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साल 2014 में भारी भरकम जीत के साथ बीजेपी ने दिल्ली दरबार में दस्तक दी तो कहा गया कि इसके पीछे पिछड़ी जातियों और दलितों का बड़ा रोल है. बीजेपी के रणनीतिकारों ने भी इसे स्वीकार किया. नतीजा ये रहा कि अगले पांच साल तक बीजेपी की राजनीति इन्हीं दो बड़े वर्गों के आसपास सिमटती दिखी.
लेकिन ऐसा लगता है कि ये सब कुछ देखने और दिखाने के लिए ही था. बीजेपी ने दुनिया के सामने दलितों और पिछड़ों को अपना चेहरा बनाया लेकिन बारी जब टिकट बंटवारे की आयी, तो अगड़ों पर पार्टी ने ज्यादा भरोसा जताया. मतलब साफ है कि अभी अब तक बीजेपी की घोषित 61 प्रत्याशियों में से 29 सवर्ण हैं. करीब-करीब पचास फीसदी.
बीजेपी में मोदी युग के उदय के बाद एक अलग किस्म की राजनीति देखने को मिली. खासतौर से उत्तर प्रदेश के अंदर. सियासी रूप से सबसे मजबूत उत्तर प्रदेश के रण को जीतने के लिए अमित शाह ने एक ऐसी सियासी बिसात बिछाई, जिसमें विरोधी उलझकर रह गए. या यूं कह लें कि अमित शाह ने बीजेपी की सियासत की दिशा को ही बदल दिया.
जातिवाद की नब्ज को भांपने में अमित शाह यूपी के दूसरे नेताओं से अधिक होशियार नजर आए. नतीजा ये रहा कि बीजेपी ने सवर्णों के साथ-साथ ओबीसी खासतौर से गैर यादव और दलितों पर बड़ा दांव खेला. पार्टी संगठन से लेकर मंचों पर इन जातियों के नेताओं को खूब तवज्जो दी गई. नरेंद्र मोदी यूपी की जनसभाओं में खुद को पिछड़े वर्ग का नेता बताते रहे.
नतीजा ये रहा कि बीजेपी ने साल 2014 के बाद 2017 विधानसभा चुनाव में भी जोरदार जीत दर्ज की. जिसकी उम्मीद खुद बीजेपी ने भी नहीं की थी.
दलित 22 फीसदी
ओबीसी 40 फीसदी
यूपी में ओबीसी वोटबैंक सबसे बड़ी ताकत है अगर साथ रहे तो. इस ताकत को बीजेपी ने आजमा लिया था. लेकिन पीएम मोदी जानते थे कि ये वोट बैंक उनका नहीं है. ये वोट बैंक उनका बना रहे, इसके लिए यूपी की किसी भी जनसभा में मोदी अपने को पिछड़े वर्ग से आने का उल्लेख करना नहीं भूलते. इसका एक खास कारण है कि ये मोदी को उत्तर प्रदेश ही नहीं, पूरी हिंदी बेल्ट में लाभ पहुंचाता है. बीजेपी ने ओबीसी और दलितों के सहारे सिर्फ लोकसभा चुनाव ही नहीं बल्कि विधानसभा का चुनाव भी फतह किया.
बीजेपी के अंदर सवर्ण नेताओं की अपेक्षा दलितों और पिछड़े वर्ग से आने वाले नेताओं की खूब पूछ हुई. लिहाजा सालों तक बीजेपी को अछूत समझने वाली ये जातियां खुलकर उसके समर्थन में आ गई.
बीजेपी ने सिर्फ राजनीतिक तौर पर ही नहीं बल्कि भावनात्मक रूप से ओबीसी और दलितों को जोड़ने की कोशिश की. बीजेपी ने दोनों वर्गों के बड़े महापुरुषों और नेताओं का सम्मान कुछ यूं किया कि विरोधी तिलमिला उठे.
भीमराव अबंडेकर की जयंती मनाने की बात हो या फिर मूर्ति के बहाने सरदार पटेल के प्रति अपना प्रेम दिखाया. सुप्रीम कोर्ट ने एससीएसटी एक्ट ने कड़ा फैसला लिया तो बीजेपी ने सवर्णों की परवाह किए बगैर संसद में उस निर्णय को पलटने में देरी नहीं की. लेकिन इस बीच सर्वण बीजेपी से दूरी बनाने लगे. जिसका खामियाजा राजस्थान, एमपी और झारखंड में बीजेपी को हार की कीमत पर चुकानी पड़ी. अब आम चुनाव में ऐसी स्थिति न बने इसलिए बीजेपी ने रास्ता बदल लिया है.
वैसे तो यूपी का चेहरा खुद योगी आदित्यनाथ है जो क्षत्रिय है और देश के गृहमंत्री राजनाथ सिंह भी यूपी से ही आते है. ब्राह्मण बैलेंस करने के लिए महेंद्र नाथ पांडेय को पार्टी का प्रदेश अध्यक्ष बनाया गया. लेकिन वो कोई रिस्क नही लेना चाहती. लिहाजा टिकटों में सवर्ण वोटों के अनुपात में काफी आगे निकल गये हैं.
अब तक 61 टिकट बांटे गए हैं, जिसमें 29 टिकट सवर्णों के नाम है.
वोटों में तकरबीन 65 फीसदी हिस्सेदारी वाले दलित और ओबीसी
उत्तर प्रदेश के अंदर बीजेपी की दो सहयोगी पार्टियां हैं. अनुप्रिया पटेल का अपना दल और दूसरी सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी जिसके मुखिया ओमप्रकाश राजभर हैं. कहा जाता है कि पूर्वांचल में जहां कुर्मी वोटर्स में अनुप्रिया पटेल की अच्छी पकड़ है तो वहीं राजभर जाति में ओमप्रकाश राजभर का. दोनों की जनसभाओं में भीड़ भी खूब होती है.
अपने-अपने इलाके में दोनों की सियासी हैसियत ठीक-ठाक है. जानकार बताते हैं कि बीजेपी ने दोनों ही पार्टियों को पनपने नहीं दिया. दोनों के कंधों पर बंदूक रखकर बीजेपी ओबीसी की फसल तो काट रही है लेकिन टिकट में हिस्सेदारी नहीं देना चाहती है.
आलम ये है कि मजबूत संगठन और अच्छी पकड़ के बावजूद बीजेपी ने अनुप्रिया को सिर्फ दो सीटों पर समेट दिया तो वहीं दूसरी ओर ओमप्रकाश राजभर से बीजेपी के नेता सीधे मुंह बात भी नहीं कर रहे हैं. नतीजा ओमप्रकाश राजभर की पार्टी ने अकेले चुनाव लड़ने की चेतावनी दे रहे हैं.
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