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भारत में सीरम इंस्टीट्यूट एस्ट्राजेनेका की वैक्सीन बना रहा है. लेकिन यह वैक्सीन अमीर देशों के लिए नहीं, इन वैक्सीन को दुनिया के सबसे गरीब 92 देशों में पहुंचना चाहिए था. सीरम इंस्टीट्यूट और ब्रिटेन की एस्ट्राजेनेका के बीच यही करार हुआ था.
लेकिन द गार्डियन अखबार में छपा अचल प्रभला और लीना मेंघाने का एक लेख बताता है कि निकट भविष्य में इन गरीब देशों की उम्मीदों को झटका लगा सकता है.
बात ऐसी है कि विदेशी शोध से बनी इस वैक्सीन की सभी खुराकों पर भारत अकेले दावा नहीं कर सकता. वैक्सीन से जुड़े शोध में भारत सरकार का कोई बहुत बड़ा निवेश भी नहीं है. लेकिन हाल में भारत पर "वैक्सीन राष्ट्रवाद" के आरोप लग रहे हैं. तो क्या यहां भारत दूसरे देशों के लिए अपनी जमीन पर बनाई जाने वाली वैक्सीन पर अधिकार जमा रहा है?
एक साल पहले ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के जेनर इंस्टीट्यूट ने कहा था कि वे अपनी वैक्सीन का खुला उत्पादन करवाना चाहते हैं, मतलब कोई भी निर्माता, कहीं भी इस वैक्सीन का निर्माण कर सकेगा. लेकिन गेट्स फाउंडेशन की सलाह पर ऑक्सफोर्ड ने अपना रास्ता बदलते हुए एस्ट्राजेनेका के साथ करार कर लिया, जो ब्रिटेन स्थित एक मल्टीनेशनल फार्मास्यूटिकल समूह है.
आज की स्थिति यह है कि एस्ट्रोजेनेका की जितनी भी वैक्सीन बनाई जा रही है, उसका ज्यादातर हिस्सा सीरम इंस्टीट्यूट ही बना रहा है. कुछ हिस्सा साउथ कोरिया की एस के बॉयोसाइंस में भी बन रहा है.
गावी में भारत भी शामिल था. आबादी के लिहाज से हमें सीरम द्वारा बनाई जाने वाली कुल वैक्सीन का 35 फीसदी हिस्सा मिलना था. बाकी हिस्सा निर्यात किया जा सकता था. फिर भी 50 फीसदी घरेलू उपयोग पर एक मौखिक सहमति बन गई. बाकी 50 फीसदी को दूसरे गरीब देशों को निर्यात किया जाना था.
बता दें इन गरीब देशों के पास कहीं और से अपनी आपूर्ति पूरी करने का विकल्प उपलब्ध नहीं है. क्योंकि पश्चिमी देशों की फार्मास्यूटिकल कंपनियां बमुश्किल ही अपनी मांग की पूर्ति कर पा रही हैं. ऐसे में निर्यात के बारे में तो सोचा भी नहीं जा सकता.
मतलब पश्चिमी देश की कंपनियां आपूर्ति कर नहीं पा रही हैं, चीन और रूस के साथ समझौते मौजूद नहीं हैं. ऐसे में पूरी जिम्मेदारी भारत पर आ जाती है. ऊपर से भारत दुनिया का सबसे बड़ा वैक्सीन निर्माता भी रहा है.
पिछले महीने से भारत में कोरोना की दूसरी लहर कहर ढा रही है. मजबूर होकर भारत सरकार को अपने घरेलू टीकाकरण अभियान का विस्तार कर 34.5 करोड़ लोगों को इसमें शामिल करना पड़ा.
लेकिन मौजूदा दौर में सीरम इंस्टीट्यूट पर 91 देशों को मदद पहुंचाने या भारत की घरेलू जरूरतों की पूर्ति करने में से एक के चुनाव करने की चुनौती है.
अब तक सीरम इंस्टीट्यूट 2.8 करोड़ डोज तैयार कर चुका है, जिनमें से एक करोड़ डोज भारत के खाते में आईं. दूसरी सबसे बड़ी शिपमेंट नाइजीरिया गई, जहां 40 लाख डोज पहुंचाई गईं. जिससे वहां की एक फीसदी आबादी को कवर किया जा सकता है.
लेकिन अब जब भारत सरकार ने घरेलू जरूरत के लिए 10 करोड़ डोज तैयार करने का आदेश दिया है, तो इससे नाइजीरिया जैसे देशों को सीरम इंस्टीट्यूट की तरफ से वैक्सीन आपूर्ति जुलाई तक के लिए टल जाएगी. इतना ही नहीं, निकट भविष्य में भारत को करीब 50 करोड़ वैक्सीन खुराकों की जरूरत होगी, ऐसे में दूसरे गरीब देशों को और ज्यादा वक्त तक इंतजार करना पड़ सकता है.
गार्डियन के लेख में इस घालमेल का समाधान भी बताया गया है. सीरम इंस्टीट्यूट के समझौते में एक करार था, जिसके जरिए गावी मंच के देशों से अलग, अमीर देशों को भी कुछ परिस्थितियों में वैक्सीन सप्लाई की जा सकती थी. इसी के तहत ब्रिटेन जैसे अमीर देशों को वैक्सीन सप्लाई की गई, जबकि वहां की आपूर्ति दूसरे तरीकों से भी हो सकती थी. ऐसे में अमीर देशों को आपूर्ति से बचा जाना चाहिए था.
दूसरा उपाय बताया गया है कि एस्ट्राजेनेका और कोवैक्स को कई देशों के कई सारे निर्माताओं को वैक्सीन बनाने के अधिकार देने चाहिए थे. सीरम इंस्टीट्यूट को इतनी बड़ी जिम्मेदारी अकेले देकर सिर्फ भारत सरकार को ही गरीब देशों के भले के लिए जिम्मेदार नहीं बनाया जाना चाहिए था.
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सोर्स: द गार्डियन
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