे के साथ कोलकाता में रहती हैं. केट ने भी अपनी फिल्म पूरी कर ली थी, लेकिन वह किसी थियेटर में रिलीज नहीं हो पाई. इसे कुछ ग्रुप्स को दिखाया गया. वह अभी भी फिल्में बनाती हैं और अक्सर मुंबई आती रहती हैं. मुझे रिकवर करने में डेढ़ महीने लगे, मेरी पसलियां टूट गई थीं, लेकिन किस्मत अच्छी थी कि गोली फेफड़े में नहीं घुसी थी.
उस रात मेरी मदद करने वाले किशोर, 6 महीने बाद मुंबई से चले गए और अब वह कर्नाटक में रहते हैं. वहां हासन जिले में वह सब्जी रिटेलिंग, टिंबर जैसे बिजनेस में हाथ आजमाने के बाद अब इलेक्ट्रॉनिक रिटेलिंग का काम करते हैं. मैं अब भी उनके संपर्क में हूं. मैं चाहता हूं कि वह आर्थिक तौर पर सुरक्षित हो जाएं. हर दोस्त, डॉक्टर, नर्स ने उस वक्त जो काम किया, उससे मुंबई और मानवता पर मेरा भरोसा बहाल हुआ. किशोर मेरे लिए किसी फरिश्ते से कम नहीं हैं. उन्हें जिंदगी में बाद में कई मुश्किलें उठानी पड़ीं. उनका एक्सिडेंट भी हुआ था. वह कर्नाटक पुलिस में भर्ती होना चाहते थे, लेकिन उनका यह सपना पूरा नहीं हुआ. हालांकि, उन्होंने हार नहीं मानी है. ईश्वर ऐसे लोगों को लंबी उम्र दे, जिन्होंने यह साबित किया कि बुराई पर अच्छाई की जीत होकर रहती है.
(सौरव मिश्रा देश की एक बड़ी फाइनेंशियल सर्विसेज कंपनी के कॉर्पोरेट कम्युनिकेशंस डिपार्टमेंट के हेड हैं और मुंबई में रहते हैं)
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