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बलराज साहनी वामपंथी रुझान वाले विद्वान अभिनेता थे. लेकिन उनके जीवन पर राष्ट्रपिता महात्मा गांधी और देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की छाप भी थी. उन्होंने 1972 में जेएनयू में दीक्षांत समारोह में एक ऐतिहासिक भाषण दिया था. उस भाषण का आज भी गाहे-बगाहे जिक्र होता है. इसमें उन्होंने समाज, सियासत, भाषा और सिनेमा से जुड़े तमाम मुद्दों पर कई बुनियादी सवाल उठाए थे. उनके इस भाषण ने हलचल मचा दी थी.
आप उस भाषण के कुछ अंश पढ़िए और सोचिए कि तब और अब में कितना फर्क आया है. क्या हमारा समाज आज भी उतना ही खोखला नहीं है? क्या हम आज भी दावे से यह कह सकते हैं कि हम गुलाम मानसिकता से ऊपर उठ चुके हैं?
“आज हमें आजाद हुए 25 बरस हो चुके हैं. लेकिन क्या हम कह सकते हैं कि गुलामी और हीनता का अहसास हमारे मन से दूर हो चुका है? क्या हम दावा कर सकते हैं कि व्यक्तिगत, सामाजिक या राष्ट्रीय स्तर पर हमारे विचार, हमारे फैसले और हमारे काम मूलतः हमारे अपने हैं और हमने दूसरों की नकल करनी छोड़ दी है? क्या हम स्वयं अपने लिए फैसले लेकर उन पर अमल कर सकते हैं या फिर हम यूं ही इस नकली स्वतंत्रता का दिखावा करते रहेंगे?”
“मेरा थोड़ा-बहुत संबंध साहित्य की दुनिया से भी है. यही हालत मैं वहां भी देखता हूं. यूरोपीय साहित्य का फैशन भी हमारे उपन्यासकारों, कहानी-लेखकों और कवियों पर झट हावी हो जाता है.”
“यदि वहां के कवियों ने लय और छंद का प्रयोग नहीं किया है, तो पंजाबी कवियों को भी यही करना है. इसका परिणाम ये होता है कि ये इंकलाब एक छोटे से कागज पर ही रह जाता है, जिसकी तारीफ बस एक छोटे-से साहित्यिक समझ वाले समूह में हो जाती है, पर वो किसान और मजदूर जो इस शोषण को झेल रहे हैं, जिन्हें वे इंकलाब की प्रेरणा देना चाहते हैं, इसे समझ ही नहीं पाते हैं. ये उन पर कोई असर नहीं डालती. अगर मैं ये कहूं कि बाकी हिंदुस्तानी भाषाएं भी इसी ‘न्यू वेव’ कविताओं के प्रभाव में हैं, तो गलत नहीं होगा.”
“आजादी से 25 साल बाद भी हम वही शिक्षण-प्रणाली ढो रहे हैं, जो मैकाले ने क्लर्क और मानसिकतौर पर गुलाम तैयार करने के लिए बनाई थी. वो गुलाम जो अपने अंग्रेज मालिक से नफरत करने के बावजूद भी उनकी हमेशा तारीफ करेंगे. उनके जैसे बोलने, कपड़े पहनने, नाचने-गाने में गर्व महसूस करेंगे. ऐसे गुलाम, जो अपने ही लोगों से नफरत करें और बाकियों को भी नफरत का पाठ पढ़ाने के लिए तैयार रहेंगे. क्या अब भी हमें आश्चर्य होगा कि विश्वविद्यालयों में विद्यार्थियों का अपनी शिक्षा-व्यवस्था से विश्वास उठता जा रहा है.”
“यहां मैं आपको अपना एक अनुमान बताने से नहीं रोक पा रहा हूं. हो सकता है कि ये गलत हो, पर ये है. ये सही भी हो सकता है, कौन जाने! पंडित जवाहरलाल नेहरू ने अपनी आत्मकथा में स्वीकार किया है कि देश की आजादी की लड़ाई, जिसका नेतृत्व इंडियन नेशनल कांग्रेस कर रही थी, में शुरू से ही संपन्न और पूंजीपति वर्ग का वर्चस्व रहा है. सो यह स्वाभाविक ही था कि आजादी के बाद इसी वर्ग का शासन और समाज पर वर्चस्व होता.”
“आज इंदिरा गांधी के नेतृत्व में हमारी हुकूमत फिर इस स्थिति को बदलने और समाजवाद लाने का वादा कर रही है. वे कब और किस हद तक सफल होंगी, कुछ कहा नहीं जा सकता. न ही इस बहस में पड़ने का मेरा इरादा है. राजनीति मेरा विषय नहीं है. सिर्फ इतना कहना ही काफी है कि जिस तरह हिंदुस्तान में अंग्रेजों की हुकूमत पर अंग्रेज पूंजीपतियों का दबदबा था, उसी तरह आज देश की हुकूमत पर हिंदुस्तान के पूंजीपतियों का प्रभाव है.”
“ठीक इसी तरह अगर हम अपने देश में समाजवाद चाहते हैं, तो हमें लोगों के दिमाग से पैसा, पद और सत्ता के डर को निकालना होगा. क्या हम इसके लिए कुछ कर रहे हैं? मौजूदा समय में हमारे समाज के अंदर किसकी ज्यादा इज्जत होती है? उसकी जिसके पास प्रतिभा है या उसकी जिसके पास पैसा है? ऐसी स्थिति में क्या हम कभी समाजवाद लाने के बारे में सोच सकते हैं?”
“समाजवाद आए, इससे पहले हमें एक खास तरह का माहौल पैदा करना होगा. जहां अकूत पैसा जमा करने वाले इंसान को सम्मान की नजर से न देखा जाए. हमें ऐसा माहौल बनाना होगा, जहां श्रम करने वाले की सबसे ज्यादा इज्जत होगी. फिर चाहे वो शारीरिक श्रम हो या दिमाग से की गई मेहनत. जहां प्रतिभा की, कौशल की, कला की कद्र होगी. ऐसा माहौल बनाने के लिए हमें नई सोच चाहिए. वो हिम्मत चाहिए, जिसके बूते हम सोचने के पुराने तरीकों को दूर हटा सकें. क्या हम इस क्रांति को मुमकिन कर पाने की स्थिति में हैं?”
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