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एक मुहावरा है- बड़ी मछलियां, छोटी मछलियों को खा जाती हैं. आजकल बिहार की राजनीति में भी कुछ ऐसी ही कहानी चल रही है. और इसी कहानी से एक नाम याद आ रहा है- खुद को सन ऑफ मल्लाह कहने वाले विकासशील इंसान पार्टी (VIP) के मुखिया मुकेश सहनी (Mukesh Sahni). बीजेपी ने मुकेश सहनी की पूरी की पूरी पार्टी हथिया' ली है. बीजेपी ने ऐसा जाल फेंका कि मुकेश सहनी की पार्टी के तीनों के तीनों विधायक बीजेपी के पाले में वापस आ गए.
बचपन से ही हम लोगों ने महाभारत में अर्जुन का मछली की आंख पर निशाना लगाने वाली घटना का जिक्र सुना है. लेकिन कलयुग में बीजेपी ने नीतीश के 'तीर' से मछली की आंख पर निशाना लगाया है. इसे ऐसे समझिए कि जब मुकेश सहनी की पार्टी के विधायक बीजेपी में चले गए तब मुकेश सहनी ने मंत्री पद से इस्तीफा देने से इंकार कर दिया और कहा कि ये फैसला नीतीश कुमार के हाथ में है कि वह किसे कैबिनेट में रखते हैं और किसे नहीं. लेकिन अगले ही पल मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने बीजेपी का साथ निभाने के लिए राज्यपाल फागू चौहान को पत्र लिखकर मुकेश सहनी को मंत्री पद से हटाने की सिफारिश कर दी.
लेकिन सवाल है कि नीतीश को आखिर ये क्यों करना पड़ा? क्या नीतीश ने अब खुद को पूरी तरह से जेडीयू को छोटे भाई के रूप में मान लिया है?
पटना कॉलेज के पूर्व प्रिंसिपल और इकोनॉमिक्स के प्रोफेसर रह चुके नवल किशोर चौधरी बताते हैं कि बीजेपी और नीतीश के बीच का रिश्ता सिर्फ संख्या का नहीं है. अगर संख्या का मामला होता तो विधानसभा चुनाव जीतने के बाद मुख्यमंत्री बीजेपी का होता. लेकिन नीतीश कुमार सिर्फ संख्या नहीं हैं, वो ब्रांड हैं बिहार में.
नवल किशोर चौधरी कहते हैं,
नीतीश कुमार ने भले ही बीजेपी के कहने पर मुकेश सहनी को मंत्रीमंडल से आउट कर दिया हो लेकिन बीजेपी से उनके खुद के रिश्ते भी कभी नीम-नीम, कभी शहद-शहद के रहते हैं.
अभी हाल ही में लखीसराय में 9 लोगों की हत्या और सरस्वती पूजा के दौरान कोविड नियमों के उल्लंघन के आरोप में बीजेपी के दो कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी का मामला विधानसभा में उठा था. जिसे लेकर बीजेपी-जेडीयू आमने-सामने आ गई. नीतीश कुमार ने गुस्से में अपने ही गठबंधन के खिलाफ 'तीर' चलाया और विधानसभा अध्यक्ष को संविधान देखने की नसीहत तक दे डाली. जिसके बाद विजय सिन्हा सदन में नहीं पहुंचे. फिर किसी तरह बीजेपी-जेडीयू ने इस मामले को शांत किया.
वरिष्ठ पत्रकार और यूनीवार्ता के विशेष संवाददाता रवि उपाध्याय कहते हैं,
नीतीश कुमार के बीजेपी की लाइन पर चलने को लेकर रवि उपाध्याय एक उदाहरण देते हैं. रवि कहते हैं, "उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ के शपथ ग्रहण समारोह की एक तस्वीर बाहर आई है, जिसमें नीतीश कुमार पीएम मोदी के सामने झुककर नमस्कार कर रहे हैं. इससे पहले जब योगी सीएम बने थे तब नीतीश, सुषमा स्वराज के साथ बैठे हुए थे, पीएम मोदी नीतीश से मिलने खुद उठकर आए थे. लेकिन अब चीजें बदल गई हैं."
ये पहला मामला नहीं है जब नीतीश ने तल्ख तेवर दिखाए हैं, चाहे वो जनता दल यूनाइटेड (JDU) की राष्ट्रीय परिषद की बैठक में नीतीश कुमार पीएम मैटेरियल बताने का प्रस्ताव पास कराना हो या फिर जातीय जनगणना के मामले पर आरजेडी नेता तेजस्वी यादव के साथ कदम से कदम मिलाकर पीएम मोदी से मिलना हो. अब चाहे बीजेपी के खिलाफ पॉपुलेशन कंट्रोल पर स्टैंड लेना हो या फिर चिराग पासवान के बागी चाचा पशुपति पारस को केंद्र में कुर्सी दिलाने से लेकर अपनी पार्टी के सांसद को मोदी मंत्रिमंडल में भेजना हो.
रवि उपाध्याय कहते हैं कि जिस सीट को लेकर बीजेपी और मुकेश सहनी आमने-सामने आए हैं, वो असल में मुकेश सहनी की पार्टी की थी. बोचहां विधानसभा सीट मुकेश सहनी की पार्टी वीआईपी के विधायक के निधन के बाद खाली हुई है, ऐसे में बीजेपी ने गठबंधन के बावजूद अपना उम्मीदवार उतारा है. लेकिन इन सबके बाद नीतीश बीजेपी की हर बात मान रहे हैं. उन्हें अपने कद का अंदाजा हो गया है शायद, तब ही तो कश्मीरी पंडितों को लेकर बनी फिल्म कश्मीर फाइल्स को टैक्स फ्री करने की बात बीजेपी ने उठाई तो जेडीयू ने भी हां में हां मिलाया.
बीजेपी और उसकी सहयोगी छोटी पार्टियों के रिश्ते को समझना है तो थोड़ा फ्लैश बैक में जाना होगा. पूर्व मंत्री राम विलास की लोक जनशक्ति पार्टी ने 2014 और 2019 का लोकसभा चुनाव बीजेपी के साथ मिलकर लड़ा था. राम विलास पासवान के बेटे और एलजेपी के अध्यक्ष चिराग पासवान भी लगातार पीएम मोदी को अपना 'राम' कहते रहे, लेकिन 2020 विधानसभा चुनाव में एलजेपी और जेडीयू में तकरार बढ़ी तो बीजेपी ने जेडीयू का साथ दिया और चिराग को एनडीए से बाहर का रास्ता दिखा दिया. हालांकि सियासी गलियारों में ये कहा जाता रहा कि बीजेपी के कहने पर ही चिराग नीतीश को कमजोर करने के लिए ही उनके खिलाफ अपने उम्मीदवार उतार रहे हैं. ऐसे तो चिराग पासवान की पार्टी को सिर्फ एक ही सीट हासिल हुई. लेकिन उनकी पार्टी का दावा है कि एलजेपी ने करीब तीस सीटों पर नीतीश कुमार की जेडीयू को हराने का काम किया है.
लेकिन रामविलास पासवान की मौत के बाद भतीजे चिराग पासवान और चाचा पशुपति पारस के बीच ठन गई. पशुपति पारस ने 5 सांसदों की एक चिट्ठी लोकसभा स्पीकर ओम बिड़ला को भेजी और खुद को संसदीय दल का नेता बनाने की मांग की. फिर क्या था चिराग 'राम-राम' कहते रह गए और राम ने अपने 'हनुमान' को छोड़, 'पारस' को हाथ लगाना पसंद किया. मोदी सरकार के मंत्रिमंडल में भी पशुपति पारस को जगह मिली. कहा जाता है ये सब नीतीश कुमार के कहने पर हुआ.
ये सच है कि बीजेपी और नीतीश के बीच तकरार प्रेशर के रूप में काम करती है. वहीं नीतीश की घटती सीट और बढ़ती उम्र बीजेपी के लिए फायदे का सौदा बन सकती है. लेकिन नीतीश पुराने खिलाड़ी हैं, उन्हें सत्ता में रहने का हुनर पता है. नीतीश के पास लालू यादव की आरजेडी के साथ गठबंधन का ऑप्शन भी है, और बीजेपी पर दबाव बनाकर सरकार चलाने की ताकत भी.
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