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खेल में जीत या हार सिर्फ खेलने वाले दो विपक्षी टीमों की नहीं होती, बल्कि खेल निष्पक्ष हो और खेल का प्रबंधन सही हो, यह रेफरी की जीत और हार को भी तय करता है .अगर 2021 विधानसभा चुनाव को लोकतंत्र का खेल माने तो बंगाल में ममता, असम-पुडुचेरी में बीजेपी, तमिलनाडु में डीएमके और केरल में लेफ्ट को जीत मिली पर हारा सिर्फ चुनाव आयोग है .
प्रशांत किशोर ने नतीजों के आने के बाद चुनावी रणनीतिकार की भूमिका से संन्यास लेते हुए चुनाव आयोग पर पक्षपात के गंभीर आरोप लगाए.
पीके के आरोपों पर तो चुनाव आयोग की जवाब देगा लेकिन वैसे भी चुनाव आयोग पर जितने सवाल 2021 के चुनावों के दौरान उठे हैं, उतने तो शायद आजादी के बाद से तमाम चुनावों में नहीं उठे होंगे. चुनाव आयोग ,जो कि एक संवैधानिक निकाय है, की जिम्मेदारी सिर्फ निष्पक्ष चुनाव कराने की नहीं थी बल्कि जब देश इस अभूतपूर्व महामारी से गुजर रहा था ,हर रोज दो लाख से ज्यादा लोग संक्रमित और 2500 से ज्यादा लोगों की मौत हो रही थी ,तब उसकी जिम्मेदारी थी कि वह 'लेबल प्लेयिंग फील्ड' बनाता जहां लोकतांत्रिक चुनाव की शुद्धता भी बनी रहती और बड़े स्तर पर चुनाव 'सुपर स्प्रेडर' का काम भी नहीं करते.
जब एक संवैधानिक संस्था (मद्रास हाई कोर्ट) एक दूसरे संवैधानिक संस्था (चुनाव आयोग) पर टिप्पणी करते हुए उस पर मर्डर चार्ज लगाने की बात करें तो मामला संगीन हो जाता है.
AIDMK नेता और तमिलनाडु परिवहन मंत्री एम.आर विजयभास्कर के याचिका पर सुनवाई करते हुए मुख्य न्यायाधीश संजीव बनर्जी और न्यायमूर्ति सेंथिलकुमार रामामूर्थि की बेंच ने चुनाव आयोग पर विधानसभा चुनाव में कोविड गाइडलाइंस का पालन ना करवाने का दोषारोपण करते हुए कहा कि "हम जिस स्थिति में हैं (महामारी )उसके लिए सिर्फ चुनाव आयोग जिम्मेदार है और चुनाव आयोग पर मर्डर का चार्ज लगना चाहिए".
इससे पहले 22 अप्रैल को भी कोलकाता हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश टी.बी.एन राधाकृष्णन ने कहा कि "भारतीय चुनाव आयोग के पास कोविड गाइडलाइंस को लागू करवाने की सारी शक्तियां हैं ,फिर भी वह ऐसा करने में असफल रहा. इस स्वास्थ्य संकट में चुनाव आयोग ने सिर्फ 'दर्शक' की भूमिका निभाई."
महामारी के अभूतपूर्व प्रसार के बावजूद पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव को 8 चरणों में कराना, प्रधानमंत्री-गृह मंत्री से लेकर मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के द्वारा कोरोना प्रोटोकॉल के खुले उल्लंघन पर इस संवैधानिक संस्था का चुप्पी साधे बैठे रहना ,इसके गैर जिम्मेदाराना रवैया का सबूत रहा .
चार राज्यों और एक केंद्र शासित क्षेत्र के विधानसभा चुनाव में चुनाव आयोग के कुछ निर्णय ऐसे भी रहे जिसने उसकी निष्पक्षता पर सवाल उठाए. विशेषकर चुनाव आयोग के द्वारा असम बीजेपी नेता हिमंता बिस्वा सरमा पर लगाए 48 घंटे के बैन को वापस लेने का निर्णय ने.
इस पर पहले तो चुनाव आयोग ने आचार संहिता का उल्लंघन मानते हुए सरमा को 48 घंटे चुनाव प्रचार से बैन कर दिया लेकिन फिर अपना निर्णय वापस भी ले लिया. जबकि DMK के ए. राजा पर इसी तरह के बैन को माफी मांगने के बावजूद चुनाव आयोग ने वापस नहीं लिया.
इसके अलावा विपक्ष यह आरोप लगाता रहा कि पश्चिम बंगाल चुनाव को 8 चरणों में कराने का सीधा फायदा बीजेपी को गया, जहां हर चरण के चुनाव के पहले प्रधानमंत्री ,गृह मंत्री से लेकर हर एक स्टार कैंपेनर को चुनाव प्रचार के लिए पर्याप्त समय मिला.
जिस तरह न्यायपालिका के मामले में न्याय होने के साथ न्याय होता हुआ दिखना भी जरूरी है, उसी तरह चुनाव आयोग का निष्पक्ष दिखना बहुत जरूरी है. लोगों का लोकतांत्रिक व्यवस्था में विश्वास बना रहे और चुनाव आयोग इस तरह ना हारे ,इसके लिए जरूरी था चुनाव आयोग आचार संहिता से लेकर कोविड गाइडलाइंस तक निष्पक्षता और जवाबदेही से लागू करवाता.
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