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सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा
हम बुलबुले हैं इस की ये गुलसितां हमारा
मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना
हिन्दी हैं हम वतन है हिन्दोस्तां हमारा
कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी
सदियों रहा है दुश्मन दौर-ए-ज़मां हमारा
ये लाइनें उस नज्म का हिस्सा हैं, जिसका उन्वान है ‘तराना-ए-हिंद’. मशहूर शायर अल्लामा इकबाल की कलम से निकली ये नज्म आज भी हिंदुस्तानियों के दिलों में बसती है. वो एक ऐसे कलमकार थे, जिन्होंने डगमगाई हुई जिंदगियों को तरक्की की राह दिखाने के लिए शायरी का इस्तेमाल किया.
अल्लामा इकबाल की पैदाइश 1877 में पंजाब के सियालकोट शहर में हुई थी, जो मौजूदा वक्त में पाकिस्तान का हिस्सा है. उनकी शुरुआती तालीम मदरसे में हुई और आगे चलकर वो पढ़ाई करने के लिए लंदन तक गए.
अल्लामा इकबाल एक ऐसे शायर के तौर पर पहचाने गए जिन्होंने अपना एक नया दौर बनाया. उन्होंने सियासत, तहजीब, समाज, फिलॉस्फी और संघर्ष हर तरह की खूबियों को अपने अश'आरों का हिस्सा बनाया.
उर्दू लेखक अकील अहमद सिद्दीकी ने कहा है कि इकबाल की शायरी विचारों की शायरी है. उनकी लेखनी में उपमाओं, रूपकों और तमाम तरह के प्रतीकों का खास उपयोग दिखता है.
दुनिया की महफिलों से उकता गया हूं या रब
क्या लुत्फ अंजुमन का जब दिल ही बुझ गया हो
सौ सौ उमीदें बंधती है इक इक निगाह पर
मुझ को न ऐसे प्यार से देखा करे कोई
हजारों साल नर्गिस अपनी बे-नूरी पे रोती है
बड़ी मुश्किल से होता है चमन में दीदा-वर पैदा
उर्दू शायर ताबिस मेहदी ने क्विंट से बात करते हुए कहा कि अल्लामा इकबाल सिर्फ हिंदुस्तान के शायर नहीं थे, वो पूरी दुनिया के शायर थे. उन्हें किसी दायरे कैद करके किसी मुल्क का कौमी शायर करार देना ठीक नहीं है. उनकी शख्सियत के जैसी ही उनकी शायरी भी किसी एक पहलू में नहीं बंधी हुई है, उन्होंने जो बात कही है वो पूरे आलम के लिए कही है, वो दुनिया के सभी इंसानों के फायदे के कही है. अल्लामा इकबाल लंदन गए और ऐसी शख्सियत बनकर आए कि उन्होंने पूरी दुनिया को बनाया.
मौजूदा वक्त में पाकिस्तान के राष्ट्रीय शायर के तौर पर पहचाने जाने वाले अल्लामा की इकबाल को सारी दुनिया में पढ़ा और सुना जाता है. ईरान में अल्लामा इकबाल को इकबाल-ए-लाहौरी कहा जाता है. रिपोर्ट्स के मुताबिक ईरान की क्रांति के दौरान जब अवाम बैनरों के साथ सड़कों पर उतर रही थी, उस वक्त फारसी जुबान में लिखी इकबाल की कविताओं को बैनरों पर लिखा देखा गया था, क्रांति के दौरान जगह-जगह लोग उनकी नज्मों को पढ़ा करते थे.
अल्लामा इकबाल की कलम से निकली तराने मिल्ली, असरार-ए-खुदी, बंदगीनामा, बल-ए-जिब्रील, शिकवा, जवाब-ए-शिकवा जैसी नज्में काफी मशहूर हैं. बल-ए-जिब्रील को उर्दू की खास नज्मों में से एक माना जाता है.
अल्लामा इकबाल ऐसे इश्क के कायल थे जो इरादों में फैलाव पैदा करके जिंदगी और कायनात को मदहोश कर सके. उनका कहना था कि इश्क को कर्म से मजबूती मिलती है और कर्म के लिए यकीन का होना जरूरी है और यकीन ज्ञान से नहीं इश्क से हासिल होता है.
सितारों से आगे जहाँ और भी हैं,
अभी इश्क़ के इम्तिहाँ और भी हैं.
तिरे इश्क़ की इंतिहा चाहता हूँ,
मिरी सादगी देख क्या चाहता हूँ.
इश्क के अलावा इक़बाल का दूसरा पहलू ‘खुदी’ है. खुदी से उनका मतलब इंसान की सबसे बड़ी खूबी से है, जिसकी बदौलत इंसान को सबमें आला दर्जा मिला है. उनका मानना था कि इस खुदी को पैदा करने के लिए जज्बा-ए-इश्क बेहद जरूरी है. उनकी गजलों में खुदी लफ्ज कई बार आया है.
ख़ुदी को कर बुलंद इतना कि हर तक़दीर से पहले,
ख़ुदा बंदे से ख़ुद पूछे बता तेरी रज़ा क्या है.
ख़ुदी वो बहर है जिस का कोई किनारा नहीं,
तू आबजू इसे समझा अगर तो चारा नहीं.
ढूँडता फिरता हूँ मैं 'इक़बाल' अपने आप को
आप ही गोया मुसाफ़िर आप ही मंज़िल हूँ मैं
अल्लामा इकबाल ने ‘बच्चे की दुआ’ उन्वान से एक नज्म लिखी, जो हमें सही रास्ते पर चलना सिखाती है. इस नज्म में एक बच्चा खुदा से सही रास्ते पर चलने, तरक्की करने, वतन की खूबसूरती बढ़ाने, बुराई से बचने और गरीबों की मदद करने की दुआ करता है. मौजूदा वक्त में हिंदुस्तान के कई स्कूलों में इस नज्म को पढ़ाया जाता है.
लब पे आती है दुआ बन के तमन्ना मेरी,
ज़िंदगी शम्अ की सूरत हो ख़ुदाया मेरी.
दूर दुनिया का मिरे दम से अँधेरा हो जाए,
हर जगह मेरे चमकने से उजाला हो जाए.
हो मिरे दम से यूँही मेरे वतन की ज़ीनत,
जिस तरह फूल से होती है चमन की ज़ीनत.
ज़िंदगी हो मिरी परवाने की सूरत या-रब,
इल्म की शम्अ से हो मुझ को मोहब्बत या-रब.
हो मिरा काम ग़रीबों की हिमायत करना,
दर्द-मंदों से ज़ईफ़ों से मोहब्बत करना.
मिरे अल्लाह! बुराई से बचाना मुझ को,
नेक जो राह हो उस रह पे चलाना मुझ को.
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