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वो चुप हैं पर उनके वोट बोलेंगे.. उत्तर प्रदेश की कई सीटों में सिर्फ एक ऐसा फैक्टर सबसे अहम हो गया है जो बीजेपी से 19 सीटें छीन सकता है.
राहत इंदौरी साहब का एक मशहूर शेर है 'सियासत में जरूरी है रवादारी.... समझता है, वो रोजा तो नहीं रखता पर इफ्तारी समझता है'
इस शेर से यूपी में इस बार मुसलमान वोट की अहमियत को सबसे अच्छे से समझ सकते हैं. एसपी और बीएसपी के गठबंधन ने मुसलमानों के कंफ्यूजन को बहुत कम कर दिया है और यही बात बीजेपी की चुनावी रणनीति में उथल-पुथल मचा चुकी है. हालांकि लोकसभा चुनाव में मैदान में कांग्रेस भी है.
आबादी के लिहाज से सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में 3.84 करोड़ (2011 की जनगणना के मुताबिक) से ज्यादा मुसलमान रहते हैं. यानी उत्तर प्रदेश की कुल आबादी का 19 फीसदी से ज्यादा.
इसलिए उत्तर प्रदेश में मुसलमान वोट काफी अहम है. मुस्लिमों का सियासी मुकाम तय न होने की वजह से हर दल इस 19 फीसदी वोट बैंक को अपने पाले में करना चाहता है.
इसी तरह मेरठ, बहराइच, श्रावस्ती, सिद्धार्थनगर, बागपत, गाजियाबाद, पीलीभीत, संतकबीर नगर, बाराबंकी, बुलंदशहर, बदायूं, अलीगढ़, लखनऊ और खीरी में 20 फीसदी से ज्यादा मुसलमान आबादी है.
मुरादाबाद, रामपुर, बिजनौर, कैराना, अमरोहा, मुजफ्फरनगर, सहारनपुर, बरेली, मेरठ, संभल, बलरामपुर, मऊ, बदायूं, बहराइच, आजमगढ़, कानपुर, बुलंदशहर, गाजियाबाद, बाराबंकी.
अब तक सही विकल्प न मिल पाने की वजह से मुसलमानों में भ्रम की स्थिति बनी हुई है. उन्हें समझ नहीं आ रहा है कि लोकसभा चुनाव में किसे वोट दें. एक तरफ एसपी-बीएसपी का गठबंधन है, तो दूसरी ओर कांग्रेस जैसी पुरानी राष्ट्रीय पार्टी. अखिलेश और मायावती ने पुराने गिले-शिकवे भुलाकर भले ही गठबंधन कर लिया हो, लेकिन मुस्लिम अब तक किसी भी फैसले पर नहीं पहुंच पाए हैं.
इसकी बड़ी वजह ये है कि साल 2014 के लोकसभा चुनाव में यूपी से एक भी मुस्लिम उम्मीदवार जीतकर संसद नहीं पहुंच सका था. हालांकि, पिछले चुनाव में गैर-भाजपाई दलों ने बड़ी संख्या में मुस्लिम उम्मीदवार उतारे थे. बीएसपी ने दलित-मुसलमान के समीकरण को ध्यान में रखकर 19, एसपी ने 13 और कांग्रेस ने 11 मुस्लिम उम्मीदवार उतारे थे, लेकिन इनमें से एक भी नहीं जीत सका.
उत्तर प्रदेश की दर्जनभर से ज्यादा मुस्लिम बहुल सीटों पर सबकी नजरें लगी हुई हैं. इनमें रामपुर जैसी सीटें भी शामिल हैं, जहां 50 फीसदी से ज्यादा मुस्लिम आबादी है. प्रदेश में करीब 21 सीटें ऐसी हैं, जहां मुस्लिम आबादी 20 फीसदी है. इन सीटों पर भी कांग्रेस और गठबंधन की नजरें गढ़ी हुई हैं.
मुस्लिमों के लिए विकल्प के तौर पर कांग्रेस और गठबंधन के अलावा स्थानीय दलों की भी अनदेखी नहीं की जा सकती. शिवपाल यादव की प्रगतिशील समाजवादी पार्टी के अलावा ओवैसी की एमआईएम और डॉ. अयूब की पीस पार्टी जैसे छोटे दल भी गठबंधन कर बड़े दलों का खेल बिगाड़ सकते हैं.
मुस्लिम वोटों की लामबंदी करने के लिए बीजेपी का डर दिखाना गैर भाजपाई दलों का पुराना पैंतरा रहा है. बीजेपी को हराने-जिताने की सियासत ने मुस्लिमों को उनके मूल मुद्दों से भटका दिया है. शिक्षा, स्वास्थ्य, बेरोजगारी और सुरक्षा जैसे मुद्दे चुनावी राजनीति से दूर होते जा रहे हैं.
लेकिन फिर भा कुछ मुद्दे हैं, जिनके जरिए मुस्लिम वोट को लामबंद करने की कोशिश की जा सकती है. चुनाव के शुरुआती माहौल में एक बात तो साफ हो रही है कि मंदिर-मस्जिद, हिन्दुस्तान-पाकिस्तान, मॉब लिंचिंग और तीन तलाक के मुद्दे तो होंगे ही. लेकिन इस बार मुसलमान शिक्षा, नौकरी और सत्ता में हिस्सेदारी को लेकर ज्यादा फिक्रमंद दिख रहा है.
एसपी-बीएसपी गठबंधन ने जिन मुस्लिम बहुल सीटों पर दलित-मुस्लिम गणित को ध्यान में रखकर उम्मीदवार उतारे हैं. उन सीटों पर कांग्रेस गठबंधन का गणित बिगाड़ सकती है. पश्चिमी यूपी की चार ऐसी लोकसभा सीटें हैं, जहां कांग्रेस के मुस्लिम उम्मीदवार, गठबंधन की उम्मीदों पर पानी फेर सकते हैं.
सहारनपुर, अमरोहा, मुरादाबाद और बिजनौर में मुस्लिम उम्मीदवारों को मैदान में उतारकर कांग्रेस ने गठबंधन को अपनी ताकत का एहसास करा दिया है.
सहारनपुर लोकसभा सीट पर दिलचस्प मुकाबला होने की उम्मीद है. इस सीट पर 42 फीसदी मुस्लिम वोटरों को अपने पाले में करने के लिए कांग्रेस और एसपी-बीएसपी गठबंधन के बीच टक्कर हो सकती है.
इस सीट पर एसपी-बीएसपी गठबंधन ने हाजी फजलुर्रहमान और कांग्रेस ने इमरान मसूद को चुनाव मैदान में उतारा है. साल 2014 के लोकसभा चुनाव में मोदी लहर के बावजूद भी इमरान मसूद को 34 फीसदी वोट मिले थे. वहीं, हाजी फजलुर्रहमान का भी क्षेत्र में अच्छा खासा प्रभाव है.
इस सीट पर एसपी-बीएसपी गठबंधन ने कुंवर दानिश अली और कांग्रेस ने राशिद अल्वी को चुनाव मैदान में उतारा है. दोनों नेता जाना पहचाना चेहरा हैं. अमरोहा में 40 फीसदी आबादी मुसलमानों की है.
लिहाजा, इस बड़े वोट बैंक को साधने के लिए एसबी-बीएसपी गठबंधन और कांग्रेस के बीच जंग तय है. ऐसे में इन दोनों की लड़ाई, बीजेपी उम्मीदवार को फायदा पहुंचा सकती है.
इस सीट पर एसपी-बीएसपी गठबंधन ने मलूक नागर और कांग्रेस ने मायावती के करीबी रहे नसीमुद्दीन सिद्दीकी को चुनाव मैदान में उतारा है. इस संसदीय क्षेत्र में करीब 43 फीसदी मुस्लिम आबादी है.
कांग्रेस को उम्मीद है कि नसीमुद्दीन के चुनाव लड़ने से मुस्लिम वोटरों का बड़ा तबका गठबंधन के उम्मीदवार के बजाय नसीमुद्दीन को वोट करेगा.
इस सीट पर अब तक हुए 17 चुनावों में से 11 बार मुस्लिम उम्मीदवारों ने बाजी मारी है. जाहिर, है कि इस सीट पर हार-जीत तय करने के लिए मुस्लिम बड़ा फैक्टर है.
एसपी-बीएसी गठबंधन ने इस सीट पर अब तक अपना उम्मीदवार घोषित नहीं किया है, लेकिन कांग्रेस ने चुनौती देने के लिए शायर इमरान प्रतापगढ़ी को चुनावी जंग में उतार दिया है. मुरादाबाद में 47.12 फीसदी आबादी मुस्लिम है. ऐसे में ये तय है कि इस सीट पर गठबंधन और कांग्रेस के बीच मुस्लिम वोटों के लिए कड़ा मुकाबला होगा.
बहरहाल, लोकसभा चुनाव 2019 में मुस्लिम एक बार फिर सियासी दलों के नूर-ए-नजर बनते दिख रहे हैं. लेकिन 23 मई की तारीख बताएगी, कि इस सियासी खेल में मुसलमान किसका फायदा कराएंगे और किसका नुकसान?
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Published: 28 Mar 2019,04:55 PM IST