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भारत की लेबर फोर्सः क्यों किसी की पहचान से तय हो उसकी कमाई?

लैंगिक रूप से आय का अंतर कम होने की क्या वजह है?

दीपांशु मोहन
भारत
Published:
<div class="paragraphs"><p>भारत की लेबर फोर्सः क्यों किसी की पहचान से तय हो उसकी कमाई</p></div>
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भारत की लेबर फोर्सः क्यों किसी की पहचान से तय हो उसकी कमाई

(Photo: Istock)

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हाल ही में बिहार (Bihar) की सरकार ने राज्य के लिए उपजाति-वार जनगणना (Sub-Caste-Wise Census) का ऐलान किया है. आंकड़ों को बारीकी से देखें तो OBC (अन्य पिछड़ा वर्ग)- जिसे आगे BC (पिछड़ा वर्ग) और EBC (अति पिछड़ा वर्ग) में बांटा गया है. इनकी राज्य की आबादी में 63 फीसद हिस्सेदारी है. बुनियादी सुविधाएं, रोजगार, सामाजिक सुरक्षा तक पहुंच हासिल करने में किसी खास समुदाय की सामाजिक पहचान और उसके दर्जे की बड़ी भूमिका होती है.

खास सामाजिक पहचान वाले समूहों में आय का अंतर

अजीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी में सेंटर फॉर सस्टेनेबल एम्प्लॉयमेंट की तरफ से तैयार की गई एक हालिया रिपोर्ट में उस खास भूमिका पर नजर डाली गई है जो सामाजिक पहचान यह तय करने में निभाती है कि किसी व्यक्ति के भारत में किस तरह के रोजगार पाने की संभावना है और उसकी आमदनी क्या है?

रिपोर्ट में बताया गया है कि रेगुलर जॉब या वेतनभोगी काम सबसे ज्यादा लाभदायक होता है, इसके बाद सेल्फ-इंप्लायमेंट और फिर कैजुअल वर्क आता है. इसके अलावा, हर तरह के रोजगार के भीतर, व्यवसाय, उद्योग और दूसरी नौकरी में खास विविधता होती है जो श्रम से आमदनी तय करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है.

सोर्स: APU Report-Infosphere


इस रिपोर्ट से यह भी पता चलता है कि अलग सामाजिक समूहों के बीच आमदनी में काफी अंतर है. तीन अंतर में जेंडर का अंतर सबसे बड़ा है, सेल्फ-इंप्लायमेंट में पुरुषों की तुलना में महिलाओं की आमदनी केवल 40 फीसद है, इसके बाद कैजुअल वेतन वाले पुरुषों की तुलना में 64 फीसद और रेगुलर वेज वाले पुरुषों की तुलना में 76 फीसद है.

जातीय और धार्मिक अंतर कम है, लेकिन फिर भी काफी है. कैजुअल वेतन की श्रेणी में हिंदुओं की तुलना में मुसलमानों को ज्यादा भुगतान किया जाता है, लेकिन रेगुलर वेतन और सेल्फ-इम्पलायमेंट के मामले में कम पेमेंट किया जाता है. SC/ST और दूसरी जातियों की कमाई में उल्लेखनीय अंतर मौजूद है.

सामाजिक वर्ग के अंतर में श्रम की कमाई में असमानताएं

सोर्स: APU Report-Infosphere

लैंगिक वेतन असमानता

आय वितरण के लैंगिक अंतर का आमदनी के बंटवारे में और बुरा हाल है.

यह देखा गया है कि जैसे-जैसे डिस्ट्रीब्यूशन की राशि बढ़ती है, वेतनभोगी या रेगुलर वेज वर्कर के लिए जेंडर गैप कम हो जाता है. जैसे-जैसे कोई आय वितरण को निचले स्तर से ऊपर जाता है, निचले स्तर के मुकाबले में लैंगिक असमानताएं कम हो जाती हैं.

इसकी कई व्याख्याएं हो सकती हैं. ऐसी एक व्याख्या यह हो सकती है कि ज्यादा पढ़ी-लिखी महिलाओं के पास सौदेबाजी का बेहतर मौका होता है और फॉर्मल और रेगुलर नौकरियों में कम भेदभाव होता है. इसमें यह भी पाया गया है कि सेल्फ-इम्लायमेंट के मामले में पुरुषों और महिलाओं के बीच लैंगिक अंतर बहुत ज्यादा है.

एक वजह यह है कि सेल्फ-इम्लायमेंट वाली महिलाओं के कम वेतन वाले क्षेत्रों का चुनाव करने की ज्यादा संभावना है. एक और संभावना यह है कि सेल्फ-इम्लायमेंट वाली महिलाओं को रेगुलर नौकरी वाले काम करने वाली महिलाओं के मुकाबले ज्यादा भेदभाव का सामना करना पड़ता है.

इस भेदभाव की कई वजहें हो सकती हैं, जैसे कि सामाजिक मान्यताएं जो महिलाओं को अपना कारोबार शुरू करने से हतोत्साहित करती हैं या कर्ज और दूसरे संसाधनों तक पहुंच की कमी.

रिपोर्ट के निष्कर्षों से यह भी पता चलता है कि सबसे ज्यादा लैंगिक वेतन असमानता, सबसे कम आमदनी वाले लोगों में पाई जाती है. इसका मतलब यह है कि आय वितरण का निचला पायदान वह जगह है जहां लैंगिक भेदभाव सबसे ज्यादा साफ दिखता है. यह कई वजहों से हो सकता है, जिसमें यह तथ्य भी शामिल है कि कमजोर भेदभाव-विरोधी कानूनों की मौजूदगी में वंचित महिलाओं के असंगठित, अनियमित उद्योगों में काम करने की अधिक संभावना है.

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लैंगिक आय के अंतर का आकलन

सोर्स: APU Report-Infosphere

जातीय और धार्मिक कारक

सिर्फ रेगुलर वेतन के काम पर ध्यान देने पर, जाति के आधार पर आय का अंतर, SC/ ST बनाम अन्य (OBC सहित), लैंगिक (पुरुषों के मुकाबले महिला), और धार्मिक (हिंदू के मुकाबले मुस्लिम) दिखता है. इससे पता चलता है कि धर्म और लैंगिक अंतर विपरीत दिशा में बढ़ते हैं.

आय वितरण के ऊपरी छोर पर महिलाएं पुरुषों की तुलना में कम वंचित हैं, लेकिन वितरण के ऊपरी छोर पर मुस्लिम कामगार हिंदू कामगार के मुकाबले में ज्यादा वंचित हैं.

अधिकतम स्तर पर मुस्लिम कामगार हिंदू कामगार की कमाई का 75 फीसद कमाते हैं. तीसरी और चौथी दहाई के लिए, यह गिनती करीब 94 फीसद से कहीं अधिक है, जो दर्शाता है कि मुस्लिम सेलरीड कामगार आय वितरण के निचले पायदान पर हिंदू वेतनभोगी कामगार के बराबर ही कमाते हैं.

इसके उलट, वितरण के निचले पायदान पर महिलाएं पुरुषों की कमाई का केवल 40 फीसद ही पाती हैं, लेकिन शीर्ष पायदान पर यह संख्या 93 फीसद है. ऊंचे वेतन के लिए बढ़ता हिंदू-मुस्लिम का अंतर चिंता का विषय होने के साथ ही और भी बहुत कुछ कहता है.

धार्मिक खाई का बढ़ना

सोर्स: APU Report-Infosphere

आय वितरण में धार्मिक अंतर का बढ़ना

सोर्स: APU Report-Infosphere

लैंगिक रूप से आय का अंतर कम होने की क्या वजह है?

APU की रिपोर्ट के निष्कर्षों से पता चलता है कि 2004 में पहली तिमाही में लैंगिक आय अंतर सबसे ज्यादा और चौथी तिमाही में सबसे कम था. इससे पता चलता है कि सबसे गरीब कामगारों के बीच लैगिक भेदभाव सबसे ज्यादा था, 2004 और 2019 के बीच सभी तिमाहियों में लैंगिक आय अंतर कम हो गया.

यह खासतौर से दूसरी, तीसरी और चौथी तिमाही में साफ दिखता है. लैंगिक आय अंतर के कम होने के लिए कई व्याख्याएं हो सकती हैं, जैसे कि लैंगिक भेदभाव के बारे में जागरूकता बढ़ना, भेदभाव-विरोधी कानून और सामाजिक मान्यताओं में बदलाव.

एक और वजह यह हो सकती है कि हाल के दशकों में महिलाओं की शैक्षिक उपलब्धि में उल्लेखनीय बढ़ोत्तरी हुई है. इससे महिलाओं को ज्यादा कौशल और जानकारी मिली, जिससे वे लेबर मार्केट में ज्यादा प्रतिस्पर्धी बन गईं. महिलाओं के लिए उपलब्ध रेगुलर वेतन वाली नौकरियों की संख्या में भी बढ़ोत्तरी हुई है.

एक संरचनात्मक बदलाव हुआ है जिससे महिला वर्कफोर्स की संरचना में बड़ा बदलाव आया है. यह देखा गया है कि उम्रदराज, कम शिक्षित महिलाएं वर्कफोर्स से बाहर जा रही हैं, जबकि नौजवान और ज्यादा पढ़ी-लिखी महिलाएं तेजी से वर्कफोर्स में आ रही हैं.

वर्कप्लेस पर महिलाओं के साथ होने वाले भेदभाव के हालात में सुधार के साथ-साथ नौकरी करने वालों की बदलती स्थितियों के कारण महिलाओं की आमदनी में बदलाव देखा जा सकता है. इस तरह, यह दलील दी जा सकती है कि लैंगिक वेतन अंतर को दो चीजों से कम किया जा सकता है, वर्कप्लेस में महिलाओं के खिलाफ भेदभाव को कम करके और महिलाओं की उच्च शिक्षा और खास योग्यता से, जिससे वह पेशेवर रूप से ज्यादा उपयोगी हो सकें.

बढ़ती वेतन असमानता

बाकी दो समूहों के बीच वेतन अंतर का कारण बनने वाले ‘अस्पष्ट अंतरों’ को समझने के लिए, APU रिपोर्ट के लेखक ने ब्लिंडर-ओक्साका डीकंपोजिशन (Blinder-Oaxaca decomposition) पद्धति को लागू किया है, जिसका निश्चित मतलब एंडोवमेंट और रिटर्न्स है. संक्षेप में कहें तो, यह एक एकाउंटिंग टेक्नीक है, जिससे आमदनी के अंतर के अनुपात का आकलन किया जा सकता है, जिसे शिक्षा के स्तर, वैवाहिक स्थिति और अन्य पहचानी गई विशेषताओं में अंतर के माध्यम से समझा जा सकता है.

यह पद्धति इस बात पर रौशनी डालती है कि आमदनी का अस्पष्ट हिस्सा (unexplained differences) महिलाओं के लिए SC/ST कामगारों या किसी भी तरह के काम में मुस्लिम कामगारों के मुकाबले कितना बड़ा है. दिलचस्प बात यह है कि अस्पष्ट आमदनी का अंतर जाति की तुलना में लैंगिक आधार पर ज्यादा बड़ा है क्योंकि महिलाओं के साथ, खासतौर से निजी क्षेत्र में, जाति के आधार पर ज्यादा भेदभाव किया जाता है क्योंकि यहां विभाजन दो जेंडर के बीच होता है, न कि एक जेंडर के व्यक्तियों के बीच.

वर्षवार कमाई के स्पष्ट और अस्पष्ट हिस्से.

सोर्स: APU Report-Infosphere

निजी क्षेत्र की तुलना में सरकारी क्षेत्र में जातिगत भेदभाव ज्यादा आम है क्योंकि निजी क्षेत्र समूहों को सशक्त बनाने के लिए इरादतन भेदभाव के उलट योग्यता के सिद्धांत पर चलता है. हालांकि, यह अस्पष्ट लैंगिक असमानता शहरी क्षेत्रों के मुकाबले में ग्रामीण क्षेत्रों में ज्यादा है. लैंगिक आधारित वेतन अंतर के पीछे स्पष्ट और अस्पष्ट कारणों में भी बड़ा अंतर है, जैसा कि ऊपर दी गई तालिका में देखा जा सकता है.

(दीपांशु मोहन अर्थशास्त्र के प्रोफेसर हैं और, जिंदल स्कूल ऑफ लिबरल आर्ट्स एंड ह्यूमैनिटीज, ओपी जिंदल ग्लोबल यूनिवर्सिटी सेंटर फॉर न्यू इकोनॉमिक्स स्टडीज (CNES) के निदेशक हैं. यह लेखक के निजी विचार हैं. द क्विंट न तो इसका समर्थन करता है न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)

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