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संडे व्यू: क्या फिर चलेंगे बुलडोजर? केवल 10 लाख नौकरी से भरेंगे घाव?

संडे में व्यू में आज पढ़ें पी चिदंबरम, तवलीन सिंह, टीएन नाइनन, रामचंद्र गुहा और गोपाल कृष्ण गांधी के विचारों का सार

क्विंट हिंदी
भारत
Updated:
<div class="paragraphs"><p>संडे व्यू</p></div>
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संडे व्यू

(फोटो: क्विंट हिंदी)

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केवल 10 लाख नौकरी से नहीं भरेंगे घाव

पी चिदंबरम द इंडियन एक्सप्रेस में लिखते हैं कि उन्हें खुशी है कि सरकार ने 20 फरवरी 2022 को प्रकाशित उनका कॉलम पढ़ा और 10 लाख पदों पर रिक्तियां निकालने का फैसला किया. नौकरियों की कमी से हर परिवार प्रभावित है. वे लोग भी जिनके रोजगार छिन गये. 2014 के आम चुनाव में प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी ने हर साल दो करोड़ रोजगार देने का वादा किया था. बाहर से कालाधन वापस लाने और हर भारतीय के खाते में पंद्रह लाख रुपये जमा कराने के भी वादे किये गये थे. अब इन वादों की चर्चा नहीं होती. दूसरी ओर बेरोजगारी की स्थिति बद से बदतर होती चली गयी है.

चिदंबरम लिखते हैं कि भारत की स्थिति रोजगार के मामले में दुनिया भर में बदतर है. सीएमआईई का निष्कर्ष है कि भारत में लाखों लोगों ने श्रम बाजारों को छोड़ दिया है और यहां तक रोजगार की तलाश भी छोड़ दी है.

7.8 प्रतिशत ऐसे लोग हैं जिनके पास रोजगार नहीं है. 68 फीसदी परिवार में सिर्फ एक सदस्य के पास नौकरी है. केवल 24.2 प्रतिशत लोगों के पास दो या दो से अधिक रोजगार हैं. 20 फीसदी लोगों के पास वेतन वाली नौकरी है. 50 फीसदी स्वरोजगार वाले हैं और बाकी दिहाड़ी मजदूर हैं.

सीएमआईई के सर्वे के मुताबिक जून 2021 में औसत परिवार की आमदनी पंद्रह हजार रुपये महीना थी और खर्च ग्यारह हजार रुपये. ऐसे परिवार में एकमात्र कमाऊ सदस्य की नौकरी चले जाने से परिवार गहरे संकट में पड़ जाता है, जैसा कि महामारी के समय हुआ था. लेखक लिखते हैं कि मोदी सरकार का ध्यान सिर्फ रोजगार पर होना चाहिए. मगर, इसने आठ साल बर्बाद कर दिए. गलत नीतियों के कारण विभाजित भारत आर्थिक रूप से प्रभावित हुआ है. केवल 10 लाख नौकरियों से घाव नहीं भर सकते.

फिर चलेंगे बुल्डोजर?

तवलीन सिंह द इंडियन एक्सप्रेस में लिखती हैं कि बदले की भावना से किसी का घर नहीं तोड़ा जाना चाहिए. यह बात पिछले हफ्ते ही सुप्रीम कोर्ट ने कही है, लेकिन तब तक उत्तर प्रदेश के निवासियों के लिए बहुत देर हो चुकी थी. प्रयागराज के नागरिक जावेद मोहम्मद के उदाहरण से लेखिका बताती हैं कि उनकी बेटी ने घर टूटने से पहले वीडियो जारी कर अपनी दलील रखी थी. माता-पिता और बहन की गिरफ्तारी के बाद अपनी भाभी के साथ रहते हुए उसने यह वीडियो जारी की थी. जेएनयू की छात्रा आफरीन फातिमा ने बताया था कि पुलिस ने घर खाली कर देने की चेतावनी दी थी. घर के आसपास बुलडोजर घूम रहे थे. उसे गिराने की योजना बन रही थी.

लेखिका बताती हैं कि अगले ही दिन घर को मलबे में तब्दील होते हुए उन्होंने टीवी पर देखा. देखकर लग रहा था कि घरवालों को बहुत कम वक्त दिया गया होगा. इसलिए जरूरी सामानों के अलावा कुछ साथ ले जाने का मौका नहीं मिला होगा. लेखिका ने उम्मीद जताई है कि जब दोबारा सुनवाई होगी तब जज साहब यह देख सकेंगे कि इस घर को तोड़ा गया था, बदले की भावना से.

यूपी में जब कभी बुलडोजर से घर तोड़े जाते हैं तो इसके समर्थन में मोदी भक्त निकल आते हैं. वे घर तोड़ने ही नहीं राशन कार्ड, आधार कार्ड और पासपोर्ट तक छीन लिए जाने की वकालत करते हैं, ताकि कभी दोबारा किसी दंगे में शामिल होने की हिम्मत कोई न दिखाए.

तवलीन सिंह सहारनपुर में एक कमरे में युवकों की पिटाई वाले वीडियो का भी जिक्र करती हैं, जिस बारे में पहले पुलिस ने इनकार किया, लेकिन जब पिटे हुए युवकों को खोज निकाला गया और उनके इंटरव्यू सामने आने लगे तो पता चला कि पुलिस झूठ बोल रही थी. अब अग्निपथ योजना के विरोध में युवा सड़कों पर हैं. देखना है कि कितने लोगों के घर बुलडोजर पहुंचते हैं. लेखिका लिखती हैं कि आला अफसर अपनी गलतियां मानने को तैयार नहीं हैं और सरकार खुद अपने नागरिकों की दुश्मन बन गयी है.

नेताओं-उद्योगपतियों के लिए मायने नहीं रखती प्रतिष्ठा

टीएनन नाइनन बिजनेस स्टैंडर्ड में लिखते हैं कि अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बलवाई बन जाएं और रिपब्लिकन पार्टी पर दोबारा अपनी पकड़ बना लें या फिर ब्रिटेन में एक संभावित संधि को भंग करने वाला व्यक्ति प्रधानमंत्री बना रह जाए, तो यह सवाल जरूर खड़ा होता है कि क्या प्रतिष्ठा मायने नहीं रखती? एक ही दिन में प्रकाशित कई हेडलाइंस का जिक्र करते हैं लेखक- गूगल पर जुर्माना, मैकडॉनल्ड्स चुकाएगी 1.3 अरब डॉलर, तोशिबा-सोनी हारी अदालती लड़ाई, एपल पर आईफोन उपभोगकर्ताओं को भ्रमित करने का आरोप. इसके अलावा अपने वचन से मुकरने के लिए मेटा, गूगल, ट्विटर की भी खबरें छपीं.

नाइनन लिखते हैं कि कारोबारी क्षेत्र के कुकर्मों की शुरुआत अक्सर स्कैंडल से होती है और उनका अंत अक्सर लोककथा के रूप में होता है. अनैतिक कारोबारी व्यवहार अपनाने वाले अमेरिकी उद्योगपतियों से लेकर धीरूभाई अंबानी और गौतम अडानी तक यही सिलसिला है. भारत में आमतौर पर घोटालों में कोई दोषी नहीं होता और न कभी अमेरिका में किसी वित्तीय क्षेत्र के दिग्गज को जेल जाना पड़ा है.

निवेशक, उपभोक्ता, कर्मचारी, वेंडर, वितरक, अंशधारक आदि कंपनी के अलग-अलग चेहरे देखते हैं. क्या यह अच्छी नियोक्ता है? क्या यह समय पर अपने बिल चुकाती है या घर के करीब स्थिति है आदि. यदि गूगल के पास बेहतरीन खोज अलगोरिदम है, तो कंप्यूटर इस्तेमाल करने वालों को इसी से मतलब है न कि इस बात से कि वह इसकी मदद से समाचरों को खत्म कर रहा है. उपयोगितावादी नजरिए से किसी कंपनी ने कर चोरी की या किसी जनजाति को नष्ट किया तो यह उसकी चिंता का विषय नहीं है. यही कारण है कि पर्यावरण और संचालन को ध्यान में रखते हुए निवेश करने के फैशन पर अब सवाल उठ रहे हैं. ऐसे व्यवहारिक समय में अगर कोई देश आपकी धार्मिक संवेदनाओं को नुकसान पहुंचा रहा है, तो इसकी अनदेखी की जा सकती है बशर्ते वह आपके तेल अथवा गैस का अहम ग्राहक हो.

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निरंकुश लोकतंत्र

रामचंद्र गुहा द टेलीग्राफ में लिखते हैं कि भारतीय स्वतंत्रता की औपचारिक घोषणा के दशक में 1937 ऐसा वर्ष था, जब भारतीयों ने स्व-शासन को समझा. कई प्रोविंस में कांग्रेस जीत कर आयी. उस समय के. स्वामीनाथन साहित्य के प्रोफेसर थे. 1938 में उन्होंने अन्ना मलाई यूनिवर्सिटी में छात्रों से कहा था कि दो तरह के राजनीतिक नेतृत्व होते हैं. एक जो खुद को अपरिहार्य समझते हैं और दूसरा जो ऐसा नहीं समझते. उन्होंने महात्मा गांधी का जिक्र करते हुए कहा था कि वे खुद को अपरिहार्य बनाने की आकांक्षा रखते हैं. जवाहरलाल नेहरू और राजेंद्र प्रसाद जो कुछ हैं गांधी की वजह से हैं, लेकिन फिर भी वे यस-मैन नहीं हैं. स्वामीनाथन आगे लिखते हैं कि कई नेता ऐसे हैं जो अपने अनुयायियों पर भरोसा नहीं करते और उन्हें काम करने की आजादी नहीं देते.

रामचंद्र गुहा ने लिखा है कि नरेंद्र मोदी, ममता बनर्जी जैसे नेताओं की संख्या देश में बढ़ी है जो तानाशाह भी हैं और जिनके व्यक्तित्व के गिर्द राजनीति घूमती है. इन्हें वफादार नौकरशाह और पुलिस अफसर की जरूरत रहती है. ममता बनर्जी, अरविंद केजरीवाल, पिनराई विजयन, योगी आदित्यनाथ, वाई एस जगन रेड्डी, अशोक गहलौत सारे नेता इसी श्रेणी में आते हैं.

अगर स्वामीनाथन ने इन नेताओं को देखा होता तो वे जरूर कहते कि ये मतभेदों को बर्दाश्त नहीं करते. ये खुद को अपरिहार्य बना लेते हैं लेकिन बाद की पीढ़ियों के नेताओं को तैयार नहीं करना चाहते. ऐसे नेताओं का व्यक्तित्व अधियानकवादी शासन में ही फलता-फूलता है. किसी एक सुपरमैन के हाथों शासित होकर हमारा देश आर्थिक ताकत बनकर नहीं उभर सकता, सामाजिक सद्भाव बनाए नहीं रख सकता या फिर हमारी राष्ट्रीय सुरक्षा बनी नहीं रह सकती. जो नेता सुनते हैं, सीखते हैं उनके हाथों भारत और भारतीय बेहतर तरीके से आगे बढ़ सकते हैं.

भावनात्मक लगाव वाली डाक टिकटें

गोपाल कृष्ण गांधी द टेलीग्राफ में लिखते हैं कि पिछले दिनों दिल्ली में डॉ बीआर अंबेडकर पर डाक टिकट की प्रदर्शनी लगी. भीषण गर्मी के बीच दिल्ली के इंडिया इंटरनेशनल सेंटर के आर्ट गैलरी में इसे करीब से देखने का अवसर मिला. व्याकरण की गलतियों से दूर बाबा साहेब पर केंद्रित एक-एक जानकारी देखने को मिली और डाक टिकटों के रूप में घटनाओं को भी समझने का अवसर मिला. यह प्रदर्शनी केवल डाक टिकटों का संग्रहण और प्रदर्शन मात्र नहीं था, बल्कि सशक्त तरीके से इसमें बताया गया था कि किस तरह भारत में स्मरणीय डाक टिकटों से शुरू करते हुए नियमित उपयोग वाले डाक टिकटों के स्तर तक पहुंचा गया.

गांधी लिखते हैं कि बाबा साहेब पर 1966 में डाक टिकट की प्रदर्शनी लगी, फिर 1973 में इसे दोहराया गया. मगर, 2001 में बाबा साहेब के जन्म शताब्दी के मौके पर यह अधिक प्रचलित रूप में आया. तब राष्ट्रपति के आर नारायण और प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के साथ राम विलास पासवान ने बाबा साहेब के डाक टिकटों को प्रचलन में ला दिया. प्रदर्शनी के कर्ताधर्ता डॉ विकास कुमार की सोच से लेखक प्रसन्न थे और इसे उन्होंने व्यक्त भी किया.

हाथ की लिखावट का जिक्र करते हुए इसके इस्तेमाल पर भी गोपाल कृष्ण गांधी ने टिप्पणी की है. एक ऐसे समय में जब गूगल के जरिए फैक्ट चेकिंग, स्पेल चेकिंग और डाटा को सजाने का काम होता है लिखकर संवाद करने की अपनी अहमियत है. स्टांप, पोस्टकार्ड और एयर लेटर के प्रचलन में आयी कमी की वजह इसमें वैल्यू एडिशन का क्रमश: घटता जाना है. हाथों से लिखी चिट्ठी एक से बढ़कर एक देखने को मिली है. सुंदर हस्ताक्षर ने हमेशा आकर्षित किया है.

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Published: 19 Jun 2022,08:11 AM IST

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