advertisement
सुप्रीम कोर्ट ने अयोध्या के रामजन्मभूमि-बाबरी मस्जिद भूमि विवाद पर फैसला सुनाते हुए कहा है कि विवादित जमीन हिंदुओं को दी जाए. इसके साथ ही उसने कहा है कि केंद्र 3 महीने के अंदर योजना बनाए और मंदिर निर्माण के लिए एक ट्रस्ट का गठन करे, मुस्लिमों (सुन्नी वक्फ बोर्ड) को मस्जिद के लिए दूसरी जगह 5 एकड़ जमीन दी जाए.
बता दें कि अयोध्या मामले पर सीजेआई रंजन गोगोई की अगुवाई वाली 5 जजों की संविधान बेंच ने फैसला सुनाया है. फैसला सुनाते वक्त सुप्रीम कोर्ट ने कहा
सुप्रीम कोर्ट में इस मामले पर 6 अगस्त से शुरू हुई रोजाना सुनवाई 16 अक्टूबर को पूरी हुई थी. 40 दिनों की यह सुनवाई भारत के मुख्य न्यायाधीश (सीजेआई) रंजन गोगोई की अगुवाई वाली 5 जजों की संविधान बेंच ने की. इस बेंच में सीजेआई गोगोई के अलावा जस्टिस एसए बोबडे, जस्टिस धनन्जय वाई चन्द्रचूड़, जस्टिस अशोक भूषण और जस्टिस एस अब्दुल नजीर शामिल रहे.
सुप्रीम कोर्ट ने 1994 के इस्माइल फारुखी केस में अयोध्या विवाद को इन शब्दों में बयां किया था-
‘’अयोध्या भारत के उत्तरी हिस्से में स्थित उत्तर प्रदेश के फैजाबाद जिले का एक टाउनशिप है. यह लंबे समय से एक पवित्र तीर्थस्थल रहा है क्योंकि रामायण में इस स्थान को श्री राम का जन्म स्थान बताया गया है. रामजन्मभूमि-बाबरी मस्जिद के तौर पर जाना जाने वाला ढांचा साल 1528 में मीर बाकी ने एक मस्जिद के तौर पर बनवाया था. कुछ धड़े दावा करते हैं कि यह (ढांचा) श्री राम की जन्मभूमि मानी जाने वाली जमीन पर बनाया गया था, जहां पहले एक मंदिर था.’’
हालांकि यह मजह हिंदू पक्ष और मुस्लिम पक्ष के बीच विवाद का मामला नहीं था. दरअसल इस मामले के 3 मुख्य याचिकाकर्ताओं में से दो- निर्मोही अखाड़ा और रामलला विराजमान हिंदू पक्ष से रहे. इन दोनों ने ही विवादित जमीन पर अपना-अपना हक जताया. जहां निर्मोही अखाड़ा की दलील थी कि लंबे समय से भगवान राम की सेवा करने की वजह से उसे जमीन मिलनी चाहिए, वहीं रामलला विराजमान ने कहा था कि इस जमीन पर मालिकी सिर्फ देवता की ही हो सकती है.
यह मामला पहली बार साल 1885 में कोर्ट पहुंचा था. जब फैजाबाद कोर्ट में महंत रघुबर दास ने एक याचिका दाखिल की. इस याचिका में उन्होंने विवादित ढांचे के पास राम चबूतरे पर मंदिर बनाने की अनुमति मांगी थी. हालांकि फैजाबाद कोर्ट ने इस याचिका को खारिज कर दिया था. इसके बाद साल 1949 में एक बड़ी घटना हुई, जब 22-23 दिसंबर की रात विवादित ढांचे के मुख्य गुंबद के पास राम लला की मूर्तियां रख दी गईं. स्थानीय प्रशासन ने दंगे भड़क जाने की आशंका जताते हुए इन मूर्तियों को वहां से हटाने से इनकार कर दिया.
इसके बाद साल 1950 में अखिल भारतीय हिंदू महासभा के नेता गोपाल विषारद ने फैजाबाद डिस्ट्रिक्ट कोर्ट में याचिका दाखिल करके राम लाल की पूजा का अधिकार मांगा. उसी साल परमहंस रामचंद्र दास ने भी एक याचिका दाखिल की, उन्होंने भी रामलला की मूर्तियों की पूजा का अधिकार मांगा.
साल 1959 में निर्मोही अखाड़े ने विवादित भूमि का संरक्षक होने का दावा करते हुए इसके पूर्ण स्वामित्व (कंप्लीट पजेशन) लिए एक याचिका दाखिल की.
इसके बाद साल 1961 में सुन्नी वक्फ बोर्ड ने ये घोषित किए जाने की मांग के साथ याचिका दाखिल की कि बाबरी मस्जिद वक्फ की संपत्ति है और उसके आसपास की जगह कब्रिस्तान है.
साल 1989 में भगवान रामलला विराजमान और श्री रामजन्मभूमि की तरफ से इलाहाबाद हाई कोर्ट के पूर्व जज देवकी नंदन अग्रवाल ने विवादित साइट के मालिकाना हक के लिए एक याचिका दाखिल की.
3 अप्रैल, 1993 को केंद्र सरकार 67.703 एकड़ हिस्से पर अधिग्रहण के लिए 'एक्यूजिशन ऑफ सर्टेन एरिया एट अयोध्या एक्ट' लेकर आई. इस कानून के खिलाफ कोर्ट में कई याचिकाएं दाखिल हुईं, जिनमें से एक इस्माइल फारुखी की याचिका थी.
अप्रैल 2002 में इलाहाबाद हाई कोर्ट ने यह तय करने के लिए सुनवाई शुरू कर दी कि विवादित भूमि पर किसका मालिकाना हक है. इसी साल हाई कोर्ट ने भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग (ASI) को विवादित भूमि का सर्वे करने के लिए कहा. इसके बाद ASI ने 2003 में अपनी 574 पेजों की रिपोर्ट सौंपी, जिसमें विवादित भूमि के नीचे प्राचीन ढांचे के सबूत मिलने की बात कही गई.
30 सितंबर, 2010 को इलाहाबाद हाई कोर्ट की 3 जजों की बेंच ने 2:1 के बहुमत से अयोध्या मामले पर अपना फैसला सुनाया था और 2.77 एकड़ की विवादित भूमि को मामले के 3 मुख्य पक्षकारों- निर्मोही अखाड़ा, राम लला विराजमान और सुन्नी वक्फ बोर्ड के बीच बराबर-बराबर बांटने का आदेश दिया था. 3 जजों की इस बेंच में जस्टिस एसयू खान, जस्टिस सुधीर अग्रवाल और जस्टिस धरमवीर शर्मा शामिल थे.
फैसले में जस्टिस खान ने कहा था, ''मुस्लिम यह साबित नहीं कर पाए कि जमीन बाबर से जुड़ी थी, जिसके आदेश पर मस्जिद का निर्माण हुआ था. इसी तरह हिंदू भी यह साबित नहीं कर पाए कि यहां एक मंदिर को तोड़कर मस्जिद बनाई गई.'' ऐसे में बाकी दलीलों को ध्यान में रखते हुए बहुमत के फैसले में एविडेंस एक्ट की धारा 110 के तहत हिंदू और मुस्लिम दोनों पक्षों को जॉइंट पजेशन (संयुक्त स्वामित्व) दे दिया गया. इसके तहत-
इलाहाबाद हाई कोर्ट के इस आदेश पर मामले के तीनों मुख्य पक्ष ही सहमत नहीं हुए और उन्होंने इस आदेश को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी. साल 2011 में सुप्रीम कोर्ट ने इलाहाबाद हाई कोर्ट के फैसले पर रोक लगा दी. सुप्रीम कोर्ट में इलाहाबाद हाई कोर्ट के आदेश के खिलाफ हिंदू पक्ष और मुस्लिम पक्ष की कम से कम 14 याचिकाएं दाखिल हुईं.
सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले का हल मध्यस्थता के जरिए निकालने की कोशिश भी की. हालांकि इस कोशिश के नाकाम रहने के बाद 5 जजों की संविधान बेंच ने इस मामले पर रोजाना सुनवाई शुरू की.
हिंदू पक्ष
मुस्लिम पक्ष
(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)