advertisement
यह एक अच्छी खबर है कि फिनलैंड में महिलाओं के नेतृत्व वाली गठबंधन सरकार बनी और उसने 34 साल की सना मरीन को प्रधानमंत्री बनने का मौका दिया.
ऐसा करके फिनलैंड के सोशल डेमोक्रेट्स ने न्यूजीलैंड के पदचिन्हों पर चलने की कोशिश की जहां महज 37 साल की जेसिंडा आर्डर्न ने 2017 में प्रधानमंत्री का पद संभाला था. इससे पूर्व पाकिस्तान ऐसी नजीर रख चुका है. वहां बेनजीर भुट्टो 35 साल की उम्र में पहली बार प्रधानमंत्री बनी थीं.
ऐसे आंकड़े बहुत से हैं. दुनिया के अधिकतर देशों की राजनीति में महिलाओं की मौजूदगी बहुत कम है. नेशनल एसेंबलियों में महिलाओं का ग्लोबल औसत 24.3% है. इंटर पार्लियामेंट्री यूनियन ने इस बारे में एक सूची तैयार की है.
इस लिहाज से फिनलैंड ने एक अलग मिसाल कायम की है. खास बात यह है कि यहां गठबंधन सरकार की पार्टियों में भी महिलाएं प्रमुख पदों पर हैं. जैसे लेफ्ट एलायंस की ली एंडरसन, सेंटर पार्टी की कत्री कुलमुनी, ग्रीन लीग की मारिया ओहसालो और स्वीडिश पीपुल्स पार्टी ऑफ फिनलैंड की आना-माजा हेनरिक्सन. सना की कैबिनेट में 12 महिलाएं हैं, पुरुष सिर्फ 7. यह एक रिकॉर्ड है, चूंकि विश्व में महिला मंत्रियों का यह दूसरा सबसे बड़ा प्रतिशत है.
यूं फिनलैंड की खबर सिर्फ स्त्रीवादियों के लिए ही खुशी की बात नहीं. इसके मायने इससे इतर भी हैं. जब दुनिया भर के देशों में हुक्मरान स्वायतत्ता की पीठ पर सवार होकर मित्र और शुभचिंतक बनने का दावा कर रहे हैं, ऐसे में किसी देश में अलग-अलग जातियों, हाशिए पर पड़े समूहों को प्रतिनिधित्व देने की कोशिश की गई है.
अपने यहां की सरकारों में महिलाओं का ही नहीं, अल्पसंख्यकों, विकलांग व्यक्तियों, ट्रांसजेंडर व्यक्तियों का प्रतिनिधित्व न के बराबर है. अनुसूचित जातियों, जनजातियों का जो प्रतिनिधित्व है, वह भी इसलिए क्योंकि उन्हें आरक्षण प्राप्त है. आरक्षण के अभाव में वह भी कभी संभव नहीं होता.
इस आरक्षण को 70 साल पूरे होने पर 10 साल और बढ़ाया गया है. संसद ने शीतकालीन सत्र में इस आरक्षण को संविधान के एक सौ छब्बीसवें संशोधन के साथ 2030 तक बढ़ाया है जोकि 2020 की 25 जनवरी को समाप्त होने वाला था.
सिर्फ एंग्लो इंडियन ही नहीं, नागरिकता संशोधन जैसे विधेयक ने देश की सोच को और संकीर्ण किया है. पनाह देने में भी भेदभाव करते हुए भाषाई अल्पसंख्यकों सहित एक पूरे समुदाय को अलग कर दिया गया है. इससे पहले कश्मीर के मामले में एक बड़ा कदम उठाया जा चुका है. लेकिन हैरानी इस बात की है कि किसी राष्ट्रवादी उल्लास में देश के बड़े तबके शामिल नहीं. पूर्वोत्तर के लोग लगातार केंद्रीय स्तर पर लिए जाने वाले फैसलों में अपने जमीन पर भारतीय फौजी बूटों की धमक सुन रहे हैं.
इसलिए हमें बार-बार फिनलैंड के घटनाक्रम को सिर्फ महिलाओं के एंगल से देखने से बचना चाहिए. पश्चिम में अस्सी के दशक में श्वेत औरतों ने श्वेत नेतृत्व वाले मुख्यधारा के फेमिनिज्म की खिलाफत की थी. उनका मानना था कि औरतों की कोई एकल श्रेणी नहीं होती.
जैसा कि फेमिनिस्ट लेखिका और राजनीतिक चिंतक निवेदिता मेनन की किताब ‘सीइंग लाइक अ फेमिनिस्ट’ में तर्क दिया गया है. इसमें निवेदिता कहती हैं, फेमिनिस्ट होने का अर्थ यह है कि आप हाशिए पर पड़े, अपेक्षाकृत शक्तिहीन लोगों के बारे में भी सोचें. यह भी कि सिर्फ जेंडर आधारित अन्याय नहीं होता. गैर बराबरी सामाजिक व्यवस्था के हर स्तर पर मौजूद है. इसीलिए फेमिनिज्म आपको बाकी की असमानताओं पर आंख मूंदने की गुंजाइश नहीं देता.
कोई कुतर्क कर सकता है कि फिनलैंड जैसे छोटे और कम आबादी वाले देश के लिए विविधता पर तवज्जो देना आसान है. लेकिन भारत जैसे देश के लिए यह और भी जरूरी है कि वह विविध सांस्कृतिक पहचान को मान्यता दे. जिन पर फैसलों का असर होने वाला है, उन्हे कम से कम अंधेरे में न रखे. अपनी सैन्य और केंद्रीय शक्ति के बल पर अभिभावकत्व हासिल करना, आपके दावे को जायज नहीं बनाता. बाकी विविधता का स्वागत करना आप फिनलैंड से सीख सकते हैं.
पढ़ें ये भी: उन्नाव रेप सर्वाइवर की हालत में सुधार,गवाह के हवाले है गांव का घर
(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)
Published: 14 Dec 2019,03:20 PM IST