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नए संसद भवन (Parliament) में आहूत पहले और विशेष सत्र में अचानक 27 वर्ष बाद ‘स्त्रीशक्ति वंदन विधेयक 2023’ को लोकसभा और राज्यसभा से मंजूरी मिली. जिसके अनुसार लोकसभा और राज्यों की विधान सभाओं में महिलाओं के लिए 33 फीसदी सीटें आरक्षित करने का प्रावधान है. इससे संबंधित संविधान (128वां संशोधन ) विधेयक, 2023; जो कि रूपांतरित होकर 106 वां संविधान संशोधन के नाम से जाना गया, पारित हो गया.
लगभग सभी विपक्षी दलों ने इस विधेयक का स्वागत व समर्थन किया, लेकिन ओबीसी को महिला आरक्षण में शामिल करने की मांग को पुरजोर तरीके से उठाया. बहरहाल इसके लागू होने की प्रकिया में तीन रुकावट बिंदु हैं. जिसमें जनसंख्या की गिनती, जनगणना, पहला है जो 2021 से लंबित है. दूसरा उक्त जनगणना के आधार पर लोकसभा क्षेत्रों का परिसीमन होना; जिसके लिए आयोग गठन का दिन अभी तय नहीं है.
तत्पश्चात् राज्यों के विधानसभा सभाओं से पारित कराना भी है, वह भी भविष्य के गर्भ में है. संभवतः विधायिका द्वारा निर्मित यह पहला कानून होगा जिसे लागू होने के लिए लाभार्थी वर्ग को एक अनिश्चित कालखंड तक इंतजार करना पड़ सकता है.
फलस्वरूप ओबीसी महिलाएं इस लाभ से वंचित रहेंगी. गौरतलब है कि एससी/एसटी वर्ग को वर्ष 1952 से संसद और राज्य की विधान सभाओं के सीटों में उनके आबादी के अनुपात में आरक्षण प्राप्त है.
ये वर्ग समूह ऐतिहासिक और सांस्कृतिक अन्याय के शिकार थे और इन्हें मुख्यधारा में लाने का यह एक उपाय माना गया. मंडल आयोग की अनुशंसा के आधार पर ओबीसी वर्ग को भी आरक्षण के दायरे में शामिल किया गया. इसके प्रावधानों के अनुसार सिर्फ सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थाओं में ही ओबीसी समूह को आरक्षण दिया गया है और इस वर्ग समूह को सामाजिक व शैक्षणिक पिछड़ा माना गया. लोकसभा और राज्य के विधानसभाओं में इन्हें आरक्षण नहीं दिया गया है. लेकिन इस आधार पर ओबीसी वर्ग को महिला आरक्षण से वंचित करना अन्यायपूर्ण है.
सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक दृष्टिकोण से सभी जाति समूह की महिलाओं को स्थिति एक जैसी नहीं है. पिछड़ी और दलित महिलाएं दोहरी वंचना की शिकार रही हैं. राजनीतिक प्रतिनिधित्व में महिला समुदाय के सभी वर्गों की सहभागिता जरुरी है तभी विधायी-विमर्श संतुलित होगा.
विकास को समावेशी और हर एक वर्ग को सबल बनाया जा सकता है. इसलिए ओबीसी महिला जिसकी संख्या 50 फीसदी से भी ज्यादा है उनको आरक्षण के दायरे में लाने की मांग बिल्कुल जायज और सकारात्मक है. महिला आरक्षण का मसला सिर्फ गैर-बराबरी का नहीं है बल्कि पितृसतात्मक प्रणाली में संरचनात्मक दोष के साथ-साथ जातिगत, शैक्षणिक और आर्थिक वंचना भी है.
आधी आबादी होने के बावजूद महिला समुदाय पारम्परिक कुरीतियों का दंश भी झेलती रही है. हालांकि, जागरूकता और नारीवादी आंदोलन के प्रभाव में अनेक सकारात्मक परिवर्तन हुए हैं. राज्य की नजर में महिला हो या पुरुष, दोनो ही एक समान नागरिक हैं. सभी नागरिक बराबरी के हकदार हैं. संविधान ने सिर्फ धर्म, जाति, वर्ग और लिंग के आधार पर भेदभाव को वर्जित किया है लेकिन समतामूलक समाज की स्थापना हेतु आरक्षण को संवैधानिक उपचार माना गया है.
समाज में व्याप्त असमानता की परिस्थिति में उपेक्षित वर्गों के लिए सकारात्मक पहल के रूप में आरक्षण को स्वीकार किया गया है. 73वें और 74वें संवैधानिक संशोधन के माध्यम से ग्राम पंचायत और स्थानीय निकाय के सीटों में 33 से 50 फीसदी आरक्षण देकर सभी श्रेणी के महिलाओं को सत्ता में हिस्सेदारी सुनिश्चित किया गया है. फलस्वरूप ग्रामीण स्तर पर स्थानीय लोकशासन में महिलाओं की भागीदारी और सक्रियता बढ़ी है.
भारत में संसदीय शासन प्रणाली लागू है, जिसमें तीन शीर्षस्थ राजनीतिक पद हैं; जो क्रमशः राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और राज्यपाल/मुख्यमंत्री के रूप जाने जाते हैं. हाल ही में भारत के 15वें राष्ट्रपति के तौर द्रौपदी मुर्मू चुनी गई हैं, जो प्रथम आदिवासी महिला हैं. अभी तक कुल दो महिला राष्ट्रपति हुई हैं. इंदिरा गांधी को भारत का प्रथम महिला प्रधानमंत्री होने का गौरव प्राप्त है. जबकि सन 1963 में सुचेता कृपलानी ने प्रथम महिला मुख्यमंत्री के तौर पर उतर प्रदेश सरकार को नेतृत्व प्रदान किया था.
देश और राज्यों के मंत्रिपरिषद में भी महिलाएं अपनी भूमिका बेहद कुशलता से निभाती आई हैं. हालांकि लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं में पुरुषों की तुलना में महिलाओं का प्रतिनिधित्व काफी निराशाजनक रहा है. इसलिए महिला आरक्षण की मांग राजनीतिक विमर्श में आया था.
उल्लेखनीय है कि वर्ष 1947-96 के दौरान लोकसभा में 15 फीसदी से कम और राज्य की विधान सभाओं में 10 फीसद से कम महिलाओं की भागीदारी रही है. इसलिए सन् 1996 में तत्कालीन देवगौड़ा सरकार पहली बार संसद में महिला आरक्षण विधेयक लेकर आई थी. याद रहे कि कोटा के अंदर कोटा सिद्धांत के तहत ओबीसी महिला को शामिल करने की मांग भी उसी वक्त से की जा रही है.
मोदी सरकार की तरफ से गृहमंत्री अमित शाह ने बताया किया कि वर्तमान में बीजेपी की तरफ से ओबीसी के 85 सांसद और 29 मंत्री हैं. अगर ओबीसी महिलाओं को इस आधार पर आरक्षण से वंचित किया जा सकता है तो सामान्य श्रेणी की महिलाओं के आरक्षण देने का कोई तार्किक औचित्य नहीं.
हालांकि राहुल गांधी ने जिस तथ्य को प्रकाशित किया कि भारत सरकार को संचालित करने वाले 90 सचिवों में सिर्फ तीन ओबीसी कैटीगरी से हैं, वह बेहद चिंताजनक है. इस प्रकार जातिगत गैर-बराबरी संबंधित बहूआयामी, वैज्ञानिक और व्यापक सूचना एकत्रित की जा सकती है.
यह समाज का एक आंकड़ा युक्त चित्र पेश करेगा जिसके आधार पर विकास केंद्रित और योजनाबद्ध नीतिगत फैसले लिए जा सकते हैं. ‘सबका साथ, सबका विकास’ के वास्तविक उद्देश्य की तरफ सार्थक कदम बढ़ाए जा सकेंगे.
निःसंदेह ओबीसी महिलाएं बेहद विपरीत परिस्थिति में होंगी. यदि स्त्रीशक्ति वंदन अधिनियम में ओबिसी महिलाओं को शामिल किया जाता तब निश्चय ही एक युगांतरकारी कदम साबित होता. उनकी हिस्सेदारी सुनिश्चित की जा सकती और तब यह महिला सशक्तिकरण का एक मजबूत औजार भी बन सकता.
कोटा के अंदर कोटा की पृष्ठभूमि तैयार करने के लिए जिस सरकार ने जस्टिस रोहिणी आयोग (2018) गठित किया, उसी आधार पर महिला आरक्षण में ओबीसी को शामिल करने की मांग को कैसे खारिज कर सकती है? यह एक यक्ष प्रश्न है!
(लेखक डॉ नवल किशोर दिल्ली यूनिवर्सिटी में राजनीति विज्ञान के एसोसियट प्रोफेसर हैं और आरजेडी के राष्ट्रीय प्रवक्ता हैं. यह एक ओपिनियन पीस है. यहां लिखे विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट हिंदी का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है.)
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