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सुसाइड नोट में अर्णब गोस्वामी का नाम, इससे दोष साबित हो जाता है?

सुसाइड नोट में अर्णब का नाम आने के बाद भी उन्हें दोषी साबित करने के लिए पुलिस को क्या साबित करना होगा?

वकाशा सचदेव
भारत
Updated:
सुसाइड नोट में अर्णब गोस्वामी का नाम
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सुसाइड नोट में अर्णब गोस्वामी का नाम
(फोटो: कामरान अख्तर/क्विंट)

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वीडियो एडिटर: पुर्णेन्दू प्रीतम

आत्महत्या के लिए उकसाने के एक मामले में अर्णब गोस्वामी की गिरफ्तारी के बाद विवाद बढ़ता ही जा रहा है लेकिन एक बात जिसे लोग नजरअंदाज कर रहे हैं वो ये है कि रिपब्लिक टीवी के संस्थापक और एडिटर-इन-चीफ का नाम अन्वय नाइक ने मई 2018 में अपने सुसाइड नोट में लिया था.

ये संभावित रूप से अर्णब के समर्थकों के राजनीतिक बदले की कार्रवाई के दावों का खंडन करता है क्योंकि इसका मतलब ये है कि उनकी भूमिका की जांच के लिए एक वैध आधार है, खास कर इसलिए कि सुसाइड नोट उस समय स्थानीय पुलिस को पिछली सरकार के शासनकाल में मिला था.

लेकिन क्या सुसाइड नोट में नाम आने पर उन्हें नाइक की आत्महत्या के लिए उकसाने का आरोपी बनाना सही है? क्या ये सुसाइड नोट अर्णब के खिलाफ केस बनाने और फिर उन्हें दोषी ठहराने के लिए काफी होगा?

पहले के मामलों में कोर्ट में क्या कहा है?

आत्महत्या के लिए उकसाने के मामले में क्या साबित करने की जरूरत होती है?

भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 306 के तहत आत्महत्या के लिए उकसाने से जुड़े मामले में कार्रवाई की जाती है. इसमें अधिकतम 10 साल की सजा और जुर्माना भी लगाया जा सकता है.

शब्द ‘उकसावा’ के तहत- प्रेरित करना, षड्यंत्र या आत्महत्या के संदर्भ में किसी अपराध में सहायता करना आता है, आम तौर पर ये जिस व्यक्ति ने आत्महत्या की है उसे प्रेरित करने की बात करता है.

इस तरह के मामलों में जो मानक माने जाते हैं उनको सुप्रीम कोर्ट ने अपने 2011 के एम मोहन बनाम सरकार के फैसले में लिखा है जो इस प्रकार हैं:

“...किसी शख्स को IPC 306 के तहत दोषी करार दिए जाने के लिए उसकी मंशा साबित होनी चाहिए. ये साबित होना चाहिए कि आरोपी ने अपने डायरेक्ट एक्शन से किसी को खुदकुशी के लिए मजबूर कर दिया और उसके पास कोई चारा नहीं छोड़ा.’’

क्या एक सुसाइड नोट ये साबित करने के लिए काफी है?

किसी व्यक्ति को आत्महत्या के लिए उकसाने के मामले में पुलिस और अभियोजन पक्ष की ओर से सफलतापूर्वक दोषी साबित करने के लिए जो मानक तय किए गए हैं वो काफी सख्त हैं जैसा कि आप ऊपर पढ़ सकते हैं.

कोर्ट ने बार-बार कहा है कि एक सफल अभियोजन के लिए “आत्महत्या करने में सहायता या उकसाने के लिए आरोपी की मंशा और भागीदारी होनी चाहिए”.

एक व्यक्ति का सुसाइड नोट अपने आप में किसी व्यक्ति को दोषी ठहराने के लिए शायद काफी नहीं हो सकता है.

2018 के पंजाब एंड हरियाणा हाई कोर्ट के एआर माधव राव बनाम हरियाणा सरकार के एक मामले में इसकी पुष्टि हुई जहां कोर्ट ने कहा कि “ सिर्फ इसलिए कि एक व्यक्ति का नाम सुसाइड नोट में लिया गया है, कोई इस नतीजे पर नहीं पहुंच सकता कि वो IPC की धारा 306 के तहत दोषी है.”

कोर्ट ने अपने फैसले में लिखा है कि उकसावे का मामला बनता है या नहीं इसके लिए सुसाइड नोट और ‘उससे जुड़ी अन्य परिस्थितियों” की जांच की जानी चाहिए. फैसले में लिखा गया है कि

“पीड़ित को आत्महत्या के लिए प्रेरित करने, भड़काने, मजबूर करने की फंसाने वाली सूचना का पता लगाने के लिए सुसाइड नोट का विश्लेषण और जांच की जानी चाहिए.”

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इस मामले में सुसाइड नोट में क्या है?

नाइक के कथित सुसाइड नोट (अपने और मां कुमुद जो कि डिजाइन कंपनी की डायरेक्टर भी थीं की ओर से) जिसमें अर्णब गोस्वामी और दो लोगों के नाम हैं जिन पर उनके पैसे बकाया थे, उसमें लिखा गया है कि:

‘’हम इन कारणों से आत्महत्या कर रहे हैं.. हमारे (कॉनकोर्ड डिजाइन प्राइवेट लिमिटेड के) पैसे फंस गए हैं और इन प्रतिष्ठित कंपनियों के मालिक हमारे वैध बकाए का भुगतान नहीं कर रहे हैं...1. अर्णब गोस्वामी- एआरजी आउटलियर ऑफ रिपब्लिक टीवी ने बॉम्बे डाइंग स्टूडियो प्रोजेक्ट के लिए 83 लाख का भुगतान नहीं किया है.. कृपया उनसे पैसे वसूल करें और उन्हें हमारी मौत का जिम्मेदार ठहराएं और हमारे लेनदारों को भुगतान करें.” 

क्या इसमें दोषी ठहराने के लिए पर्याप्त जानकारी है?

सुसाइड नोट स्पष्ट रूप से अर्णब गोस्वामी की कथित भूमिका तय करता है यानी कि मृतक को 83 लाख रुपये का भुगतान न करने की भूमिका, लेकिन अपने आप में ये उनके खिलाफ आरोप साबित करने के लिए शायद ही काफी हो.

एक ट्रायल कोर्ट को ये देखना होगा कि एआरजी आउटलियर ने नाइक की डिजाइन कंपनी को बकाए का भुगतान नहीं किया इसके लिए क्या सबूत रिकॉर्ड पर लाए गए, क्या उन्होंने जान-बूझकर पैसे नहीं दिए, क्या उन्हें नाइक के मुश्किल आर्थिक हालात की जानकारी थी और तब इस बात की जांच होगी कि क्या गोस्वामी को निजी तौर पर इसकी जानकारी थी और उनकी क्या जिम्मेदारी बनती है.

इन सबके बाद भी आत्महत्या के लिए उकसाने के आरोप को साबित करना आसान नहीं होगा.

एआर माधव राव केस में पंजाब एंड हरियाणा हाई कोर्ट ने आरोपी वकीलों और टैक्स मैनेजरों के खिलाफ FIR को रद्द कर दिया था जिनका नाम मृतक (टैक्स मैनेजरों के एक सहयोगी) ने अपने सुसाइड नोट में लिया था.

मृतक ने दावा किया था कि उसने अपने नियोक्ताओं की सलाह लेने के बाद उनकी ओर से एक याचिका तैयार की थी जिससे उनके नियोक्ताओं को बड़ा वित्तीय नुकसान होने वाला था और इसलिए मृतक ने अपनी मौत के लिए उन्हें जिम्मेदार ठहराया था.

हाई कोर्ट ने फैसला दिया कि ये मृतक को अपनी जान लेने के लिए उकसाने को लेकर आरोपी की ओर से कोई मंशा या जान-बूझ कर किए गए किसी काम को दिखाने के लिए काफी नहीं है, उदाहरण के लिए दबाव में केस दर्ज करने के लिए मजबूर करना.

गुरचरण सिंह बनाम पंजाब सरकार के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने 2016 में पत्नी और बच्चों को आत्महत्या के लिए उकसाने के आरोपियों, जो एक व्यक्ति के परिवार वाले थे जिसने व्यवसाय में बड़ा नुकसान होने के बाद अपनी पत्नी और बच्चों को छोड़ दिया था, को कुछ समय बाद बरी कर दिया था.

मृतक ने सुसाइड नोट में आरोपी का नाम लिया था, लेकिन कोर्ट ने पाया कि वित्तीय और संपत्ति की जानकारी सहित रिकॉर्ड पर मौजूद दस्तावेजों में कोई सबूत ऐसा नहीं था जो दिखा सके कि आरोपी ने

“मृतक को लगातार उकसाने या मजबूर करने के लिए क्रूरता, अत्याचार, उत्पीड़न या उकसावे का कोई काम किया हो जिससे मृतक के पास जान देने के अलावा कोई विकल्प न रह गया हो.”

दिल्ली हाई कोर्ट ने जून 2020 में रीना बनाम एनसीटी दिल्ली सरकार के मामले में सुसाइड नोट में लिखी बातों और उसमें किए गए दावों में कितनी सच्चाई है ये जांच भी करवाई है. एक व्यक्ति ने अपनी जान ले ली थी और सुसाइड नोट में उसने दावा किया था कि पत्नी की प्रताड़ना से तंग आकर उसने ऐसा किया है.

हालांकि कोर्ट ने पाया कि मृतक को अपनी जान लेने के लिए किसी तरह से उकसाया, प्रेरित, प्रोत्साहित नहीं किया गया था और इसलिए आरोपी के खिलाफ आरोप खारिज करने के आदेश दिए गए.

क्या मृतक की मानसिक स्थिति भी देखी जाती है?

सुप्रीम कोर्ट ने इस बात को लेकर भी आगाह किया है कि आत्महत्या कर जान देने वाला व्यक्ति क्या ‘अतिसंवेदनशील’ था, इस बात के भी विश्लेषण की जरूरत है और क्या समान परिस्थितियों में कोई दूसरा व्यक्ति भी यही कदम उठाता- हालांकि इस विशेष शब्द का आम तौर पर इस्तेमाल शादी से जुड़े मामलों में किया जाता है.

एआर माधव केस में पंजाब एंड हरियाणा हाई कोर्ट ने कहा कि इस तरह के कदम दूसरी परिस्थितियों में भी लिए जाने चाहिए, हालांकि ऐसा करते वक्त कठोर और असंवेदनशील भाषा का इस्तेमाल किया गया.

संक्षेप में कोर्ट ने कहा कि ये देखना होगा कि अगर एक व्यक्ति मानसिक स्थिति के कारण अपनी जान लेता है तो दूसरों को आप उनके कामों के लिए दोषी नहीं ठहरा सकते, जिससे ये संभावना बनती है कि गोस्वामी के मामले में अन्वय और कुमुद नाइक की उनकी मौत से पहले मानसिक स्थिति की जांच भी की जा सकती है.

क्या अर्णब सुनवाई से पहले ही केस को बंद करा सकते हैं?

ऊपर बताए गए हाई कोर्ट के दो फैसलों में जो दिलचस्प बात है वो ये कि मामले को सुनवाई तक जाने की जरूरत भी नहीं है- FIR को रद्द किया जा सकता है, या लगाए गए आरोप (अगर अभियोजन पक्ष ने आरोप पत्र तैयार किया है) हाई कोर्ट रद्द कर सकता है अगर केस साबित करने के लिए रिकॉर्ड पर पर्याप्त दस्तावेज न हों.

अगर महाराष्ट्र पुलिस को पूरी तरह से सुसाइड नोट के आधार पर मामले में आगे बढ़ना है तो ऐसा हो सकता है कि अर्णब गोस्वामी अपने खिलाफ आत्महत्या के लिए उकसाने के मामले की सुनवाई शुरू होने के पहले ही रद्द करा दें.

हालांकि, रायगढ़ पुलिस ने कोर्ट में दी गई अपनी रिमांड ऐप्लीकेशन में दावा किया है कि उनके पास गोस्वामी और दूसरे आरोपियों के खिलाफ लेन-देन की जानकारी, नाइक-कंपनी के बीच बातचीत की जानकारी और यहां तक कि कुछ गवाह सहित और भी सबूत हैं.

इसके परिणामस्वरूप गोस्वामी के लिए मामले को शुरुआती चरण में खत्म कराना आसान नहीं होगा, जब तक कि वह रिकॉर्ड पर लिए गए दस्तावेजों में कोई बड़ी गलती न दिखा सकें, जैसा कि दिल्ली हाई कोर्ट ने रीना केस में कहा है.

बहरहाल, यहां कुछ मजबूत साक्ष्य जुटाने की जिम्मेदारी पुलिस की है जो सुसाइड नोट में किए गए दावों से मेल खाते हों और जो गोस्वामी और दूसरे आरोपियों की मंशा और काम दिखाते हों नहीं तो अभियोजन पक्ष के सफल होने की संभावना नहीं है.

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Published: 06 Nov 2020,03:07 PM IST

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