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कितना है बद-नसीब 'ज़फ़र' दफ़्न के लिए,
दो गज़ ज़मीन भी न मिली कू-ए-यार में.
दर्द में डूबा ये शेर उस गजल का हिस्सा है जो मुगल सल्तनत (Mughal Empire) के आखिरी बादशाह ने कही थी. इंतकाल के बाद हिंदुस्तान की सरजमीं में दफनाए जाने की हसरत लिए बहादुर शाह जफर (Bahadur Shah Zafar) ने बर्मा (Myanmar) में आखिरी सांस ली और वहीं दफना दिए गए. बहादुर शाह जफर ने 1857 के पहले स्वतंत्रता संग्राम में ब्रितानी हुकूमत के खिलाफ भारतीय सिपाहियों का नेतृत्व किया था.
अक्टूबर 1775 में जन्मे बहादुर शाह जफर का पूरा नाम मिर्जा अबू जफर सिराजउद्दीन मुहम्मद (Mirza Abu Zafar Siraj-ud-din Muhammad ) था. वो अपने वक्त में सिर्फ मुगल बादशाह नहीं थे, उन्हें कलम की बादशाहत भी हासिल थी. वो शायर के तौर पर काफी मकबूल और मशहूर थे.
1857 की बात है, अंग्रेजों ने दिल्ली पर दोबारा कब्जा कर लिया था और उस वक्त बहादुर शाह जफर पुराना किला छोड़कर हुमायूं के मकबरे में रहने लगे थे. जब मेजर हडसन मुगल बादशाह को गिरफ्तार करने के लिए हुमायूं के मकबरे पहुंचा, तो उसने बहादुर शाह जफर के सामने एक शेर कहा जो यूं था...
"दमदमे में दम नहीं है ख़ैर माँगो जान की,
ऐ ज़फर ठंडी हुई अब तेग हिंदुस्तान की."
बहादुर शाह जफर ने शेर का जवाब शेर से ही कुछ यूं दिया...
"ग़ाजियों में बू रहेगी जब तलक ईमान की,
तख़्त ए लंदन तक चलेगी तेग हिंदुस्तान की."
उर्दू लेखक मौलवी करीमुद्दीन ने अपनी किताब “तबक़ात-ए-शोअराए हिंद” में लिखा है कि
बहादुर शाह जफर इस्लाम की सूफी धारा को मानते थे. उन्होंने उर्दू, फारसी, पंजाबी और ब्रज भाषा में साहित्य की रचना की. कहा जाता है कि गालिब और जौक जैसे शायर उनके दरबार के रत्नों में शामिल थे.
Rekhta वेबसाइट के मुताबिक बादशाह जफर एक विनम्र और रहमदिल इंसान थे, घमंड उनके अंदर बिल्कुल भी नहीं था. ऐश-ओ-आराम की जिंदगी गुजारने के बाद भी उन्होंने कभी मदिरा को हाथ नहीं लगाया. बहादुर शाह जफर के बारे में ये भी बताया जाता है कि वो हिन्दुओं की भावनाओं की भी कद्र करते थे और उनकी कई रीतियों को भी अदा करते थे. उनके पिता अकबर शाह मुस्लिम और उनकी माता लालबाई एक हिंदू थीं.
बहादुर शाह जफर ने मोहब्बत के कसीदे भी लिखे, जो आज उर्दू अदब में दिलचस्पी रखने वाले लोग गुनगुनाते रहते हैं.
तुम ने किया न याद कभी भूल कर हमें
हम ने तुम्हारी याद में सब कुछ भुला दिया
मोहब्बत चाहिए बाहम हमें भी हो तुम्हें भी हो
ख़ुशी हो इस में या हो ग़म हमें भी हो तुम्हें भी हो
हम ये तो नहीं कहते कि ग़म कह नहीं सकते
पर जो सबब-ए-ग़म है वो हम कह नहीं सकते
बहादुर शाह जफर को 1858 में बर्मा में रंगून की जेल में बंद कर दिया गया. उस वक्त वहां भी अंग्रेजों की हुकूमत हुआ करती थी. जेल में बादशाह जफर को बहुत परेशान किया गया. उनकी लिखने पर भी पाबंदी लगाने की कोशिश की गई, उन्हें कलम और कागज के लिए भी तरसाया गया था. ऐसे हालात में भी बादशाह जफर अपने दर्द को अल्फाज में ढालने से नहीं चूके.
बहादुर शाह जफर ने ईंटों को कलम और जेल की दीवारों को कागज बना दिया और गजलें लिखीं. इसी दौरान उन्होंने ये गजल लिखी थी, जो काफी मशहूर है.
लगता नहीं है दिल मिरा उजड़े दयार में
किस की बनी है आलम-ए-ना-पाएदार में
इन हसरतों से कह दो कहीं और जा बसें
इतनी जगह कहाँ है दिल-ए-दाग़-दारमें
काँटों को मत निकाल चमन से ओ बाग़बाँ
ये भी गुलों के साथ पले हैं बहार में
कितना है बद-नसीब 'ज़फ़र' दफ़्न के लिए
दो गज़ ज़मीन भी न मिली कू-ए-यार में
बहादुर शाह जफर ने अपनी ज्यादातर गजलों में आपबीती कहने की कोशिश की है, जिसमें दर्द, चुभन और एक तरह की छटपटाहट महसूस होती है. ये सारी कश्मकश सिर्फ बहादुर शाह जफर की नहीं थी, वो दर्द, चुभन और छटपटाहट पूरे हिंदुस्तान की थी.
भरी है दिल में जो हसरत कहूँ तो किस से कहूँ
सुने है कौन मुसीबत कहूँ तो किस से कहूँ
कहूँ मैं जिस से उसे होवे सुनते ही वहशत
फिर अपना क़िस्सा-ए-वहशत कहूँ तो किस से कहूँ
किसी को देखता इतना नहीं हक़ीक़त में
'ज़फ़र' मैं अपनी हक़ीक़त कहूँ तो किस से कहूँ
बहादुर शाह जफर को आज के दौर का युवा भले ही उतना ना पहचाना हो लेकिन मनमोहन सिंह (Dr. Manmohan Singh) से लेकर नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) तक जिस भी प्रधानमंत्री ने म्यांमार की आधिकारिक यात्रा की, वो 1857 की क्रांति के अगुआ और अपनी शायरी से बगावत की लौ जलाने वाले कलमकार को नहीं भूले और उनकी मजार पर जाकर खिराज-ए-अकीदत पेश की.
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