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'बिहार केवल कागजों पर है ड्राई स्टेट': शराब से कैसे हार रही हैं महिलाएं?

जिन महिलाओं के नाम शराबबंदी के मुद्दे पर नितीश कुमार सरकार में आए, उनको क्या फायदा हुआ?

मैत्रेयी रमेश
भारत
Published:
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बिहार में शराब से कैसे हार रही हैं महिलाएं?

(फोटो- द क्विंट)

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पिछले महीने, बिहार (Bihar) के गोपालगंज (Gopalganj) जिले की रहने वाली स्वाती कुमारी ने अपने पति को शराब के नशे में घर पहुंचने के कुछ ही देर में गिरने के बाद नजदीकी अस्पताल में भर्ती कराया था. बाद में, उसके दोस्त ने कबूल किया कि उसने कुछ घंटे पहले ही देशी अवैध शराब का सेवन किया था.

कुमारी के पति तो जहर के प्रभाव से बच गए, लेकिन कई दूसरी महिलाएं उतनी भाग्यशाली नहीं रही हैं.

दिवाली (Diwali) के बाद से पिछले 10 दिनों में, राज्य में अवैध शराब के सेवन करने की वजह से कम से कम 40 लोगों की जान चली गई है, जिसे बिहार की अब तक की सबसे बड़ी शराब त्रासदी कहा जा रहा है. राज्य द्वारा जारी सरकारी आंकड़ों के अनुसार, इस साल जनवरी से अब तक कम से कम 90 लोग इससे अपनी जान गंवा चुके हैं.

बिहार भले ही कागजों पर एक ड्राई स्टेट हो, लेकिन जिनके नाम पर नीतीश कुमार सरकार ने 2016 में पूर्ण शराबबंदी लागू की थी, क्या उन महिलाओं की स्थिति वास्तव में बदल गई है?

घरेलू हिंसा और शराबबंदी

बिहार में 2015 के विधानसभा चुनावों के लिए, निवर्तमान मुख्यमंत्री नीतीश कुमार (Nitish Kumar) ने शराबबंदी का वादा करके सत्ता में वापसी की मांग की थी. हर रैली में उन्होंने महिलाओं को संबोधित किया और कहा कि अगर वो सत्ता में लौटते हैं, तो राज्य में और शराब नहीं बिकेगी. प्राथमिक कारणों में से एक, उन्होंने कहा कि घरेलू हिंसा पर अंकुश लगाना था, जो अक्सर शराब की ओवर-ड्रिंकिंग से जुड़ा हुआ है.

1 अप्रैल 2016 को नितीश कुमार ने गुजरात, लक्षद्वीप और मिजोरम की तरह बिहार को एक ड्राई स्टेट घोषित किया था. प्रतिबंध के साथ और किसी भी प्रकार के बहाली की पेशकश नहीं की गई. जो लोग शराब का सेवन करना चाहते थे, उन्हें इसका सेवन करने के लिए और अधिक खतरनाक विकल्प मिलते गए.

जारी किए गए आंकड़ों से से पता चलता है कि तब से चार वर्षों के दौरान बिहार में घरेलू हिंसा के मामलों में गिरावट आई है. राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) के अनुसार, भारतीय दंड संहिता की धारा 498A (पति या उसके रिश्तेदारों द्वारा क्रूरता) के तहत दर्ज मामलों में शराबबंदी के बाद से 37 प्रतिशत की गिरावट आई है.

क्राइम रेट के मुताबिक प्रति एक लाख महिलाओं के मामले हैं- 45 प्रतिशत की गिरावट आई है. इस अवधि के दौरान 498A के तहत दर्ज किए गए देशव्यापी मामलों में 12 प्रतिशत की वृद्धि हुई और क्राइम रेट में 3 प्रतिशत की वृद्धि हुई है.

इंडिया स्पेंड से बात करते हुए, 21 वर्षीय संध्या ने कहा कि उनके घर में स्थिति बेहतर हो गई है, उनके पिता अब कम शराब पीते हैं.

घर की स्थिति इन दिनों अपेक्षाकृत शांत है. इससे पहले, जब भी मेरे पिता देर रात घर लौटते थे, तो मैं हर बार मेरे दिल की धड़कन बढ़ जाती थी. मैं अपनी पढ़ाई पर ध्यान नहीं दे पा रही थी, मैं पढ़ नहीं सकती थी. मुझे केवल अपनी मां की चिंता होती थी.

अवैध शराब का प्रसार

हालांकि, विशेषज्ञों का कहना है कि इन कहानियों को एक चुटकी नमक की तरह लिया जाना चाहिए, क्योंकि शराब के लिए एक वैकल्पिक अर्थव्यवस्था फल-फूल रही है. महिलाएं न केवल शराब से लड़ रही हैं बल्कि जहरीली शराब से लड़ने के लिए इसका विस्तार कर रही हैं.

कुमारी ने द क्विंट से बात करते हुए बताया कि सरकार द्वारा संचालित ठेकों में शराब उपलब्ध नहीं है, लेकिन जो कोई भी इसका सेवन करना चाहता है उसके लिए ये अभी भी बहुत उपलब्ध है. ये उचित सप्लायरों के माध्यम से उपलब्ध नहीं है, इसलिए इसमें क्या है इसकी कोई गारंटी नहीं है. इस पर हमारा कोई नियंत्रण नहीं कि हमारे पति क्या पी रहे हैं. ये अधिक मंहगी और हानिकारक भी हैं और इसकी वजह से हमें अब भी पीटा जा रहा है.

इंडिया स्पेंड की रिपोर्ट के मुताबिक राज्य के आबकारी विभाग के आंकड़ों के अनुसार, 2016 से पहले बिहार में हर महीने करीब 2.5 करोड़ लीटर शराब की खपत होती थी. उसी वर्ष, शराब की खपत के लिए अखिल भारतीय आंकड़े लगभग 5.4 बिलियन लीटर थे.

पटना में एक 27 वर्षीय जमीनी स्तर की एनजीओ कार्यकर्ता मीनल (बदला हुआ नाम) ने द क्विंट को बताया कि उसके पति द्वारा अवैध शराब छोड़ने से इनकार करने के बाद उसने 2020 में समस्तीपुर जिले में अपने घर और पति को छोड़ दिया.

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मैंने उसे ये बताने की कोशिश की कि वो जो कर रहा है वो हमारे परिवार पर एक दांव है. हमारे तीन बच्चे हैं और उनका भविष्य मेरे लिए महत्वपूर्ण है. कल अगर कोई स्वास्थ्य संबंधी मुश्किलें होती है, तो मेरी तरफ से इसकी कोई जिम्मेदारी होगी. हम गरीब हैं और इसलिए हमें खुद को सीमित रखना चाहिए जो हम कर सकते हैं.

टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज, पटना के प्रोफेसर पुष्पेंद्र कुमार ने द क्विंट को बताया कि कम आर्थिक रूप से विशेषाधिकार प्राप्त पृष्ठभूमि से आने वाले लोगों ने शराब को नकली शराब से बदलना शुरू कर दिया. एक बार जब आप आदी हो जाते हैं, तो आप उचित निवारण उपायों के बिना शराब पीना बंद नहीं कर सकते, जो हो रहा है वो खतरनाक है और हर जिले के हर गांव में शराब उपलब्ध है. यह भी समझना चाहिए कि जो लोग इस अवैध शराब को बनाते हैं वे भी ऐसा इसलिए करते हैं क्योंकि उनके पास कोई दूसरा विकल्प नहीं है.

शराब प्रतिबंध पर पुनर्विचार करें, अधिक हिंसा जब परिवारों के पास कम हो: विशेषज्ञों की चेतावनी

विशेषज्ञों ने चेतावनी दी है कि हालिया त्रासदी बिहार सरकार के लिए शराबबंदी पर पुनर्विचार करने के लिए एक Wake-up कॉल है.

सेंटर फॉर सोशल रिसर्च की निदेशक डॉ रंजना कुमारी के अनुसार, शराब के लिए लोगों का इलाज किया जा सकता है, लेकिन उन पर जबरदस्ती नहीं की जा सकती है.

उन्होंने कहा कि मेरी राय में शराब पर प्रतिबंध के प्रभावी होने की संभावना नहीं है. केवल प्रतिबंध का विचार ही लोगों को इसका उल्लंघन करने के लिए प्रेरित करेगा, इसे हटा देना चाहिए. आप शराब के लिए लोगों का इलाज कर सकते हैं, लेकिन आप उन्हें रोकने के लिए मजबूर नहीं कर सकते, जो पीते हैं वे पीते रहेंगे.

तो, सामान्य रूप से सरकार को क्या करना चाहिए?

लोगों तक पहुंचने के लिए पंचायत का उपयोग करें, पंचायत से जुड़े नेता जमीन के सबसे करीब होते हैं. अवैध शराब के सेवन के खतरों, स्वास्थ्य और कानूनी प्रभावों के बारे में जागरुकता पैदा करनी होगी, आइए असली मुद्दों पर बात करते हैं. आर्थिक अवसर पैदा करने की जरूरत है. गरीब मजे के लिए नहीं पीते हैं, वे पीते हैं क्योंकि वे अत्यधिक आर्थिक दबाव में हैं. एक बार परिवार की अर्थव्यवस्था में सुधार होने पर, वो बेहतर खाना खाने, सब्जियां खाने की कोशिश करेंगे.
रंजना कुमारी

पुष्पेन्द्र कुमार कहते हैं कि शराबबंदी के साथ समस्या इसके लागू होने के तरीके के कारण भी है. शराबबंदी को कानून और व्यवस्था के मुद्दे के रूप में देखा जाता है, लेकिन सामाजिक-आर्थिक मुद्दे के रूप में नहीं.

राज्य केवल इसलिए पल्ला नहीं झाड़ सकता, क्योंकि उसने प्रतिबंध लगा दिया है. उसके बाद जो होता है वो महत्वपूर्ण है- और यहीं पर हम असफल हुए हैं. शराब की बिक्री पर प्रतिबंधों में ढील देने के बाद राज्य प्रायोजित नशामुक्ति केंद्र होने चाहिए. जागरुकता पैदा की जानी चाहिए ताकि ये एक निषेध नहीं बल्कि एक आवश्यकता हो.

लेकिन क्या ये वेस्टर्न कॉन्सेप्ट भारत में लागू किया जा सकता है?

भले ही ये मुद्दा अभी यूटोपियन लग रहा है, आपको इसे वास्तविक बनाना होगा, यह सरकार की जिम्मेदारी है. इसलिए चुप-चाप नहीं बैठा सकता क्योंकि वे केवल कुछ चीजें ही कर सकते हैं. उस सिस्टम के साथ ऐसी त्रासदियां होती रहेंगी.

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