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अशोका यूनिवर्सिटी: 2019 चुनाव पर रिसर्च पेपर और प्रोफेसर का इस्तीफा, क्या बोली फैकल्टी?

Ashoka University विवादों में क्यों है? प्रोफेसर Sabyasachi Das को इस्तीफा क्यों देना पड़ा?

सप्तर्षि बसाक
भारत
Published:
<div class="paragraphs"><p>Ashoka University Row</p></div>
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Ashoka University Row


(फोटो: चेतन भाकुनी/द क्विंट)

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अशोका यूनिवर्सिटी (Ashoka University) में इकोनॉमिक्स के प्रोफेसर सब्यसाची दास ने 2019 लोकसभा चुनावों पर एक रिसर्च पेपर लिखा जिसपर विवाद हुआ. इसी विवाद के कारण उन्हें कथित तौर पर इस्तीफा (Sabyasachi Das Resignation) देना पड़ा. इसके कुछ दिन बाद अशोका यूनिवर्सिटी के फैकल्टी मेंबर्स सब्यसाची दास का साथ देने के लिए एक साथ सामने आये हैं.

इकोनॉमिक्स डिपार्टमेंट की ओर से 16 अगस्त को जारी के लेटर में फैकल्टी ने स्पष्ट रूप से कहा कि "प्रोफेसर दास ने अकादमिक अभ्यास/एकेडमिक प्रैक्टिस के किसी भी स्वीकृत मानदंड का उल्लंघन नहीं किया है."

इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि लेटर में उन्होंने मांग की कि सब्यसाची दास को बिना शर्त अशोका यूनिवर्सिटी में उनका पद वापस दिया जाए और यूनिवर्सिटी का गवर्निंग बॉडी "किसी भी समिति या किसी अन्य संरचना के जरिए फैकल्टी के रिसर्च के मूल्यांकन में कोई भूमिका नहीं निभाएगा."

लेटर में आगे कहा गया, "गवर्निंग बॉडी की कार्रवाइयां डिपार्टमेंट के अस्तित्व के लिए खतरा पैदा करती हैं. इससे फैकल्टी के पलायन (छोड़कर जाने) की संभावना है, और इससे नई फैकल्टी का यहां आने के लिए आकर्षित होना रुक सकता है."

सब्यसाची दास के इस्तीफे के बाद, इकोनॉमिक्स डिपार्टमेंट के एक अन्य प्रोफेसर - पुलाप्रे बालाकृष्णन - ने भी कथित तौर पर इस्तीफा दे दिया है.

सब्यसाची दास का रिसर्च पेपर और उसपर अशोका यूनिवर्सिटी का जवाब

विवाद सबसे पहले उस समय शुरू हुआ जब सब्यसाची दास ने 'डेमोक्रेटिक बैकस्लाइडिंग इन वर्ल्ड्स लार्जेस्ट डेमोक्रेसी' टाइटल से एक पेपर लिखा. पेपर को इस साल की शुरुआत में 25 जुलाई को SSRN (सोशल साइंस रिसर्च नेटवर्क) की वेबसाइट पर पोस्ट किया गया था.

यूनिवर्सिटी में में एक असिस्टेंट प्रोफेसर सब्यसाची दास ने इस पेपर में मूल रूप से तर्क दिया गया कि 2019 के लोकसभा चुनावों में, बीजेपी की जीत मुसलमानों के खिलाफ टार्गेटेड चुनावी भेदभाव के रूप में चुनावी हेरफेर की वजह से हो सकती है. दावा किया गया कि ऐसा आंशिक रूप से चुनाव पर्यवेक्षकों की कमजोर निगरानी के कारण हुआ.

इस रिसर्च पेपर को तीखी आलोचना झेलनी पड़ी, ज़्यादातर दक्षिणपंथी बुद्धिजीवियों और मीडिया वर्ग से.

कुछ ही समय बाद, अशोका यूनिवर्सिटी ने एक बयान जारी किया जिसमें कहा गया कि यूनिवर्सिटी "व्यक्तिगत फैकल्टी मेंबर्स द्वारा किसी खास रिसर्च प्रोजेक्ट्स को निर्देशित या अनुमोदित नहीं करता है."

बयान में कहा गया, "हमारी जानकारी के अनुसार, संबंधित पेपर ने अभी तक आलोचनात्मक समीक्षा/क्रिटिकल रिव्यु प्रक्रिया पूरी नहीं की है और इसे किसी एकेडमिक जर्नल में प्रकाशित नहीं किया गया है."

टिप्पणी के साथ पेपर का सारांश आप यहां देख सकते हैं.

द क्विंट ने 2 अगस्त को बढ़ते विवाद के बारे में सब्यसाची दास से संपर्क किया, जिस पर उन्होंने जवाब दिया, "फिलहाल मैं किसी भी मीडिया से बात नहीं रहा हूं. मैं पहले पेपर को प्रकाशित करना चाहता हूं ताकि इसे औपचारिक रूप से सहकर्मी समीक्षा/पीयर रिव्यु के माध्यम से जांचा जा सके. शायद इसके बाद मैं बातचीत करूंगा."

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सब्यसाची दास का इस्तीफा

दो दिन पहले, 14 अगस्त को, द वायर ने रिपोर्ट प्रकाशित की कि दास ने इस्तीफा दे दिया है. कुछ ही देर बाद खबर आई कि यूनिवर्सिटी ने उनका इस्तीफा स्वीकार कर लिया है.

यूनिवर्सिटी के वाइस चांसलर सोमक रायचौधरी ने अशोक की वेबसाइट पर पोस्ट किए गए एक आधिकारिक बयान में कहा:

"अशोका यूनिवर्सिटी पुष्टि करता है कि इकोनॉमिक्स डिपार्टमेंट में असिस्टेंट प्रोफेसर डॉ. सब्यसाची दास ने अपना इस्तीफा सौंप दिया है. डॉ. दास वर्तमान में अशोका से छुट्टी पर हैं, और पुणे के गोखले इंस्टीट्यूट ऑफ पॉलिटिक्स एंड इकोनॉमिक्स (डीम्ड यूनिवर्सिटी) में विजिटिंग फैकल्टी के रूप में कार्यरत हैं. उन्हें मनाने के व्यापक प्रयास करने के बाद, यूनिवर्सिटी ने उनका इस्तीफा स्वीकार कर लिया है.''

इस समय तक, ट्विटर पर पहले से ही असंतोष पनपना शुरू हो गया था. सवाल किया जा रहा था कि एक ऐसी यूनिवर्सिटी, जो उदार शिक्षा मूल्यों की उपजाऊ भूमि होने का दावा करती है, वह अपने फैकल्टी के साथ इस तरह का व्यवहार कैसे कर सकता है.

और इसके बाद एक अन्य फैकल्टी मेंबर ने भी कथित तौर पर इस्तीफा दे दिया.

बालाकृष्णन का इस्तीफा

सूत्रों के हवाले से द वायर ने रिपोर्ट किया कि इकोनॉमिक्स डिपार्टमेंट के ही मेंबर- पुलाप्रे बालाकृष्णन ने भी इस्तीफा दे दिया है. संभवतः ऐसा सब्यसाची दास के साथ एकजुटता दिखाने या समर्थन में किया गया.

यूनिवर्सिटी की वेबसाइट के अनुसार, बालाकृष्णन को ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी और कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी में एक अर्थशास्त्री के रूप में प्रशिक्षित किया गया था. उन्होंने ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी, भारतीय सांख्यिकी संस्थान (दिल्ली केंद्र), और IIM कोझिकोड में भी पढ़ाया है.

अशोका यूनिवर्सिटी की ओर से अभी तक उनके इस्तीफे की घोषणा नहीं की गई है. न ही उनका त्यागपत्र सार्वजनिक किया गया है.

द क्विंट ने टिप्पणी के लिए प्रोफेसर बालाकृष्णन से संपर्क किया है. उनका रेस्पॉन्स मिलने पर हम इस आर्टिकल को अपडेट करेंगे.

दास के साथ आए फैकल्टी मेंबर

इकोनॉमिक्स फैकल्टी के पत्र के अलावा, "शैक्षणिक स्वतंत्रता पर" एक और लेटर 13 अगस्त को वाइस चांसलर और फैकल्टी के डीन को भेजा गया था.

बालाकृष्णन सहित फैकल्टी के 82 मेंबर्स द्वारा हस्ताक्षरित, लेटर में कहा गया है कि यह "कोई संकट नहीं है जो यह चाहने से दूर हो जाएगा कि प्रोफेसर दास जैसे पेपर भविष्य में नहीं लिखे जाएंगे, क्योंकि यह किसी वर्किंग संसथान में यथार्थवादी संभावना नहीं है."

इसमें कहा गया है कि आलोचना को दबाना शिक्षाशास्त्र की जीवनधारा में जहर घोलना है. साथ ही साइन करने वाले मेंबर्स ने अकादमिक स्वतंत्रता के लिए तुरंत एक समिति बनाने की मांग की ताकि "जब भी ऐसे मुद्दे सामने आएं तो बहुत जरूरी पारदर्शिता और प्रक्रियात्मक निष्पक्षता लाई जा सके."

क्या कहानी दोहराई जा रही है?

अशोक यूनिवर्सिटी हरियाणा के सोनीपत में स्थित एक प्राइवेट कॉलेज है जो जिसकी शिक्षा लिबरल आर्ट्स पर केंद्रित है. यहां कुछ ऐसा ही मार्च 2021 में हुआ था, जब स्कॉलर प्रताप भानु मेहता ने यूनिवर्सिटी से अपना इस्तीफा दे दिया था.

मेहता के पद छोड़ने के ठीक दो दिन बाद, प्रसिद्ध अर्थशास्त्री अरविंद सुब्रमण्यन ने भी फैकल्टी मेंबर के पद से इस्तीफा दे दिया. अपने बयान में, सुब्रमण्यम ने कहा कि उन्हें इस बात से परेशानी हो रही है कि मेहता को यूनिवर्सिटी छोड़ना पड़ा.

(हैलो दोस्तों! हमारे Telegram चैनल से जुड़े रहिए यहां)

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